Tuesday, February 23, 2010

भारतीय रजतपट की पहली सुसंस्कृत तारिका --- देविका रानी
















फ्लैश बैक----- रवि के. गुरुबक्षाणी
स्मरण दिवस - 9 मार्च पर विशेष





----------ak -naam जो आज भी चम्पे की टटकी कली की खुशबु का और भोर के तारे की शंाति, स्निग्धता और शुचिता का अहसास कराता है, वह नाम देविका रानी का है.पुरुषप्रधान समाज में दादा फालके पुरस्कार पाने वाली देविका रानी की एक फिल्म देखकर सुप्रसिद्ध बर्मिंघम पोस्ट ने लिखा - इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि देविका रानी के अभिनय में ऐसा गीतात्मक लालित्य और सम्मोहन है, जिसने एक सीधी सादी पटकथा को अद्भुत सौंदर्य की वस्तु बना दिया . रजत पट पर आने वाली वह अब तक की सबसे सुंदर नारी है. इस प्रकार देविका रानी ने अपने कुशल अभिनय और बेमिसाल सौंदर्य से पूरे लंदन को चकित कर दिया. कर्म देखने के बाद सरोजनी नायडू ने भी उन्हें बहुत सराहा.
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दुनिया एक रंगमंच है और दुनिया वाले रंगकर्मी. इम दुनिया में आने वाला हर प्राणी यहाँ आकर अपनी अपनी भूमिका निभाता है. तदोपंरात इस दुनिया से कूच कर जाता है. फिल्मों में कुछ कलाकार अपनी विशिष्टता से हमेशा याद किए जाते हैं. देविका रानी एक ऐसी ही अदाकारा थीं.जब जब सौंदर्य व प्रतिभा के अनोखे संगम की बात चलेगी तो देविका रानी की ही बात चलेगी. सिनेमा संसार के ग्लैमरस और इंद्रधनुषी परिवेश में उन्हें कभी फस्र्ट लेडी कहा गया, कभी सबसे सुंदर अभिनेत्री कहा गया, तो कभी बेहिसाब अधिकार सम्पन्न अभिनेत्री का खिताब दिया गया. फालके पुरस्कार पाने वाली सर्वप्रथम हस्ती देविका रानी ही थीं.फिल्म अछूत कन्या से अशोककुमार के साथ हिट जोड़ी की परंपरा शुरु करने वाली नायिका देविका रानी ही थीं. दरअसल भारतीय सिनेमा में स्त्री द्वारा नायिका के अभिनय की शुरुआत देविका रानी के नाम से होती है.
बॉम्बे टाकीज से शुरुआत करते है. हिमांशु राय भले बॉम्बे टॉकीज के संस्थापक-सृजक और सर्वेसर्वा थे, कितुं 220 स्त्री-पुरुषों को रोजी-रोटी देनेवाली इस विशाल संस्था की जिम्मेदारी देविका रानी ही संभालती थी. 1928-29 में इंग्लैंड में हिमांशु और देविका रानी की पहली मुलाकात हुई थीं. 16 फरवरी 1964 को फिल्म निर्माण संस्था की स्थापना हुई जिसे बॉम्बे टॉकीज नाम दिया गया. इस संस्था में पढ़े लिखे लोगों को प्रवेश दिया जाता था. निर्देशक शशधर मुखर्जी, अमिय चक्रवर्ती, अशोक कुमार, दिलीप कुमार जैसे जाने माने लीजेंड इसी संस्था की देन है. किशोर कुमार ने भी यहीं से कैरियर की शुरुआत की थीं. इस स्टूडियों और संस्था ने अभिनेता-लेखक-निर्देशक किशोर शाह, कॉमेडियन महमूद के पिता और डांस डाइरेक्टर मुमताज अली, अभिनेत्री स्नेहलता प्रधान, चरित्र अभिनेता नाना पलसीकर, लेखक-पत्रकार-फिल्म निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास, गायिका-अभिनेत्री सुरैया, अमिय चक्रवर्ती तथा महान गीतकार प्रदीप कुमार जैसे नाम दिए हैं.
पाशात्य संस्कारों में पली बढ़ी देविका रानी ने ग्रामीण हरिजन युवती कस्तूरी की भूमिका फिल्म अछूत कन्या में निभा कर सबको हतप्रभ कर दिया था. अशोक कुमार ने इसी फिल्म में अपना पहला गीत गाया था - मैं बन के पंछी, बन के संग संग डोलू रे...इस फिल्म की लोकप्रियता देखकर पंडित नेहरु भी स्वयं को रोक नहीं पाए थे. देविका रानी के तमाम पत्रों में एक दिन उनका भी पत्र पंहुच गया. देविका रानी स्वाभाविक रुप से आश्चर्य में पड़ गई. सरोजिनी नायडू पहले ही देविका के अभिनय की कायल हो चुकी थीं. अछूत कन्या का किरदार उन्हें पहले ही द्रवित कर चुका था. दरअसल पंडित नेहरु को फिल्म देखने के लिए उन्होंने ही प्रेरित किया था. तब पं. नेहरु ने सरदार वल्लभ भाई पटेल और आचार्य नरेंद्र देव के साथ 25 अगस्त 19&6 को रॉक्सी सिनेमा में यह फिल्म देखी थीं. कैरियर के सुनहरे दौर में देविका रानी ने तकरीबन जिन 15 फिल्मों में काम किया वे हैं - कर्मा, जवानी की हवा, जीवन प्रभात, हमारी बात, अछूत कन्या, ममता, निर्मला, दुर्गा, सावित्री, और अंजना. जयराज के साथ हमारी बात उनका अंतिम फिल्म थीं. 19 मई 1940 के दिन हताश और नर्वस ब्रेक डाऊन का शिकार बने हिमांशु राय चल बसे. इसके बाद देविका रानी ने अभिनय की तिलांजलि दे दी. उनकी कई यादगार भूमिकाओं में अछूत कन्या की हरिजन बाला, ब"ो को तरसती नि:संतान स्त्री के रुप में निर्मला, अनाथ युवती के रुप में दुर्गा, क्रांतिकारी नारी सावित्री और अति उ"ाकुल की पर बदनसीब ब्राह्मण कन्या जीवन प्रभात का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. पति के अवसान के बाद देविका रानी ने बॉम्बे टाकीज का कार्यभार सम्भाल लिया. उसी दरम्यान संस्था ने बंधन, पुनर्मिलन, झाूला, वसंत और कलकत्ता बंबई में 150 सप्ताह चलने वाली धूम फिल्म किस्मत का निर्माण किया.
एक समय लाखों युवा दिलों पर राज करने वाली विश्व सुंदरी और स्वप्न सुंदरी देविका रानी को फाइव स्टार होटलों में रहना पड़ा था. हमेशा कैमरा और स्पॉट लाईट के बीच रहने वालों को तन्हाई 'यादा सताती है. ऐसा ही अंत इस प्रतिभाशाली युगसृजक और अद्वितीय तारिका का भी हुआ.

Wednesday, February 17, 2010

होली पर्व पर विशेष---हिन्दी फिल्मों में होली चित्रण-----------







आज ना छोड़ेंगे हम हमजोली , खेलेंगे हम होली......

होली इस एक शब्द में कितना जादू है. फिल्मों के सन्दर्भ में तो होली शब्द का मतलब मौजमस्ती से है. होली...आर.के. की यानि राजकपूर के आर. के. स्टूडियों की होली...बिग बी यानि अमिताब बच्चन के घर की होली...एक बड़े हौज में घुले हुए रंग में दो एक पटखनी से तर-बतर बदन पर अस्त-व्यस्त लिबास में चिपके चिपकाते लोग... शराब के जाम पर जाम, पुरे दिन सिर्फ इतना ही काम...रंग के बाद गुलाल. लाल लाल गालो पर पुती हुई लालिमा, ठहाकों के बीच दा¡तों की पंçक्तयां... सभी कुछ दिखावटी सा... दूसरी तरफ गांवों की होली..बसन्त के सन्देश में मस्त सभी. पलाश के खिलते ही तपने वाले दिल किसी बिरहन के मन की हूक से सिहर उठते हैं.. पीले सरसों के फूलों से उठने वाली भीनी भीनी खुशबु...आम के बौर से गाती हुई कोयलियां..और कोयल की कूहू कूहू पर कोई बिरहन गा उठती है-काहे कोयल शोर मचाए रे, मोहे अपना कोई याद आए रे...पर जवाब फिर कोयल की टेर में होता है.
फिल्मों में होली का मकसद ईमानदारी से कहा जाए तो नायिका से अंग-प्रदर्शन करवाना या फिर मार-धाड़ का बहाना तलाशना रहा है. बावजूद इसके कई अवसरों पर होली को प्रत्यक्ष रुप से दर्शनीय तरीके से फिल्माया गया है. होली और फागुन नाम से कई फिल्में भी बनीं है और सैकड़ों फिल्मों में होली के दृश्य भी फिल्माए गए हैं. मुझे याद आता है होली गीतों के ये बोल..होली आई रे कन्हाई.., होली आई रे, कान्हा बृज के रसिया..., रंग डारो रे रसिया, फागुन के दिन-आए रे, अपने ही रंग-रंग डारो श्याम मोरे...खेलो रंग हमारे संग,आज दिन रंग रंगीला आया..., तन रंग लो आज मन रंग लो....होली प्रेमी के लिए मौज मस्ती में झूमने के क्षण लाते हैं. होली आई रे कान्हा....यह गीत 1937 में प्रथम महिला संगीतकार सरस्वती देवी ने फिल्म जीवन प्रभात के लिए संगीतबद्ध किया था. उसी दौर में अनिल विश्वास ने अंगुलीमाल फिल्म में एक होली गीत - आई आई बसन्ती बेला, मगन मन झूम रहा...अलबेली नार,करके ऋृंगार,आंचल संवार,आई पीके द्वार...कहीं बाजे मृदंग कहीं बाजे रे जंग...डाला था. इस गीत को सुनते ही बरबस ही आदनी झूमने लगता है.
होली के गीतों वाली फिल्मों के नाम इस प्रकार है- जीवन संध्या (1937) अंगुलीमाल, पूजा, होली (1940) आन (19भ्2) लड़की (19भ्3) मदर-इण्डिया (19भ्7) जोगन (19भ्9) नवरंग (19भ्9) कोहिनूर (1960) फागुन (1960) रंगोली (1962) फूल और पत्थर (1966) पराया धन (1971) फागुन (1973) आपकी कसम (1973) शोले (197भ्) जिद (1976) आपबीती (1977) सिलसिला (1981) कामचोर (1981) धनवान ( 1982) होली(1987)आदि. इनमें से कई गीत आज भी मन मोह लेते है. लोकप्रिय गीतों में राग काफी पर आधारित पण्डित रविशंकर के संगीत निदेüशन में होली खेलत नन्दलाल,बृज में...बेहद मशहूर हुआ. संगीतकार ज्ञानदत्ता ने गीत गोविन्द में अपने ही रंग रंग डारो श्याम मोरे ...नामक गीत मधुर धुन में बनाया था. इसी दौर का जोगन फिल्म का गीत-रंग डारो रे रसिया (बुलो सी. रानी ) भी गुनगुनाया जाता है. 19भ्3 में बनीं एस.डी.बर्मन निदेüशित लड़की का गीत-बाट चलत नई चुनरी रंग डारी ठेठ राग काफी पर आधारित था. इसी पंरपरा को शंकर-जयकिशन, कल्याणजी आनन्दजी, चित्रगुप्त, एस.डी.-आर.डी बर्मन,शिव-हरि,एच.मंगेशकर,लक्ष्मी प्यारे जैसे संगीतकारों ने बनाए रखा. ह्दयनाथ मंगेशकर ने 1982 में आई धनवान फिल्म में होली गीत स्वरबद्ध किया--मारो मारो भर भर कर पिचकारी और फिल्म मशाल के लिए होली आई होली आई..गीत की धुन बनाई. इसी तरह शिव-हरि ने सिलसिला में सब कुछ होते हुए भी रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे..में धुनों के स्तर पर गरिमा बनाए रखी. भप्पी दा ने जमी फिल्म में होली गीत को मार-धाड़ का रंग दे दिया--जमी दिनों का बदला चुकाने आए है दीवाने दीवाने.... . इसके बाद के प्रयासों में फिल्म बागबान का होली गीत-- होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले...लोगों की जुबान पर चढ़ा था. इसके बाद तो लेट्स प्ले होली...यानि होली का भी इंग्लिशकरण हो गया.
फिल्म शोले के गीत होली के दिन दिल मिल जाते हैं रंगों में रंग मिल जाते हैं....के बिना होली गीतों की चर्चा अधूरी लगेगी. यह गीत विरह और मिलन के अलग अलग रंगों से मनोभावों के अनुरुप बखूबी फिल्माया गया था. धमेüन्द्र हेमा मालिनी अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी के बीच यह गीत यादगार बन पड़ा है. धमेüन्द्र-हेमा की धमा-चौकड़ी के बीच अमिताभ और सफेद साड़ी में लिपटी खामोश जया के बीच जो मौन संवाद चलता है उसको भला कौंन भूल सकता है. यही तो होली की खासियत है. इसी तरह कटी-पतंग का गीत आज ना छोड़ेंगे बस हमजोली खेलेंगे हम होली...राजेश खन्ना और आशा पारेख के अलग अलग मनोभावों की वजह से ददीüला बन पड़ा है. गाना गाते गाते नायक नायिका की सफेद साड़ी पर रंग डाल देता है. तब नायिका इसी गीत में अपनी विवशता भी अभिव्यक्त करती है. नायक का प्रेम और प्रगाड़ हो जाता है.
चेतन आनन्द की फिल्म राजपूत में भी एक होली गीत हेमा धमेüन्द्र पर फिल्माया गया था - भागी रे भागी बृजबाला..राधा ने पकड़ा रंग डाला.....इस गीत में वही मस्ती मौजूद थी जो शोले में देखी गई थीं. यश चोपड़ा की सिलसिला में अमिताभ बच्चन की गाई होली -- रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे...के दृश्य में ही नायक की पत्नी अपने पति को उसकी प्रेमिका के प्रति आसाçक्त अनुभव करती है और भंग के नशे में सरोबार पति शमोüहया की हद का उल्लघंन कर बैठता है. फिल्म का यह गीत आज भी होली प्रेमियों को झूमा देता है. साहित्यकार राजेन्द्रसिह बेदी ने अपनी लिखी कहानी वाली फिल्म फागुन बनाई थीं. कथानक के अनुसार धनवान नायिका लेखक नायक से विवाह कर लेती है. माता पिता इसके पक्ष में नहीं है. विवश हो नायक घर जवांई बन जाता है.होली के दिन नायिका परिवार के साथ नाच गा रही है-पिया संग खेलूं होली फागुन आयो रे...तभी नायक आता है और पिचकारी का रंग नायिका पर डाल देता है. नायिका के पिता को यह अप्रिय लगता है. उनका मन रखने के लिए नायिका नायक को भला-बुरा कह देती है. मंहगी साड़ी खराब होने पर वह नाराज होती है. नायक यह व्यवहार सहन नहीं कर पाता और घर छोड़ कर चला जाता है और परिस्थितियां उसे पागलखाने तक पहुंचा देती है. इस फिल्म का अन्त सुखान्त था. पति की भूमिका धमेüन्द्र और पत्नी की भूमिका वहीदा रहमान ने की थीं.
यदि होली का वास्तविक आनन्द लेना तो श्याम बेनेगल के निदेüशन में बनी फिल्म सरदारी बेगम की होली सुनिए. वनराज भाटिया ने इसे होली के हर्ष में स्वरबद्ध किया है. स्मृति पर यह चित्रित है.........
अब के कान्हा जो आए पलट के
होली खेलूंगी मैं अब के डट के.........
रवि के. गुरुबक्षाणी
स्ट्रीट number 5 , रविग्राम, तेलीबांधा
रायपुर (छत्तीसगढ़) 492006

Tuesday, February 16, 2010

ओमप्रकाश--कहीं मौत का अभिनय तो नहीं किया ?
















ओमप्रकाश--कहीं मौत का अभिनय तो नहीं किया ?
21 फरवरी को स्मरण दिवस पर विशेष.................
ओमप्रकाश का पूरा नाम ओमप्रकाश बक्शी था. उनकी शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई थीं. उनमें कला के प्रति रुचि शुरु से थीं. लगभग 12 वर्ष की आयु में उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेनी शुरु कर दी. 1937 में ओमप्रकाश ने ऑल इंडिया रेडियों सीलोन में 25 रुपये वेतन में नौकरी की थीं. रेडियो पर उनका फतेहदीन कार्यक्रम बहुत पसंद किया गया. हिन्दी फिल्म जगत में ओमप्रकाश का प्रवेश बड़े फिल्मी अंदाज में हुआ. वे अपने एक मित्र के यहां शादी में गए हुए थे, जहां दलसुख पंचोली ने उन्हें देखा. फिर पंचौली ने तार भेजकर उन्हें लाहौर बुलवाया और फिल्म दासी के लिए 80 रुपये वेतन पर अनुबंधित कर लिया. उनकी पहली फिल्म दासी 1950 में प्रदर्शित हुई थीं. यह ओमप्रकाश की पहली बोलती फिल्म थीं. संगीतकार सी.रामचंद्र से ओमप्रकाश की अच्छी पटती थीं. इन दोनों ने मिलकर दुनिया गोल है, झंकार, लकीरे नामक फिल्म का निर्माण किया. उसके बाद ओमप्रकाश ने खुद की फिल्म कंपनी बनाई और भैयाजी, गेटवे आफ इंडिया, चाचा जिदांबाद, संजोग आदि फिल्मों का निर्माण किया. बहुत कम लोग जानते हैं कि ओमप्रकाश ने कन्हैया फिल्म का निर्माण भी किया था, जिसमें राज कपूर और नूतन की मुख्य भूमिका थीं.
जिस खुले दिल से ओमप्रकाश ने दुनियादारी निभाई थीं इसके ठीक विपरित उनके अंतिम दिन गुजरे. उन्हीं दिनों ओमप्रकाश ने अपने साक्षात्कार में कहा था-सभी साथी एक एक करके चले गए.आगा, मुकरी, गोप, मोहनचोटी, कन्हैयालाल, मदनपुरी, केश्टो मुकर्जी आदि चले गए. बड़ा भाई बख्शीजंग बहादुर, छोटा भाई पाछी, बहनोई लालाजी, पत्नी प्रभा सभी तो चले गए...लाहौर में पैदा हुआ. बचपन में चंचल था. रामलीला प्ले में सीता बना करता था. क्लासिकल संगीत की खुजली थीं-10 साल सीखा. रेडियो सीलोन में खुद के लिखे प्रोग्राम पेश किया करता था. मेरा प्रोग्राम बहुत पापुलर हुआ. लोग मुझे देखते तो फतेहदीन नाम से पुकारते थे. असली नाम पर यह नाम हावी होने लगा.
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जिदंगी मुझ पर मेहरबान रही है. मैं जब फिल्मों में आया तो दूसरा विश्वयुध्द खत्म ही हुआ था. उन दिनों हिंदी फिल्मों में बहुत बड़े सितारे मोतीलाल, अशोककुमार, और पृथ्वीराज हुआ करते थे. मुझे एक कलाकार के रुप में अपनी सीमाओं का वास्तव में ज्ञान नहीं था. पौराणिक या ग्रामीण पात्रों को छोड़ मैंने सारे पात्र किए हैं. अपने समय में लोग मुझे डायनेमो कहा करते थे. मुझे जीवन में सफलता, असफलता और सराहना सभी कुछ मिले हैं. कई रंगारंग व्यक्ति मेरे जीवन में आए हैं. इनमें चार्ली चैपलिन, पर्ल एस.बक, सामरसेट मॉम,फ्रेंक काप्रा, जवाहरलाल नेहरुजी भी शामिल हैं.
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मैंने कई फाकापरस्ती के दिन भी देखे हैं. ऐसी भी हालत आई जब मैं तीन दिन तक भूखा रहा. मुझे याद है इसी हालात में दादर खुदादाद पर खड़ा था.भूख के मारे मुझे चक्कर से आने लगे ऐसा लगा कि अभी मैं गिर ही पड़ूंगा. करीब की एक होटल में दाखिल हुआ. बढिय़ा खाना खाकर और लस्सी पीकर बाहर जाने लगा तो मुझे पकड़ लिया गया. मैनेजर को अपनी मजबूरी बता दी और 16 रुपयो का बिल फिर कभी देने का वादा किया. मैनेजर को तरस आ गया वह मान गया. एक दिन जयंत देसाई ने मुझे काम पर रख लिया और 5000 रुपये दिए. मैंने इतनी बड़ी रकम पहली बार देखी थीं. सबसे पहले होटल वाले का बिल चुकाया था और 100 पैकेट सिगरेट के खरीद लिए. दोस्तो ये रोचक क्षण थे ओमप्रकाश के जीवन के.
ओमप्रकाश ने 350 के आसपास फिल्मों में काम किया. उनकी प्रमुख फिल्मों में पड़ोसन, जूली, दस लाख, चुपके-चुपके, बैराग, शराबी, नमक हलाल, प्याक किए जा, खानदान, चौकीदार,लावारिस, आंधी,लोफर, जंजीर आदि शामिल है. उनकी अंतिम फिल्म नौकर बीवी का थीं. अमिताभ बच्चन की फिल्मों में वे खासे सराहे गए थे. नमकहलाल का दद्दू और शराबी के मुंशीलाल को भला कौंन भूल सकता है?
---------------------------------------रवि के. गुरुबक्षाणी.
स्ट्रीट 5, रविग्राम (तेलीबांधा) रायपुर छग 492006
मोबाईल -८१०९२२४४६८

तलत महमूद-----मैं दिल हूं इक अरमां भरा.....



फ्लैश-बैक......................................रवि के. गुरुबक्षाणी
तलत महमूद-----मैं दिल हूं इक अरमां भरा.....
(24 फरवरी-जयंती पर विशेष)
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संगीत की दुनिया भी अजीब है दोस्तों, कहते हैं संगीत मुर्दा दिलों में भी जान डाल देता है. हिंदी फिल्मी दुनियां में कई अजर अमर गायक आए जिन्होंने अपनी आवाज से लाखों करोड़ों दिलों पर राज किया. ऐसे ही एक गायक तलत महमूद जिन्हें मखमली (रेशमी) आवाज का जादूगर कहा जाता था. तलत महमूद के व्यक्तित्व की एक पंक्ति में परिभाषा करें तो कहा जा सकता है एक नेक इंसान सुंगधित धूप (अगरबत्ती)बुझ गया. भगवान ने इंसान को दिल दियाऔर इस दिल को रुलाने-तड़पाने के लिए तलत महमूद नामक मुलायम हथियार जमीन पर भेज दिया. दर्द तलत के गीतों की आत्मा है. परम सुख और दिली खुशियों से तलत का दूर का रिश्ता तक नही है. अपार दुख और व्यथा उनके गीतों का स्थायी भाव है.
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की तरह तलत महमूद को याद करने का मतलब उन दिलकश संगीत की सुर-लहरियों में खो जाना है जो आपको दुनिया जहां से अलग करती है. तलत की आवाज में दुखी बेचारी विधवा की सिसकियां छुपी है तो जमाने भर की ठोकरे खाने वाले मजनूं की बेचारगी भी शामिल है. सच में तलत अपने गीतों में दर्द, उदासी, विरह, तन्हाई, बरबादी और जमाने भर की उपेक्षा को अपनी शहद-सी लरजती आवाज के कंपन से वह मिठास भरने में सफल रहे जो कभी भी शुगर की बीमारी का कारण नहीं बन सकती. 24 फरवरी 1924 को लखनऊ (उ.प्र.) में जन्में तलत महमूद निराले एवं आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक तो थे ही, बल्कि अपने लखनवी परिवेश के बदौलत आकर्षण का केन्द्र हुआ करते थे. तलत फिल्मों में नायक बनने आए थे. उस समय चिकने चुपड़े नायको का जमाना नहीं था. इसलिए तलत ने गायकी की तरफ रुख किया.
तलत महमूद ने लखनऊ के मॉरिस संगीत विश्व-विध्यालय से संगीत की यथावत शिक्षा ग्रहण की और फिर वे स्थानीय आकाशवाणी केन्द्र पर गीत गजल गाने लगे. यह वह दौर था जब के.एल. सहगल की आवाज घर घर में गूंजा करता था. कुछ दिनों बाद एच.एम.वी. कम्पनी ने तलत को अनुबंधित कर लिया. कलकत्ता में उनका सामना संगीतकार कमलदास गुप्ता से हुआ. दोनों की जुगलबंदी जम गई. गीतकार फैयाज, संगीतकार कमलदास और तलत की गायकी र्ने तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी, मैं बात करुंगा तो ये खामोश रहेर्गी... गीत बेहद मशहुर हुआ. इस गीत ने रिकॉर्ड कर नया कीर्तिमान बना दिया. वे मशहूर हो गए. उनकी कम्पन भरी आवाज उनकी निजी विशेषता बन गई. इस प्रारंभिक दौर की एक मुलाकात में संगीतकार अनिल विश्वास ने कहा था कि यह कम्पन भरी आवाज ही तलत की खूबी है, यह नहीं होगी तो कई तलत पैदा हो जाएंगे.
तलत और मुकेश के कैरियर में गजब का साम्य है. दोनों एक ही वर्ष पैदा हुए. दोनों का पहला रिकॉर्ड एक ही वर्ष बना. फिल्मों में दोनो ने अपना पहला गीत अनिल विश्वास के साथ गाया. दोनो ही दर्द भरे गीत गाने में विशेषज्ञ और माहिर थे. दोनो फिल्मों में नायक बनने आए थे. दोनो असफल रहे. अनिल विश्वास के साथ तलत की आवाज का उपयोग मदन मोहन, एस.डी.बर्मन, सी.रामचंद्र और शंकर जयकिशन ने खूब किया. तलत के ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल, जहां कोई न हो (आरजू 1950) सीने में सुलगते हैं अरमान (तराना 1951) एक मैं हूं एक मेरी बेकसी की शाम है (तराना 1951) मेरी याद में तुम आंसू बहाना (मदहोश 1951) मोहब्बत में ऐसे जमाने आए कभी रो दिए हम कभी मुस्कराए (सगाई 1951) ऐ मेरे दिल कहीे ओर चल व हमदर्द के मारों का इतना ही फसाना है (दाग 1952) जैसे गीतों ने तलत महमूद को बुंलदियों पर पहुंचा दिया. तलत के गायन की यह विशेषता रही कि वे असीम भावुक भावनाओं में बहे गीतों को अपने दिल की गहराइयों में उतारकर फिर उन शब्दों को अपनी जुबां पर लाते थे. शहद के तार में डूबी अपनी पुरअसर आवाज से तलत ने गजल गायकी में भी नित नए आयाम स्थापित किए--किसे मालुम था मोहब्बत बेजुबां होगी (साकी) किसी ने घर आके मुझे लूट लिया (परछाई) अरमान भरे दिल की लगन (जान-पहचान) जैसी गजले तलत की खनकती आवाज की पुरजोर सिफारिश करती है.
तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती...(बारादरी) ये हवा ये रात ये चांदनी... (संगदिल) जाएं तो जाएं कहां...(टैक्सी ड्राइवर) अहा रिमझिम के ये प्यारे प्यारे गीत लिए... (उसने कहा था) ए सनम आज ये कसम खाएं... (जहांआरा) इतना न मुझ से तू प्यार बढ़ा के मैं इक बादल आवारा...(छाया) मैं तेरी आंख के आंसू पी जाऊं... (जहांआरा) अश्कों से जो पाया है वो गीतों में दिया है...(चांदी की दीवार ) जैसे गीतो ने तलत को अमर बना दिया है. भले ही आज के फिल्मी गीतों का ट्रेंड तलत के गीतों जैसा नहीं लगता है परंतु सही बात तो यह है कि तलत की मदभरी आवाज के अनुकूल धुन बनाने का क्षमता आज के संगीतकारों में नहीं है. पाश्र्वगायन से तलत लुप्त हो चुके है, कितुं उनकी पुरानी रचनाएं आज भी उसी चाव से सुनी जाती है. प्रेमी युगलों को रोमांस करने के लिए आज भी तलत की काव्य पंक्तियों का सहारा लेना पड़ता है.यहीं कारण है कि फिल्मों से नकारे गए तलत महमूद की संगीत जल्सों में बराबर मांग बनी हुई है.

----------रवि के. गुरुबक्षाणी.
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Saturday, February 13, 2010

फिल्म फेयर पुरस्कार संदेह के घेरे में .....???




सुपरस्टार आमिर खान की फिल्म '3-इडियट्स' भले ही वर्ष 2009 की सबसे बड़ी हिट साबित हुई हो लेकिन अपराध से जुड़ी कहानी पर आधारित विशाल भारद्वाज की फिल्म 'कमीने' ने 55वें फिल्मफेयर पुरस्कारों के लिए नामांकन हासिल करने की दौड़ में उसे पीछे छोड़ दिया है।
'3-इडियट्स' को विभिन्न वर्गो में कुल सात नामांकन मिले हैं जबकि 'कमीने' को नौ और सैफ अली खान के घरेलू पड्रक्शन कंपनी की फिल्म 'लव आज कल' ने आठ नामांकन पाने करने में सफलता हासिल की है।
'लव आज कल' में सैफ के साथ दीपिका पादुकोण ने प्रमुख भूमिका निभाई है जबकि 'कमीने' में शाहिद कपूर और प्रियंका चोपड़ा ने बेहतरीन अभिनय किया है।
भारद्वाज की फिल्म 'कमीने' और '3-इडियट्स' को मुख्य रूप से सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री वर्गो के लिए नामांकित किया गया है।
'3-इडियट्स' को सर्वश्रेष्ठ संगीत और सर्वश्रेष्ठ गीत वर्ग में नामांकन नहीं मिला है जबकि 'कमीने' इन वर्गों में नामांकन पाने में सफल रही है।

दोस्तों ये कितनी शर्म की बात है की समाज के हर वर्ग को पसंद आने वाली फिल्म पर कमीने जैसी बिना सर पैर की फिल्म को ज्यादा नामाकन मिला है। यह बिना किसी संदेह के हमारे नैतिक पतन का प्रमाण है । अब समय आ गया है की फिल्मो में अभिनय को लेकर मिलने वाले पुरुस्कारों की पोल खोली जाये। सैफ अली खान को मिला राष्ट्रीय पुरस्कार का विवाद अभी थमा नहीं है की, ३-ईडियट को छोड़ एक ऐसी फिल्म के कलाकारों को पुरस्कार देने की साजिश रची जा रही है जो गंदे तरीके से फिल्माई गयी है ।३-ईडियट एक ऐसी फिल्म है जिसने हिंदी सिनेमा में रीपीट वेल्यु को वापस प्राप्त किया है। आप लोगो में अनेक लोगो ने इसे एक से अधिक बार देखा होगा। बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म आई है जो परिवार के साथ बैठ कर देखी जा सकती है। पुरे देश भर में एकमत से सराही जा रही ईस फिल्म को आल टाइम ग्रेट की श्रेणी में रखा गया है। फिल्म की रिकॉर्ड तोड़ कमाई एक अलग मुद्दा है। पैसो की पूरी वसूली वाली बात भी ईस फिल्म के माध्यम से खरी उतरती है। पूरी फिल्म में हास्य को इतनी बारीकी से फिल्माया गया है की कई गंदे सीन भी हसने पर मजबूर कर देते है। बजाये रोने के।


भाषण को तोड़ मरोड़ कर पढ़ करने वाला सीन वल्गर होते हुए भी इतनी जल्दी गुजर जाता है की लोगो को बाद में याद आता है की अरे यार इस सीन पर तो नेतागिरी करी जा सकती थी। खैर छोडो आल इज वेल । हम बात कर रहे थे की कमीने को ज्याद नामाकन देकर फिल्म फेयर वालो ने खुद ही अपनी पैरो पर कुल्हाड़ी चला दी है। अब देश भर का यह प्रतिष्ठित सम्मान भी संदेह के घेरे में आ गया है। निष्पक्ष होने की बात करने वाले ये तथा कथित पुरुस्कार कब निष्पक्ष बनेंगे...........??

Monday, February 8, 2010

सिनेमा के जनक चित्रपट महर्षि दादा साहब phalke


पुण्यतिथि-16 फरवरी पर सादर स्मरण


विपरित परिस्थितियां और सीमित साधन होने के बावजूद दादा साहेब फालके ने अपना स्वप्न पूरा किया. सिनेमा के बीज को हिदुंस्तानी मिट्टी में रोपा. आज वह एक गगनचुंबी वटवृक्ष बन गया है.16 फरवरी, उनकी पुण्यतिथि पर पेश है दादासाहब फालके की कला और कार्य पर नजर डालता यह लेख.

धुंडिराज गोविंद फालके अर्थात दादासाहब फालके को चित्रपट महर्षि कहा जाता है, जो भारतीय फिल्म उध्योग के इस महान प्रणेता के लिए सर्वथा उपयुक्त उपाधि है. नासिक से 29 किलोमीटर दूर त्र्यंबक में 30 अप्रेल 1870 को दादा फालके का जन्म हुआ था. एक संयुक्त हिदंू परिवार में पाई जाने वाली विशिष्ट आदतें और संस्कार उन्होंने विरासत में पाए. उनके पिता दाजी शास्त्री फालके किसी समय बंबई में विल्सन कॉलेज में संस्कृत विषय के प्राध्यापक रह चुके थे अत: पंरपरानुसार दादा फालके ने बचपन में ही रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया. साथ ही अपने परिवार की जीवनचर्या के रुप में उन्होंने वेदों, पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों का भी गहन अध्ययन किया. आगे चलकर अपनी आरंभिक पौराणिक फिल्मों के निर्माण में उन्हें अपने इस ज्ञान का बहुत सहयोग प्राप्त हुआ.
दादा फालके ने 1903 में भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में ड्राफ्ट्समैन तथा छायाकार की हैसियत से कार्य आरंभ किया. उन्हीं दिनों महान चित्रकार राजा रवि वर्मा के चित्रों का हाफटोन ब्लॉक बनाने पर मुंबई की एक प्रर्दशनी में उन्हें रजत पदक भी मिला था. योजनानुसार दादा फालके ने फालके एन्ग्रेविंग एंड प्रिंटिग वक्र्स के नाम से अपना काम शुरू किया और जल्दी ही वे अपने गुणों के कारण भारत के साथ साथ विदेशों में भी प्रसिद्ध हो गए. इसके बाद दादा फालके ने जर्मनी और इंग्लैंड की यात्राएं की. इसके लिए उनको अपनी बीमा पालिसीज गिरवी रखनी पड़ी थीं. 1 फरवरी 1912 को दादा फालके एक कैमरे, एक प्रोजेक्टर और एक प्रिंटिग मशीन के साथ वापस भारत आए. वे फिल्म जगत के पहले फॉरेन रिटर्न तकनीशियन बन गए.
इसके बाद दादा फालके ने भारत के पहले रुपक चित्र की तैयारियां आरंभ कर दी. सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के जीवन को इसके लिए चुना गया. फिल्मांकन के पूर्व विकट समस्याएं आई. उनकी हार्दिक इच्छा थी कि नायिका की भूमिका किसी महिला को दें. परंतु उनके इस निमंत्रण को नीच काम कहकर नर्तकियों ने मना कर दिया. यहां तक की लाचार और पराजित दादा फालके ने एक वेश्या की बेटी को नायिका बनाने का प्रयास किया, परंतु हजार प्रलोभनों के बावजूद पेशे को घटिया करार देते हुए इंकार कर दिया था. विवश होकर तारामती की भूमिका दादा फालके ने एक पुरुष कलाकार ए.सांलुके को दी. डी.डी.दाबके को राजा हरिश्चंद्र और फालके के पुत्र भालचंद्र को रोहिताश्व की भूमिका दी गई. तब शूटिंग दिन में हुआ करती थीं.महल और जंगल आदि के सभी दृश्य परदे रंगकर तैयार किए गए थे. दादा फालके ने चित्र में निर्माण, निर्देशन, लेखन, छायांकन, संपादन, कला निर्देशन से लेकर मेकअपमैन और वितरण के सभी विभाग स्वयं संभाले. इस तरह फालके एंड कम्पनी के बैनर तले बनी भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र का मुंबई के कोरोनेशन सिनेमागृह में 3 मई 1913 को पहला सार्वजनिक प्रर्दशन हुआ. इससे पूर्व 21 अप्रेल को यह फिल्म कुछ विशिष्ट लोगों को दिखाई गई थीं. लगभग सवा घंटे की चार रील और 3700 फुट लंबाई वाली इस फिल्म के निर्माण में दादा फालके को 8 महीने का समय लगा था. कोरोनेशन थियेटर में इस फिल्म के साथ 15 मिनट की अवधि वाली चार छोटी वाली फिल्में भी दिखाई जाती थीं. इस प्रकार राजा हरिश्चंद्र का एक पूरा शो कुल मिलाकर 90 मिनट की अवधि का होता था. दर्शकों के लिए यह फिल्म एक करिश्मा थीं और लगातार 23 दिन तक चलकर यह फिल्म सफल रहीं. बांबे क्रॉनिकल नामक पत्र ने इसकी विस्तृत समीक्षा की थीं.
राजा हरिश्चंद्र की सफलता से उत्साहित होकर दादा फालके अब पूरे मनोयोग से फिल्म निर्माण में जुट गए. दिसंबर 1913 में फालके की दूसरी फिल्म प्रदर्शित हुई-मोहिनी भस्मासुर. तब तक दादा की महिला नायिका की तलाश पूरी हो चुकी थीं, उन्होंने अपनी फिल्म में दुर्गाबाई और उनकी बेटी कमलाबाई कामत से अभिनय करवाकर उन्हें भारत की प्रथम अभिनेत्री होने का सम्मान दिलवाया. सन् 1924 से 1930 तक दादा फालके अपने काम में पूरे मनोयोग से जुटे रहे. अपनी पौराणिक फिल्मों के माध्यम से उन्होंने छूआछूत, अंधविश्वास तथा जातिप्रथा जैसी अनेक सामाजिक बुराइयों के विषयों का अत्यंत प्रगतिशील लहजे में निर्वाह किया. इसी क्रम को उनके बाद भालजी पेंढारकर और वी. शांताराम जैसे महान निर्माताओं ने जारी रखा. इन सात वर्षो की अवधि में दादा फालके लगातार फिल्मों का निर्माण किया था. यह समय भारतीय मूक फिल्मों का स्वर्णयुग था. इसके बाद 14 मार्च 1931 को भारत की पहली सवाक् फिल्म आलमआरा के प्रदर्शन के साथ ही गाती-बोलती फिल्मों का जमाना आरंभ हो गया. हालांकि भारत में 1934 तक मूक फिल्में बनती रहीं. इसका सबसे बड़ा कारण बड़ी संख्या में उन छबिगृहों का होना था, जिनमें सवाक फिल्मों के देखने की व्यवस्था नहीं थीं.
दादा फालके ने 1912 से लेकर 1934 तक लगभग 125 फिल्में बनाई. फिर दो तीन सालों तक वे फिल्म जगत से कटते गए. धीरे धीरे उनकी पारिवारिक और आर्थिक परिस्थितियां विषम होने लगीं. सन् 1937 में कोल्हापुर सिनेटोन ने उन्हें हिंदी और मराठी भाषाओं में बनने वाली गंगावतरण के निर्देशन का निमंत्रण दिया. संगीत और संवाद लेखन भी उनका था. यही फिल्म दादा साहेब की एकमात्र सवाक और अंतिम फिल्म साबित हुई.
भारत सरकार ने 1970 में उनके सम्मान में दादा साहब फालके पुरस्कार देने की पंरपरा आरंभ की है. दादा साहब फाल्के पुरस्कार फिल्म क्षेत्र में अपने जीवनकाल में सर्वाधिक योगदान के लिए भारतीय हस्ती को प्रदान किया जाता है. इसी तरह भारतीय डाक तार विभाग ने भी दादा फालके की जन्म शताब्दी के अवसर पर 30 अप्रेल 1971 को एक विशेष डाक टिकट जारी कर इस चित्रपट महर्षि को अपनी ओर से सम्मानित किया. 16 फरवरी 1944 को दादा फालके का स्वर्गवास हो गया. फिल्म निर्माण और फिल्म इंडस्ट्री के जनक के रुप में उनका नाम भारतीय सिने इतिहास में सदैव अमर रहेगा, साथ ही सिनेमा संबंधी कला के प्रणेता के रुप में भी वे सदा स्मरण किए जाते रहेंगे.
r.gurbaxani@gmail.com

dada phalke winners----------

17th 1969 Devika Rani actress Andhra Pradesh
18th 1970 B. N. Sircar producer West Bengal
19th 1971 Prithviraj Kapoor actor (posthumous) Punjab
20th 1972 Pankaj Mullick composer (music director) West Bengal
21st 1973 Ruby Myers (Sulochana) actress Maharashtra
22nd 1974 Bomireddi Narasimha Reddy director Andhra Pradesh
23rd 1975 Dhirendranath Ganguly actor, director West Bengal
24th 1976 Kanan Devi actress West Bengal
25th 1977 Nitin Bose cinematographer, director, writer, West Bengal
26th 1978 Rai Chand Boral composer, director West Bengal
27th 1979 Sohrab Modi actor, director, producer Maharashtra
28th 1980 Paidi Jairaj actor, director Andhra Pradesh
29th 1981 Naushad Ali composer (music director) Uttar Pradesh
30th 1982 L. V. Prasad actor, director, producer Andhra Pradesh
31st 1983 Durga Khote actress Maharashtra
32nd 1984 Satyajit Ray director West Bengal
33rd 1985 V. Shantaram actor, director, producer Maharashtra
34th 1986 B. Nagi Reddy producer Andhra Pradesh
35th 1987 Raj Kapoor actor, director Peshawar
36th 1988 Ashok Kumar actor Bihar
37th 1989 Lata Mangeshkar singer Maharashtra
38th 1990 Akkineni Nageswara Rao actor Andhra Pradesh
39th 1991 Bhalji Pendharkar director, producer, writer Maharashtra
40th 1992 Bhupen Hazarika composer (music director) Assam
41st 1993 Majrooh Sultanpuri lyricist Uttar Pradesh
42nd 1994 Dilip Kumar actor Maharashtra
43rd 1995 Rajkumar actor Karnataka
44th 1996 Sivaji Ganesan actor Tamil Nadu
45th 1997 Pradeep lyricist Madhya Pradesh
46th 1998 B.R. Chopra director, producer Punjab
47th 1999 Hrishikesh Mukherjee director West Bengal
48th 2000 Asha Bhosle singer Maharashtra
49th 2001 Yash Chopra director, producer Punjab
50th 2002 Dev Anand actor, director, producer Punjab
51st 2003 Mrinal Sen director East Bengal
52nd 2004 Adoor Gopalakrishnan director Kerala
53rd 2005 Shyam Benegal director Andhra Pradesh
54th 2006 Tapan Sinha director West Bengal
55th 2007 Manna Dey singer West Bengal
56th 2008 VK Murthy cinematographer Karanataka