Sunday, October 10, 2021

खैय्याम-ठहरिए होश में आ लूँ तो चले जाइएगा..फ्लैश-बैक-------------------------

एक बार बेगम अख्तर ने कहा था कि खैय्याम की बनाई धुनों पर जब वे गीत गाती हैं, तो उनकी उम्र बीस बरस कम हो जाती है. यानी उनकी बनाई धुनों में वो जवानी है कि, गायक और गायकी को भी हमउम्र कर लेती है. यह बयान इस बात को भी साबित करने के लिए काफी है कि खैय्याम ने जो संगीत रचा है, उनकी खासियत और अमूमन संगीतकारों से कितनी अलग है.
खैय्याम की जाती जिदंगी की सादगी, उन्हें एक इंसान के तौर पर जितना बेहतर साबित करती है, उनकी मौसिकी की सादगी उन्हें उतना ही ऊंचा संगीतज्ञ साबित करती है. एक बार उन्होंने स्वयं कहा था-कलाकार को चाहिए कि वह औसत आदमी से दूर न जाए, मगर कला की असल ऊँचाई तक हर उस आदमी को भी लाने की कोशिश करें, जो उनसे दूर है. इसी इच्छाशक्ति के चलते खैय्याम ने फिल्म इंडस्ट्री में जगह बनाई. पैसे और थोकबंद प्रोडक्शन के लालच में घटिया गीत और चालू धुनें देने का सौदा खैय्याम को रास नहीं आया. भले ही, साल भर में उंगलियों पर गिनने लायक फिल्में की, मगर तबियत से की. वे संगीत की गहराई और अपने स्थापित मानदंडों का पैमाना सामने रखकर चले. इसलिए फिल्म चली या न चली. खैय्याम के गाने चलते रहे.
खैय्याम अपने जवानी के दिनों में एक्टर बनने का ख्वाब संजोए हुए थे. वे जालंधर जिले में पैदा हुए थे और रंगमंच पर काम करने का थोड़ा-बहुत स्थानीय किस्म का तजुर्बा हासिल था. फिल्मों में हीरो बनने के लिए दिल्ली पहुंच गए. चाचा ने उनके इरादे भांपे और गाना सीखने के लिए संगीतकार अमरनाथ के पास ले गए (क्योंकि तब हीरो को गाना भी पड़ता था). फिर कई संगीतकारों की शार्गिदी की, मगर यह फिल्मों में जाने का दरवाजा न खोल सकीं. अंतत: वे दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सेना में भर्ती हो गए. युद्ध की समाप्ति के बाद खैय्यम फौज से लौटे और बंबई की फिल्म इंडस्ट्री में पैर जमाने के लिए उतर गए. 
चिश्ती साहब से वली साहब तक के पास पहुंचते-पहुंचते उन्होंने हीर-रांझा फिल्म के लिए एक गाना कम्पोज कर के दिया. फिर वर्मा-शर्मा की संगीत जोड़ी में शामिल हुए. बीवी फिल्म में इसके तहत काम किया. वर्माजी जब पाकिस्तान गए तो खैय्याम फिर अकेले पड़ गए. उनकी असली तलाश रणजी मूवीटोन के चंदूलाल शाह के यंहा पूरी हुई. गीतकार मजरुह और अभिनेता अनवर हुसैन के जरिए हुई इस भेंट से मिली फिल्म फुटपाथ. तलत महमूद की आवाज में बनाया गया गीत शामे गम की कसम हिट हो गया. उसके बाद लाला रुख (1958) और फिर सुबह होगी के हिट होने की कहानी तो जग जाहिर है. शोला और शबनम, बारुद, शगुन, मोहब्बत इसको कहते हैं, त्रिशूल, कभी-कभी, नूरी, आहिस्ता-आहिस्ता, खानदान, दिले-नादाँ, उमराव-जान, बाजार और रजिया सुल्तान तक संगीत इस बात का गवाह है कि भले ही फिल्में और फिल्मवाले अपने सौदो के हिसाब से बदलते रहे मगर खैय्याम की मिठास में कोई फरक नहीं आया. उमराव जान के मुजरे, लोरी की लोरी और थोड़ी सी बेवफाई का विरह गीत.. सभी खैय्याम के अंदाज में अनूठे हो गए. खैय्याम की सोच है कि वर्तमान संगीत में गिरावट आने का कारण चरित्र गिरावट का नतीजा है.
खैय्याम की पत्नी जगजीत कौर हैं जो स्वयं बेहद काबिल फनकारा है. खैय्याम के संगीत के बाग-बगीचे से कुछ खुश्बुदार नगमें इस प्रकार है- शामें गम की कसम, आज गमगीन है हम..(फिल्म: फुटपाथ तलत महमूद 1953), फिर न कीजै मेरी गुस्ताख निगाहों का गिला (फिर सुबह होगी मुकेश-लता 1958), है कली कली के लब पर तेरे हुस्न का फसाना (लाला रुख मुकेश-आशा 1958), रंग रंगीला सावरा मोहे मिल गया जमुना पार (बारुद लता व साथी 1960), जाने क्या ढूंढती रहती है ये आँखें मुझ में (शोला और शबनम रफी 1961), परबतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है (शगुन सुमन-रफी 1964), तुम अपना रंजो गम अपनी परेशानी हमें दे दो (शगुन जगजीत कौर 1964), ठहरिए होश में आ लूं तो चले जाइएगा (मोहब्बत इसको कहते है सुमन-रफी 1965), बहारों मेरा जीवन तुम संवारों, कोई आए कहीं से यूं पुकारों (आखिरी खत लता 1965)
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है (कभी-कभी लता मुकेश 1976), माना तेरी नजर में तेरा प्यार हम नहीं (आहिस्ता-आहिस्ता आशा सुलक्षणा पंडित 1981), दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए (उमराव जान आशा 1983), दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया (बाजार लता 1982).
रवि के गुरुबक्षणी

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