Tuesday, July 5, 2022

तारवानी एंड एसोसिएट्स की 24वी वार्षिक सभा डान्स अवार्डस जोश एवं मोटिवेशन से सराबोर*


*गरिमा , हर्ष एवं चेतन को बेस्ट आर्टिकल अवॉर्ड* 
*तारवानी एंड एसोसिएट्स की 24वी वार्षिक सभा डान्स अवार्डस जोश एवं मोटिवेशन से सराबोर*

      रायपुर। तारवानी एंड एसोसिएट्स चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की 24 वी वार्षिक सभा होटल आई- स्टे में संपन्न हुई कार्यक्रम का प्रारंभ संस्था के प्रमुख सीए चेतन तारवानी जी एवं अन्य मुख्य सदस्यों ने द्वीप प्रज्वलित करके किया। आगे कार्यक्रम में ऑफिस के सदस्यों को अवार्ड और टाइटल दिए गए। इसी बीच कार्यक्रम में मनोरंजन बना रहे इस हेतु एंकर के द्वारा बीच-बीच में फुल मस्ती के साथ मजेदार ड्रामा किया गया इसके साथ ही ऑफिस के स्टाफ के द्वारा डांस की प्रस्तुति दी गई जिसमें लड़कों द्वारा वह लड़कियों द्वारा ग्रुप डांस किया गया।
साथ ही अवॉर्ड्स भी दिए गए जिसमें  
बेस्ट स्पीकर- सुरक्षा ताररवानी  , बेस्ट चेयरमैन रोशनी वैद्य , बेस्ट लीडरशीप सीए सिद्धांत मखीजा  , बेस्ट आर्टिकल 2020-21  हेतु चेतन हसीजा व 2021-22 हेतु गरिमा नायक तथा हर्ष रिजवानी , बेस्ट स्टाफ सुमन पाहुजा  , बेस्ट ट्रबल शूटर जयंत सोनी , बेस्ट अटेंडेंस अवार्ड स्टाफ में सुमन पाहुजा , आर्टिकल में तन्मय अग्रवाल एवं एडमिन में राजेश निर्वान को दिया गया।सीए भावना अजवानी को मिस एवनिंग एवं सीए दिनेश तारवानी को मिस्टर एवनिंग से नवाज़ा गया ।
    वितीय वर्ष 2022-23 हेतु ASM नेता के रूप में तन्मय अग्रवाल को चुन कर सम्मानित किया गया। कार्यक्रम के अंत में सीनियर पार्ट्नर चेतन तारवानी ने अपने उदबोधन में कहा हर कर्मचारी काम को खुद मालिक समझ कर करे तों आत्मसंतुष्टि के साथ आत्मविश्वास भी बढ़ेगा । कार्यक्रम में मुख्य रूप से सीए सिद्धांत मखीजा , सीए भावना अजवानी, सीए दिनेश तारवानी, सुरक्षा तारवानी, मनीषा तारवानी, सुमन पाहुजा,रोशनी वैद्य, सीए कोमल बृजवानी, सीए सुमीत आहूजा एवं मनीष तोलानी रूपाली सोनी,महक मंगलानी, सोनाली वाधवानी, नीरल पटेल, शिवांगी तिवारी, सिद्धार्थ गुप्ता, श्रीजन गुप्ता,सागर आहूजा, चेतन हसीजा, निधि अग्रवाल, तन्मय अग्रवाल, हर्ष रिजवानी, जयंत सोनी,मुकेश माखीजा, नंदनी पठारी,सोनम यादव, राजेश निर्वान, बिट्टू, लक्की पठारी  आदि मुख्य रूप से उपस्थित थे।

Sunday, December 19, 2021

नलिनी जयवंत जन्म 18 फ़रवरी, 1926

*नलिनी जयवंत* 
आज हिंदी सिनेमा जगत की एक सुंदर अभिनेत्री नलिनी जयवंत जी का स्मृतिदिन ।

जन्म 18 फ़रवरी, 1926 जन्म भूमि बम्बई, ब्रिटिश भारत;
 मृत्यु 20 दिसम्बर, 2010 मृत्यु स्थान मुम्बई ।

          नलिनी जयवंत  भारतीय सिनेमा की उन सुन्दर अभिनेत्रियों में से एक थीं, जिन्होंने पचास और साठ के दशक में सिने प्रेमियों के दिलों पर राज किया। फ़िल्म 'काला पानी' का यह गीत 'नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर', इस गीत पर नलिनी जयवंत द्वारा किये गए अभिनय को भला कौन भुला सकता है। नलिनी जयवंत ने अपने फ़िल्मी सफर की शुरुआत वर्ष 1941 में प्रदर्शित फ़िल्म 'राधिका' से की थी। अपने समय के मशहूर अभिनेता अशोक कुमार के साथ उनके प्रेम की अफवाहें भी उड़ी थीं। अभिनेता दिलीप कुमार, देव आनन्द और अशोक कुमार के साथ नलिनी जयवंत ने कई सफल फ़िल्में दी थीं। 

        नलिनी जयवंत का जन्म 18 फ़रवरी, 1926 में ब्रिटिश भारत के बम्बई शहर (वर्तमान मुम्बई) में हुआ था। नलिनी के पिता और अभिनेत्री शोभना समर्थ (नूतन और तनुजा की माँ) की माँ रतन बाई रिश्ते में भाई-बहन थे, इसी नाते नलिनी, शोभना समर्थ की ममेरी बहन लगती थीं। वर्ष 1940 में नलिनी जयवंत ने निर्देशक वीरेन्द्र देसाई से विवाह किया। इस दौरान प्रसिद्ध अभिनेता अशोक कुमार के साथ नलिनी के प्यार की अफवाहें भी उड़ीं। बाद के समय में नलिनी जयवंत ने अभिनेता प्रभु दयाल के साथ दूसरा विवाह कर लिया। प्रभु दयाल के साथ उन्होंने कई फ़िल्मों में भी काम किया
        नलिनी जयवंत के हिन्दी सिनेमा में प्रवेश की कहानी भी काफ़ी रोचक है। किस्सा यूँ है कि हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर के निर्माता-निदेशकों में से एक थे- चमनलाल देसाई। वीरेन्द्र देसाई इन्हीं चमनलाल देसाई के पुत्र थे। उनकी एक कंपनी थी 'नेशनल स्टूडियोज़'। एक दिन दोनों पिता-पुत्र फ़िल्म देखने सिनेमाघर पहुँचे। शो के दौरान दोनों की नज़र एक लड़की पर पड़ी, जो तमाम भीड़ में भी अपनी दमक बिखेर रही थी। यह नलिनी जयवंत थीं, जिनकी आयु उस समय बमुश्किल 13-14 बरस की ही थी। दोनों पिता-पुत्र की जोड़ी ने दिल ही दिल में इस लड़की को अपनी अगली फ़िल्म की हिरोइन चुन लिया और ख़्यालों में खो गए। फ़िल्म कब ख़त्म हो गई और कब वह लड़की अपने परिवार के साथ ग़ायब हो गई, इसकी ख़बर तक दोनों को न हुई।
          एक दिन वीरेन्द्र देसाई अभिनेत्री शोभना समर्थ से मिलने उनके घर पहुँचे तो देखा कि नलिनी वहाँ मौजूद थीं। नलिनी को देखते ही उनकी आँखों में चमक आ गई और बाछें खिल गईं। असल में शोभना समर्थ, जिन्हें बाद में अभिनेत्री नूतन और तनूजा की माँ और काजोल की नानी के रूप में अधिक जाना गया, नलिनी जयवंत के मामा की बेटी थीं। इस बार वीरेन्द्र देसाई ने बिना देर किए नलिनी के सामने फ़िल्म का प्रस्ताव रख दिया। नलिनी के लिए तो यह मन माँगी मुराद पूरी होने जैसा था। डर था तो सिर्फ पिता का, जो फ़िल्मों के सख्त विरोधी थे। लेकिन वीरेन्द्र देसाई ने उन्हें मना लिया। इस मानने के पीछे एक बड़ा कारण था पैसा। उस समय जयवंत परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी। रहने के लिए भी उन्हें अपने एक रिश्तेदार के छोटे-से मकान में आश्रय मिला हुआ था। इस प्रकार नलिनी जयवंत की पहली फ़िल्म थी 'राधिका', जो 1941 में प्रदर्शित हुई। वीरेन्द्र देसाई के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे- हरीश, ज्योति, कन्हैयालाल, भुड़ो आडवानी आदि। फ़िल्म में संगीत अशोक घोष का था। इस फ़िल्म के दस में से सात गीतों में नलिनी जयवंत की आवाज़ थी। 
         फ़िल्म 'राधिका' के बाद इसी वर्ष महबूब ख़ान के निर्देशन में एक फ़िल्म रिलीज़ हुई 'बहन'। इस फ़िल्म में नलिनी के साथ प्रमुख भूमिका में थे शेख मुख्तार। साथ में थीं नन्हीं-सी मीना कुमारी, जो 'बेबी मीना' के नाम से इस फ़िल्म में एक बाल कलाकार थीं। इस फ़िल्म में संगीतकार अनिल बिस्वास ने नलिनी जयवंत से चार गीत गवाए थे। इन चार गीतों में से वजाहत मिर्ज़ा का लिखा हुआ एक गीत था- 'नहीं खाते हैं भैया मेरे पान', जो बहुत लोकप्रिय हुआ। 1941 में ही फिर से वीरेन्द्र देसाई के ही निर्देशन में बनी फ़िल्म 'निर्दोष' आई, जिसमें मुकेश नायक की भूमिका में थे। फ़िल्म में मुकेश की आवाज़ में कुल तीन गीत थे, जिनमें एक सोलो गीत 'दिल ही बुझा हुआ हो तो फस्ले बहार क्या' था और बाकी दो नलिनी जयवंत के साथ युगल गीत थे, जबकि नलिनी के तीन सोलो गीत थे। अपने एक संस्मरण में नलिनी जयवंत ने कहा था कि- "मैं जब बमुश्किल छह-सात साल की थी, तभी ऑल इंडिया रेडियो पर नए-नए शुरू हुए बच्चों के प्रोग्राम में भाग लेने लगी थी। इसी कार्यक्रम में हुई संगीत प्रतियोगिता में मैंने गायन के लिए प्रथम पुरस्कार जीता था।"
         नलिनी जयवंत अपनी पहली ही फ़िल्म से सितारा घोषित कर दी गई थीं। उस समय नलिनी फ्रॉक और दो चोटी के साथ स्कूल में पढ़ रही थीं। उम्र थी पन्द्रह साल। फ़िल्म 'आंख मिचौली' (1942) की सफलता ने उन्हें आसमान पर बिठा दिया। नलिनी को फ़िल्मों में सफलता तो मिल गई, लेकिन उसी के साथ नलिनी पर फिदा वीरेन्द्र देसाई को उनसे प्यार भी हो गया। शादी भी हो गई। इस मामले को उस दौर के लेखक ने इस तरह बयान किया है- "जब ये हंसती हैं तो मालूम होता है कि जंगल की ताज़गी में जान पड़ गई और नौ-शगुफ्ता कलियाँ फूल बनकर रुखसारों की सूरत में तब्दील हो गई हैं। नलिनी जयवंत ने 'आंख मिचौली' खेलते-खेलते मिस्टर वीरेन्द्र देसाई से 'दिल मिचौली' खेलना शुरू कर दिया और यह खेल अब बाकायदा शादी की कंपनी से फ़िल्माया जाकर ज़िंदगी के पर्दे पर दिखलाया जा रहा है।" लेकिन नलिनी जयवंत का यह वैवाहिक जीवन अधिक दिन तक नहीं चल सका और वीरेन्द्र देसाई से उनका तलाक हो गया। नलिनी ने दूसरा विवाह अपने एक साथी कलाकार प्रभू दयाल से किया।
        1950 के दशक में नलिनी जयवंत ने एक बार फिर धमाके के साथ अशोक कुमार के साथ फ़िल्म 'समाधि' और 'संग्राम' से नई ऊँचाई हासिल की। हालांकि 1948 की फ़िल्म 'अनोखा प्यार' में दिलीप कुमार और नर्गिस के मुकाबले जिस अंदाज़ में उन्होंने काम किया, उसकी ज़बर्दस्त तारीफ हो चुकी थी, लेकिन इन दो फ़िल्मों ने उनके स्टारडम में चार चाँद लगा दिए। फ़िल्म 'समाधि' में "गोरे-गोरे ओ बांके छोरे, कभी मेरी गली आया करो" गीत पर कुलदीप कौर के साथ उनका नाच अब तक याद किया जाता है। 
       अशोक कुमार के साथ नलिनी जयवंत की जोड़ी कामयाब तो हुई, वहीं दोनों के रोमांस की चर्चा भी शुरू हो गई। अशोक कुमार ने अपने परिवार से अलग चैम्बूर के यूनियन पार्क इलाके में नलिनी जयवंत के सामने एक बंगला भी ले लिया, जहाँ वे ज़िंदगी के आखि़री दिनों में भी बने रहे और वहीं प्राण त्यागे। इस जोड़ी ने 1952 में 'काफिला', 'नौबहार' और 'सलोनी' फिर 1957 में 'मिस्टर एक्स' और 'शेरू' जैसी फ़िल्में कीं। दिलीप कुमार के साथ, जिन्होंने नलिनी जयवंत को 'सबसे बड़ी अदाकारा' का दर्जा दिया, उन्होंने 'अनोखा प्यार' के अलावा 'शिकस्त' (1953) और देव आनंद के साथ 'राही' (1952), 'मुनीमजी' (1955) और 'काला पानी' (1958) जैसी कामयाब फ़िल्में कीं। 

पुरस्कार : फ़िल्म 'काला पानी' में किशोरी बाई वाली भूमिका के लिए तो नलिनी जयवंत को सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला। 
       निदेशक रमेश सहगल की दो फ़िल्मों 'शिकस्त' और 'रेलवे प्लेटफॉर्म' (1955) की भूमिकाओं के लिए भी नलिनी जयवंत को याद किया जाता है। 'काला पानी' के बाद उन्होंने फ़िल्मों में काम लगभग बंद कर दिया। दो फ़िल्में 'बॉम्बे रेसकोर्स' (1965) और 'नास्तिक' (1983) इसका अपवाद हैं। ये दोनों फ़िल्में भी रिश्तों के दबाव में ही कीं। 'नास्तिक' में उन्होंने अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका निभाई थी।

 नलिनी जयवंत की प्रमुख फ़िल्में  :  नास्तिक 1983 बोम्बे रेसकोर्स 1965 गर्ल्स हॉस्टल 1963 तूफ़ान में प्यार कहाँ 1963 जिन्दगी और हम 1962 अमर रहे ये प्यार 1961 मुक्ति 1960 माँ के आँसु 1959 काला पानी 1958 मिलन 1958 शेरू 1957 नीलमणि 1957 मिस बॉम्बे 1957 कितना बदल गया इंसान 1957 हम सब चोर हैं 1956 देर्गेश नन्दिनी 1956 आवाज़ 1956 इंसाफ़ 1956 आन बान 1956 रेलवे प्लेटफ़ार्म 1955 मुनीमजी 1955 राजकन्या 1955 बाप बेटी 1954 नाज़ 1954 लकीरें 1954 महबूब 1954 शिकस्त 1953 राही 1953 सलोनी 1952 काफ़िला 1952 नौबहार 1952 दो राह 1952 नौजवान 1951 एक नज़र 1951 नन्दकिशोरी 1951 संग्राम 1950 समाधि 1950 आँखें 1950 अनोखा प्यार 1948 गुंजन 1948 आँख मिचोली 1942 राधिका 1941 निर्दोष 1941 बहन 1941 ..

निधन :  नलिनी जयवंत कभी-कभी घर की ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदने बाज़ार जाती थीं। अशोक कुमार से भी एक अरसे तक जीवंत संपर्क बना रहा, लेकिन बाद में कुछ ऐसा हुआ, जिसके बारे में किसी को कोई ख़बर नहीं। नलिनी जयवंत ने ख़ुद को घर में ही कैद कर लिया। घर के सामने ही रह रहे अशोक कुमार तक से आखि़र में मिलना छोड़ दिया। 20 दिसम्बर, 2010 को नलिनी जयवंत का देहांत हो गया। मोहल्ले के लोगों को उनके देहांत की ख़बर तब हुई, जब एक चौकीदार ने एक व्यक्ति को उस घर से शव को गाड़ी में ले जाते देखा। बाद में संदीप जयवंत नामक व्यक्ति का बयान आया कि वह नलिनी जी का भतीजा है और उसने नलिनी जी की ही इच्छा के अनुसार चुपचाप उनका दाह-संस्कार कर दिया है ।
मा.नलिनी जयवंत जीं की स्मृतिमे अपने समुह मी ओर से आदरांजली ।
विजयकुमार पांदे ।
संदर्भ : इंटरनेट ।

Tuesday, December 14, 2021

स्मिता पाटिल......17 अक्तूबर 1955, जन्म 13 दिसंबर 1986, मृत्यु

स्मिता पाटिल......

17 अक्तूबर 1955, जन्म 
 13 दिसंबर 1986, मृत्यु

इंडस्ट्री में ऐसे बहुत से कलाकार हैं, जिन्होंने भले ही बॉलीवुड नगरी में कम समय के लिए काम किया लेकिन वो छाप गहरी छोड़ गए। उन्हीं में से एक थी प्यारी सी मुस्कान रखने वाली बॉलीवुड की सीरियस स्टार स्मिता पाटिल जिन्हें लोग उनकी सीरियस एक्टिंग के लिए जानते थे। महज 10 साल के अपने फिल्मी सफर में उन्होंने खूब नाम कमाया। आज फिल्म जगत में उनके नाम पर ‘स्मिता पाटिल अवॉर्ड’ भी दिए जाते हैं। हिन्दी और मराठी अभिनेत्री स्मिता पाटिल को ‘पद्म श्री’ पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। जितनी देर उन्होंने इंडस्ट्री में काम किया सुर्खियां बटौरती रहीं हालांकि प्रोफेशेनल के साथ-साथ उनकी पर्सनल लाइफ भी लाइमलाइट में बनी रहीं और अचानक बेहद कम उम्र में वह दुनिया को अलविदा कह गई। अचानक हुई स्मिता की मौत ने पूरे बॉलीवुड को हिला कर रख दिया था। बेटे प्रतीक बब्बर के जन्म के करीब 2 सप्ताह बाद उनका निधन हो गया। 

फिल्मी करियर में बुलंदियां हासिल करने वाली स्मिता को पर्सनल लाइफ में वो खुशी नहीं मिली जैसी वो चाहती थी। उन पर किसी का घर तोड़ने के आरोप भी लगे। इसी बात को लेकर कड़ी आलोचनाएं भी हुई। उनकी मां उनसे दूर हो गईं। उनकी आखिरी इच्छा थी कि जब वह मर जाए तो उन्हें दुल्हन बनाया जाए। चलिए आज के इस पैकेज में हम आपको स्मिता पाटिल के जीवन से जुड़ी कुछ और अनसुनी बातें बताते हैं।

7 अक्तूबर 1956 में जन्मी स्मिता, महाराष्ट्र के एक बड़े घराने से ताल्लुक रखती थीं। उनके पिता उस समय महाराष्ट्र के कैबिनेट मंत्री थे। कहा जाता है कि स्मिता की मां विद्या ताई ने उनका नाम उनकी मुस्कान देखकर ही रखा था, उनकी इसी मुस्कान के आज भी कई कायल हैं। भले ही वह बड़े घराने से ताल्लुक रखती थी लेकिन उनका लाइफस्टाइल एकदम साधारण था। फिल्मों में आने से पहले स्मिता बॉम्बे दूरदर्शन में मराठी में समाचार पढ़ा करती थीं। स्मिता को साड़ी पहनना पसंंद नहीं था उन्हें जीन्स पहनना अच्छा लगता था तो स्मिता अक्सर न्यूज़ पढ़ने से पहले जीन्स के ऊपर ही साड़ी लपेट लिया करती थीं। 

फिल्म 'चरणदास चोर' से उन्होनें फिल्मी नगरी में कदम रखा था। निर्देशक श्याम बेनेगल ने अपने एक लेख में बताया था कि वह इतनी सादी थी कि लोग पहचान ही नहीं पाते थे कि वो हीरोइन हैं। एक किस्सा बताते हुए उन्होंने कहा कि फिल्म 'मंथन' शूटिंग के दौरान जब स्मिता सेट पर आती थीं तो वह जमीन पर ही बैठ जाती थीं।  जब लोग शूटिंग देखने आते थे। तो वह सबसे पूछते थे फिल्म की हिरोइन कौन है? कोई पहचान ही नहीं पाता था कि जमीन पर बैठी हुई लड़की फिल्म की एक्ट्रेस है। यही ख़ासियत थी स्मिता की। वो जो भी करती थीं उस रोल में ढल जाती थीं।

स्मिता पाटिल की जीवनी लिखने वाली मैथिलि राव उनके बारे में कहती हैं, कि बो बहुत साधारण थीं। गंभीर दिखने वाली स्मिता असल में शरारती व मस्ती करने वाली लड़की थी। उन्हें गाड़ी चलाने का शौंक था इसलिए तो 14 -15 साल की उम्र में ही उन्होंने चुपके से ड्राइविंग सीख ली। स्मिता की पर्सनल लाइफ उतार-चढ़ाव से भरी रही। वह शादीशुदा स्टार राज बब्बर के प्यार में पड़ गई थी। स्मिता की मां, इस रिश्ते के खिलाफ थीं क्योंकि वह कहती थीं कि महिलाओं के अधिकार के लिए लड़ने वाली स्मिता किसी और का घर कैसे तोड़ सकती है। स्मिता के लिए उनकी माँ रोल मॉडल थीं। मां का फैसला उनकी जिंदगी में बहुत मायने रखता था लेकिन राज बब्बर से अपने रिश्ते को लेकर स्मिता ने अपनी मां की भी नहीं सुनी। इसी बात को लेकर मां बेटी का आपसी रिश्ता खराब हो गया।

फिल्म 'भीगी पलकें' की शूटिंग सेट से राज और स्मिता की लव स्टोरी शुरू हुई थी। स्मिता के लिए राज अपनी पहली पत्नी को छोड़ उनके साथ ही लिव-इन में रहने लगे। राज बब्बर कहते थे कि वो अपनी पहली पत्नी को तलाक देकर स्मिता से शादी कर लेंगे हालांकि ऐसा हुआ नहीं था।  स्मिता को वो धीरे-धीरे अपने फ्रेंड सर्किल से भी दूर रखने लगे थे। लिव-इन में रहते ही वह एक बेटे की मां बनी। प्रतीक के जन्म के कुछ दिनों बाद 13 दिसंबर 1986 को स्मिता का निधन हो गया। स्मिता को वायरल इन्फेक्शन की वजह से ब्रेन इन्फेक्शन हो गया था जब वो प्रतीक के पैदा होने के बाद घर आई थी तो उनकी हालात खराब होती जा रही थी लेकिन वह अस्पताल नहीं जाना चाहती थी। वह कहती थीं कि मैं अपने बेटे को छोड़कर हॉस्पिटल नही जाऊंगी। जब इन्फेक्शन बहुत बढ़ गया तो उन्हें जसलोक हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया लेकिन उस समय तक काफी देर हो चुकी थी। स्मिता के अंग एक के बाद एक फेल होते चले गए। 

राज बब्बर के साथ उनका रिश्ता भी सहज नहीं रह गया था स्मिता अपने आखिरी दिनों में बहुत अकेला महसूस करती थीं। राज बब्बर जब हॉस्पिटल में पहुंचे, उस समय तक स्मिता ने ये फैसला कर लिया था की वो राज बब्बर से रिश्ता तोड़ लेंगी। स्मिता पाटिल की एक आखिरी इच्छा थी कि मरने के बाद उन्हें सुहागन की तरह मेकअप कर सजाया जाए और उनकी यह इच्छा मेकअप आर्टिस्ट दीपक सावंत ने पूरी की। स्मिता उनसे ही कहा करती थीं,  'दीपक जब मर जाउंगी तो मुझे सुहागन की तरह तैयार करना। उनकी यहीं इच्छा पूरी करने मेकअप आर्टिस्ट उनके घर पहुंचे।' वाक्या याद करते हुए उन्होंने कहा "एक बार उन्होंने राज कुमार को एक फ़िल्म में लेटकर मेकअप कराते हुए देखा और मुझे कहने लगीं कि दीपक मेरा इसी तरह से मेक अप करो और मैंने कहा कि मैडम मुझसे ये नहीं होगा। ऐसा लगेगा जैसे किसी मुर्दे का मेकअप कर रहे हैं। ये बहुत दुखद है कि एक दिन मैंने उनका ऐसे ही मेकअप किया। शायद ही दुनिया में ऐसा कोई मेकअप आर्टिस्ट होगा जिसने इस तरह से मेकअप किया हो।" 13 दिसंबर 1986 में स्मिता ने दुनिया को अलिवदा कह दिया। 
इस तरह एक बेहतरीन अदाकार बेहद कम उम्र में दुनिया को अलविदा कह गई इसी के साथ अपने बेटे के साथ वक्त बिताने की उनकी इच्छा थी अधूरी रह गई....

14 दिसम्बर

राज कपूर

"आज राज कपूर साहब की 97 जयंती(Birth Anniversary)है।
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राज कपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को पेशावर(अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनका जन्म पठानी हिन्दू परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम रणबीर राज कपूर था। उनके पिता का नाम पृथ्वीराज कपूर तथा उनकी माता का नाम रामशर्णी देवी कपूर था। उनके भाई का नाम शशि कपूर (1938-2017), शम्मी कपूर (1931-2011), नंदी कपूर (मृत्यु: 1931), देवी कपूर (मृत्यु: 1931) तथा उनकी बहन का नाम उर्मिला सियाल कपूर था। 1946 में राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर ने उनकी शादी अपने मामा की बेटी कृष्णा से करवाई। उनके बच्चों के नाम रणधीर कपूर, ऋषि कपूर, राजीव कपूर तथा उनकी बेटी  का नाम रितु नंदा (उद्योगपति राजन नंदा से शादी की), रीमा जैन (निवेश बैंकर मनोज जैन से शादी की) है।

शिक्षा
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राज कपूर ने अपनी शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेजिएट स्कूल, कोलकाता और कर्नल ब्राउन कैम्ब्रिज स्कूल, देहरादून से प्राप्त की।

करियर
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राज कपूर ने 1930 के दशक में बॉम्बे टॉकीज़ में क्लैपर-बॉय और पृथ्वी थिएटर में एक अभिनेता के रूप में काम किया, ये दोनों कंपनियाँ उनके पिता पृथ्वीराज कपूर की थीं।  राज कपूर बाल कलाकार के रूप में ‘इंकलाब’ (1935) और ‘हमारी बात’ (1943), ‘गौरी’ (1943) में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आ चुके थे। राज कपूर ने फ़िल्म ‘वाल्मीकि’ (1946), ‘नारद और अमरप्रेम’ (1948) में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन तमाम गतिविधियों के बावज़ूद उनके दिल में एक आग सुलग रही थी कि वे स्वयं निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी स्वतंत्र फ़िल्म का निर्माण करें। उनका सपना 24 साल की उम्र में फ़िल्म ‘आग’ (1948) के साथ पूरा हुआ। राज कपूर ने पर्दे पर पहली प्रमुख भूमिका ‘आग’ (1948) में निभाई, जिसका निर्माण और निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था। इसके बाद राज कपूर के मन में अपना स्टूडियो बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ ज़मीन लेकर 1950 में उन्होंने अपने आर. के. स्टूडियो की स्थापना की और 1951 में ‘आवारा’ में रूमानी नायक के रूप में ख्याति पाई। राज कपूर ने ‘बरसात’ (1949), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) व ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन’ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है।  

 उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। राज कपूर बाल कलाकार के रूप में ‘इंकलाब’ (1935) और ‘हमारी बात’ (1943), ‘गौरी’ (1943) में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आ चुके थे। राज कपूर ने फ़िल्म ‘वाल्मीकि’ (1946), ‘नारद और अमरप्रेम’ (1948) में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन तमाम गतिविधियों के बावज़ूद उनके दिल में एक आग सुलग रही थी कि वे स्वयं निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी स्वतंत्र फ़िल्म का निर्माण करें। उनका सपना  चेम्बूर में चार एकड़ ज़मीन लेकर 1950 में उन्होंने अपने आर. के. स्टूडियो की स्थापना की और 1951 में ‘आवारा’ में रूमानी नायक के रूप में ख्याति पाई। राज कपूर ने ‘बरसात’ (1949), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) व ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन‘ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है। उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। मेरा नाम जोकर, संगम, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, उनकी कुछ बेहतरीन फिल्में रही। बॉबी, राम तेरी गंगा मैली, प्रेम रोग जैसी हिट फिल्मों का निर्देशन भी किया।
 विवाद
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उनकी पत्नी कृष्णा, नर्गिस, पद्मिनी और वैजयन्ती माला जैसी भारतीय नायिकाओं के साथ उनके सबंधों से काफी परेशान रहती थीं, जिसके चलते वह कई बार उनका घर भी छोड़ देती थीं।
वर्ष 1978 में, उन्होंने महान गायिका लता मंगेशकर से वादा किया कि वह उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर को फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में संगीत निर्देशक के रूप में नियुक्त करेंगे। लेकिन जब लता मंगेशकर एक संगीत दौरे पर संयुक्त राज्य अमेरिका गई हुई थीं, तब उन्होंने इस फिल्म के लिए हृदयनाथ मंगेशकर की जगह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को संगीत निर्देशक के रूप में नियुक्त कर लिया। जिसके बाद लता मंगेशकर उनसे नाराज हो गईं।
उन्होंने छोटे कपड़ों में नायिकाओं से दृश्य करवाए, जिसमें उनकी त्वचा जरूरत से ज़्यादा प्रदर्शित की जा रही थी। यही नहीं उन्होंने अपने सह-कलाकारों के साथ अभिनेत्रियों के साथ अर्ध नग्न दृश्यों को भी शॉट किया। जो कि उस समय भारत में इतना सामान्य नहीं था। जिसके चलते उन्हें दर्शकों द्वारा कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।
पुरस्कार
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राज कपूर को सन् 1987 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया था।
राज कपूर को कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन् 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
1960 में फिल्म अनाड़ी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार  से सम्मानित किया
1962 में फिल्म जिस देश में गंगा बहती है के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से नवाजा गया।
1965 में उन्हे सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार संगम फिल्म के लिए दिया गया।
1972 में फिल्म मेरा नाम जोकर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1983 में उन्हे फिल्म प्रेम रोग के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार दिया गया।
मृत्यु
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राज कपूर की मृत्यु 2 जून 1988 को नई दिल्ली में हुई।

फिल्मे
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1970 मेरा नाम जोकर
1968 सपनों का सौदागर
1967 अराउन्ड द वर्ल्ड
1967 दीवाना
1966 तीसरी कसम
1964 संगम
1964 दूल्हा दुल्हन
1963 दिल ही तो है
1963 एक दिल सौ अफ़साने
1962 आशिक
1961 नज़राना
1960 जिस देश में गंगा बहती है
1960 छलिया
1960 श्रीमान सत्यवादी
1959 अनाड़ी
1959 कन्हैया
1959 दो उस्ताद
1959 मैं नशे में हूँ
1959 चार दिल चार राहें
1958 परवरिश
1958 फिर सुबह होगी
1957 शारदा
1956 जागते रहो
1956 चोरी चोरी
1955 श्री 420
1954 बूट पॉलिश
1953 धुन
1953 आह
1953 पापी
1952 अनहोनी
1952 अंबर
1952 आशियाना
1952 बेवफ़ा
1951 आवारा
1950 सरगम
1950 भँवरा
1950 बावरे नैन
1950 प्यार
1950 दास्तान
1950 जान पहचान
1949 परिवर्तन
1949 बरसात
1949 सुनहरे दिन
1949 अंदाज़
1948 अमर प्रेम
1948 गोपीनाथ
1948 आग
1947 जेल यात्रा
1947 दिल की रानी
1947 चित्तौड़ विजय
1947 नीलकमल
1982 वकील बाबू
1982 गोपीचन्द जासूस
1981 नसीब
1980 अब्दुल्ला
1978 सत्यम शिवम सुन्दरम
1978 नौकरी
1977 चाँदी सोना
1976 ख़ान दोस्त
1975 धरम करम
1975 दो जासूस
1973 मेरा दोस्त मेरा धर्म
1971 कल आज और कल
1946 वाल्मीकि
1943 गौरी
1943 हमारी बात
1935 इन्कलाब

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शैलेन्द्र 20 अंतरे

tributes to the greatest lyricist Kaviraj Shailendra. reproducing here some of his best antaras 🙏

जो ठोकर न खाए , नहीं जीत उसकी
जो गिर के संभल जाए, है जीत उसकी
निशा मंज़िलो के , ये पैरो के छाले
कहा जा रहा है , तू ऐ जाने वाले
अँधेरा है मन का दीया तो जला ले ( seema )

ीतलती हवा नीलम सा गगन , कलियों पे यह बेहोशी की नमी
ऐसे में भी क्यों बेचैन हैं दिल , जीवन में ना जाने क्या हैं कमी
क्यों आग सी लगा के गुमसुम हैं चाँदनी
सोने भी नहीं देता मौसम का यह इशारा
यह रात भीगी भीगी , यह मस्त फिजाये
उठा धीरे धीरे , वह चाँद प्यारा प्यारा ( chori chori ) 

रात ने प्यार के जाम भर कर दिये
आँखों आँखों से जो मैं ने तुमने पिये
होश तो अब तलक़ जा के लौटे नहीं
जाने क्या ला रही है सुबह प्यार की
रात के हमसफ़र   ...( an evening in paris )

चाहत ने तेरी मुझको , कुछ इस तरह घेरा
दिन को है तेरे चर्चे , रातों को ख्वाब तेरा
तुम हो जहाँ है वहीं पर , रहता है दिल भी मेरा
बस एक ख्याल तेरा , क्या शाम क्या सवेरा
मुझे कितना प्यार है तुमसे , अपने ही दिल से पूछो तुम
जिसे दिल दिया है वह तुम हो , मेरी ज़िन्दगी तुम्हारी है ( dil tera deewana)

दिल के मेरे तुम, पास हो कितनी, फिर भी हो कितनी दूर
तुम मुझ से मैं, दिल से परेशाँ, दोनों हैं मजबूर
ऐसे में किसको, कौन मनाये , दिन ढल जाये हाये ... ( guide ) 

सितारों की महफ़िल ने करके इशारा , कहा अब तो सारा जहां है तुम्हारा
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो , करे कोई दिल आरजू और क्या
ये रातें, ये मौसम... ( dilli ka thug )

ऊपर-नीचे नीचे-ऊपर लहर चले जीवन की,  नादान है जो बैठ किनारे, पूछे राह वतन की 
चलना जीवन की कहानी रुकना मौत की निशानी 
सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी

तन सौंप दिया, मन सौंप दिया , कुछ और तो मेरे पास नहीं 
जो तुम से है मेरे हमदम , भगवान से भी वो आस नहीं 
जिस दिन से हुए एक दूजे के  , इस दुनिया से अनजान है हम 
एक दिल के दो अरमान हैं हम  , ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम (sangam)

रानी के संग राजा डोले सजाते, चले जाएंगे परदेस
जब-जब उनकी याद आयेगी, दिल पे लगेगी ठेस
नैनों में होगी बरसात, अन्धेरी होगी रात , मगन मैं नाचूंगी ( aah )

दो चमकती आँखों में , कल ख्वाब सुनहरा था जितना
है जिंदगी तेरी राहों में , आज अँधेरा है उतना
हम ने सोचा था जीवन में ,  फूल चाँद और तारे हैं
क्या ख़बर थी साथ में इनके , कांटे और अंगारे हैं
हम पेह किस्मत हँस रही है , कल हँसे थे हम जितना ( detective )

कह रहा है मेरा दिल, अब ये रात न ढले
खुशियों का ये सिलसिला, ऐसे ही चला रहे
तुझको देखूँ देखूँ जिधर, फिर क्यों मुझको लगता है डर
तेरा मेरा प्यार अमर, फिर क्यों मुझको लगता है डर
मेरे जीवन साथी बता, दिल क्यों धड़के रह-रह कर ( asli naqli )

Sunday, December 12, 2021

नदिया के पार

'नदिया के पार' की गुंजा यानी साधना सिंह इस फिल्म से काफी पॉपुलर हो गई थीं. यूपी के छोटे से गांव के परिवेश पर बनी यह फिल्म दृश्यों के हिसाब से बेशक साधारण लगे, लेकिन लोगों के दिलों में इसने गहरी जगह बनाई थी. इस फिल्म की हीरोइन साधना सिंह ने यह सोचा भी नहीं था कि वह कभी हीरोइन बनेंगी, लेकिन बहन के साथ एक फिल्म की शूटिंग देखने के लिए गई साधना सिंह पर सूरज बड़जात्या की नजर पड़ी और वह इस फिल्म की हीरोइन चुन ली गईं. साधना सिंह खुद भी कानपुर के एक छोटे से गांव नोनहा नरसिंह की रहना वाली हैं. उनकी मासूमियत के लोग इस कदर दीवाने हुए कि आज भी लोगों के जहन में वह मौजूद हैं.
यह फिल्म ब्लॉकबस्टर साबित हुई. साधना जहां भी जातीं लोग उन्हें गुंजा कहकर पुकारते. शहरों के साथ-साथ गांवों में भी लोग उनसे मिलने के लिए भीड़ लगा लेते थे. उनके लिए दीवानगी इस कदर थी कि लोगों ने अपनी बेटियों का नाम ही गुंजा रखना शुरू कर दिया था. 
'नदिया के पार' की शूटिंग जौनपुर एक गांव में हुई थी. कहा जाता है कि जब इस फिल्म की शूटिंग खत्म हुई थी तो उस गांव के लोग रोने लगे थे. गांव में शूटिंग के दौरान गुंजा और गांव वालों के बीच एक आत्मीय रिश्ता बन गया था. यह फिल्म 1 जनवरी 1982 को रिलीज हुई थी.

🌺🌺ये फिल्म प्रसिद्ध लेखक केशव प्रसाद जी के हिन्दी उपन्यास.. कोहबर की शर्त पर आधारित है.. 

जब ये फिल्म आई थी हम इस दुनिया में आए भी नहीं थे.. 
लेकिन हमने हमारी माॅं के साथ बहुत बार देखा हुआ है.. 
 माँ तो बचपन में ही 2__3 बार इस फिल्म को देख चुकी थीं.. शादी के बाद जब कभी माॅं अपने मायके में होती और ये फिल्म टीवी में आ रहा होता तो हमारे छोटे मामा जी माँ को बुलवाते.. सपरिवार देखते तो हम भी देख लेते माँ का साथ बचपन में कभी नहीं छोड़ा हमनें.. 
आज भी इस फिल्म का क्रेज हमारी माॅं के दिल में कम नहीं हुआ है. जब भी कभी टीवी पर ये फिल्म आती है माॅं पुरे मन से देखती हैं
इसमें का एक गाना माँ अक्सर गुनगुनाती हैं.. 

कौन दिशा में लेके चला रे बटुहिया ये ठहर ठहर ये सुहानी सी डगर. जरा देखन दे.. देखन दे..

मन भरमाए नैना बांधे ये डगरिया
मन भरमाए नैना बांधे ये डगरिया.
कहीं गए जो ठहर दिन जाएगा गुजर.
गाड़ी हांकन दे. हांकन दे... 

आज हमनें गुगल से काॅपी किया है जहाँ से फूल हैं वहाँ से हमनें लिखा है.. बाकी ऊपर का काॅपी है.. 

🙏🙏🙏🙏❤❤🥀🥀💐💐🌺🌺🌼🌼