Saturday, October 30, 2021

रामराज्य मूवी

सन 1943 में प्रदर्शित हिंदी फिल्म 'रामराज्य' जो अनेक मामलों में विशिष्ट है

यूं तो श्री राम की कथाओं के आधार पर बहुत सी फिल्मों का निर्माण हुआ है लेकिन सन 1943 में बनी लोकप्रिय हिन्दी फ़िल्म 'रामराज्य' की बात ही कुछ और है।

जैसा कि फ़िल्म के नाम से ही स्पष्ट है, इसकी कथा का केंद्र रावण वध और लंका विजय के बाद श्री राम के अयोध्या लौटकर राज गद्दी संभाल लेने के बाद की घटनाएं हैं।  

इस फ़िल्म के निर्माता-निर्दर्शक जाने माने फिल्मकार विजय भट्ट थे। फ़िल्म में प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं उन दिनों के नामी अभिनेता  प्रेम अदीब, शोभना समर्थ (जो जानी मानी फ़िल्म अभिनेत्रियों नूतन और तनुजा की मां और काजोल की नानी थीं), चंद्रकांत, उमाकांत, जी. बद्रीप्रसाद, अमीरबाई कर्नाटकी, यशवंत, मधुसूदन और शांता कुमारी ने।  

कहते हैं कि विजय भट्ट की सलाह पर और श्रद्धा भक्ति के कारण फ़िल्म के निर्माण के दौरान प्रेम अदीब ने शराब पीने और धूम्रपान करने से परहेज़ किया।

सन 1943 में प्रदर्शित इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस में बहुत सफलता प्राप्त की।  धन कमाने की दृष्टि से यह सन 1943 की तीसरी सबसे अध‍िक सफल फ़िल्म थी।   

'राम राज्य' ऐसी एकमात्र हिंदी फिल्म है जिसे स्वयं महात्मा गांधी ने देखा था। महात्मा गांधी को फिल्मों में कोई रुचि नहीं थी। अपने जीवन में उन्होंने केवल दो फिल्में देखी थीं। एक, अंग्रेजी फ़िल्म 'मिशन टू मॉस्को'और दूसरी 'राम राज्य'। सन 1945 में जब गांधीजी बम्बई आये हुए थे, तब निर्माता-निर्दर्शक विजय भट्ट ने उनके लिए फ़िल्म 'राम राज्य' का विशेष शो आयोजित करवाया। अपनी व्यस्तताओं के कारण गांधीजी ने पूरी फिल्म तो नहीं देखी पर लगभग 90 मिनट तक उसे देखा। उस दिन गांधीजी का मौन व्रत भी था।

राम राज्य के साथ एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि भी जुड़ी हुई है। अमेरिका में प्रदर्शित होने वाली यह प्रथम पहली भारतीय फिल्म थी।

ब्रेन स्ट्रोक्स

जानिए ब्रेन स्ट्रोक, ब्रेन हेमरेज, ब्रेन अटैक को
■ क्या रखे सावधानी और क्या है उपचार
★★★★★■■■★★★★★
हर साल 29 अक्तूबर को वर्ल्ड स्ट्रोक डे यानि विश्व स्ट्रोक दिवस मनाया जाता है, जिसका मकसद लोगों में इस बीमारी के प्रति जागरुकता फैलाना है। हार्ट अटैक के बारे में तो लोग बहुत कुछ जानते हैं लेकिन ब्रेन अटैक या स्ट्रोक को लेकर ज्यादा सचेत नहीं होते।
ऐसा करना मुसीबत को न्योता देना है क्योंकि सिर्फ उम्रदराज ही नहीं, अब युवा भी ब्रेन स्ट्रोक की चपेट में आ रहे हैं। इसका कारण कहीं ना कहीं गलत लाइफस्टाइल व खान-पान भी है। ऐसे में आज की इस आर्टिकल के जरिए हम आपको यही बताएंगे कि ये बीमारी होती क्यों है, किन्हें ज्यादा खतरा और इससे बचा कैसे जा सकता है
*सबसे पहले जानिए ब्रेन अटैक, स्ट्रोक और हेमरेज में फर्क...*
- अक्सर लोगों को लगता है कि ब्रेन अटैक, स्ट्रोक और हेमरेज एक ही है जबकि ऐसा नहीं है। जब दिमाग की नसों में खून की सप्लाई कम हो तो उसे छोटा ब्रेन स्ट्रोक कहा जाता और जब सप्लाई रुक जाए तो इसे बड़ा स्ट्रोक कहते हैं, जिसमें व्यक्ति की जान भी जान सकती है।
- वहीं, जब नसें ब्लॉक हो जाए तो उसे एस्केमिक यानी ब्रेन अटैक और जब दिमाग की नसें फट जाए तो उसे ब्रेन हेमरेज कहा जाता हैं।
*क्यों होता है ब्रेन स्ट्रोक?*
जब दिमाग तक ऑक्सीजन और खून पहुंचाने वाली रक्त धमनियों (आर्टरी) में रक्त जमा यानि ब्लड क्लॉट बनते हैं तो मस्तिष्क के सेल्स मरने लगते हैं और खून की सप्लाई रुक जाती है। इसके कारण दिमाग के काम पर असर पड़ता है जिसे ब्रेन स्ट्रोक कहा जाता है। वैसे तो स्ट्रोक किसी भी वक्त हो सकता है लेकिन ज्यादातर मामले सुबह के समय होते हैं क्योंकि उस वक्त ब्लड प्रेशर ज्यादा होता है।
*ब्रेन स्ट्रोक दो तरह का होता है-*
1. पहला मिनी स्ट्रोक, जिसमें मरीज को बोलने में दिक्कत, कमजोरी महसूस होती है। इसमें शरीर का एक तरफ का पूरी तरह काम करना बंद कर देता है लेकिन 24 से 48 घंटे (1-2 दिन) में वो ठीक भी हो जाता है। ऐसे मामलों में रिकवरी की संभावना 90% होती है लेकिन अगर सही इलाज ना मिले तो अगले 2-3 सालों में फुल फ्लैज्ड अटैक की आशंका रहती है।
2. दूसरा फुल फ्लैज्ड स्ट्रोक, जिसमें मरीज को लकवा मार जाता है और चेहरा टेढ़ा हो सकता है। इसमें रिकवरी की चांसेस इस बात पर निर्भर होते हैं कि अटैक किस आर्टरी पर और कितना हुआ है। अगर मेन आर्टरी पर अटैक हुआ हो जाए तो 50% मामलों में ही रिकवरी हो पाती है।
*ब्रेन स्ट्रोक के लक्षण*
. शरीर के किसी एक तरफ के हिस्से पर पैरेलेसिस हो जाना
. चेहरा टेढ़ा हो जाना
. हाथ या पैर का सुन्न होना
. बोलने व देखने में दिक्कत होना
. चक्कर व उल्टियां होना
. तेज सिरदर्द
हालांकि इसके लक्षण कौन-सी नस ब्लॉक हुई है इस पर निर्भर करते हैं। अगर दिमाग के पीछे की नस ब्लॉक हुई हो तो चक्कर, उल्टी, बैलेंस बिगड़ना जैसे लक्षण नजर दिखते जबकि आगे की नस ब्लॉक होने पर लकवा, बोलने या देखने में दिक्कत जैसे लक्षण दिखाई देंगे।
*इन लोगों सतर्क रहने की ज्यादा जरूरत*
. यूं तो ब्रेन स्ट्रोक किसी को भी हो सकता है लेकिन 50 से अधिक उम्र के लोग, उम्रदराज, डायबिटीक पेशेंट, कॉलेस्ट्रॉल व ब्लड प्रेशर के मरीजों को ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है।
. इसके अलावा स्मोकिंग, शराब पीने वाले वालों को भी अधिक खतरा होता।
. ब्रेन स्ट्रोक की फैमिली हिस्ट्री होने पर इसकी संभावना 50% तक बढ़ जाती है।
*फौरन इलाज जरूरी*
अटैक के साढ़े चार घंटे के अंदर अगर मरीज को इलाज मिल जाए तो मरीज की जान बचाई जा सकती है। 10-15% मामलों में इलाज में देरी के कारण मरीज की मौत हो जाती है। ऐसे में ध्यान रखें कि मरीज को उसी हॉस्पिटल में ले जाए जहां 24 घंटे सीटी स्कैन की सुविधा हो।
*ठीक होने के बाद बढ़ सकती हैं दिक्कतें*
ब्रेन स्ट्रोक के बाद कई बार मरीज को कुछ और दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, जैसे कि :
- फेफड़ों में इंफेक्शन
- निमोनिया
- पैरों की नसों में थक्के जमना जो कई बार दिल की तरफ भी चले जाते हैं
- लेटे रहने से कमर में घाव होना.

★■ प्रो रविन्दर 

गुरुबक्षणी निवास स्ट्रीट 5 धर्मशाला के सामने रविग्राम तेलीबांधा रायपुर छत्तीसगड़ 492006 
मोबाइल 8109224468 

Friday, October 29, 2021

शांता आप्टे

शांता आप्टे... 
फायर ब्रांड नायिका
★★★★★★★★
मराठी और  हिंदी फिल्म अभिनेत्री  अपने उग्र स्वभाव और विद्रोही प्रकृति के कारण  अपने जमाने में फायर ब्रांड  अभिनेत्री में मानी जाती थी.
शांता आप्टे का जन्म सन 1916 में पैदा हुआ था.
शांता आप्टे के पिता स्टेशन मास्टर थे.और संगीत की जानकारी रखते थे तो शांता ने भी बचपन से ही गायिका के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली.. उस समय गणेश महोत्सव में शांता गाया करती थी.. उस वक्त मूक फिल्में बनती थी.. जब फिल्में बोलने लगी तो  फिल्म इन्डस्ट्री को    गायक अभिनेता अभिनेत्रीओं की  जरूरत महेसुस हुयी... 
शांता आप्टे सन 1932 से  1958  तक  फिल्मों में सक्रिय रही. शांता आप्टे ने मराठी में अपनी आत्मकथा लिखी हे.. हिंदी में इसका अर्थ है.. कया मुझे फिल्मों में काम  करना चाहिए...! 
शांता आप्टे को सबसे पहली फिल्म  श्याम सुंदर मिली.. 
इस फिल्म में शांता आप्टे ने राधा की भुमिका निभाई. फिल्म के नायक शाहु मोडक थे. आपको जानकर आश्चर्य होगा.. इस फिल्म में राधा के पति की भुमिका खुद शांता आप्टे के भाई बाबुराव ने निभाई थी..!!  बंबई में 25 सप्ताह  चलने वाली यह पहली बोलती फिल्म थी..! 
इस फिल्म में शांता आप्टे के अभिनय की बहुत आलोचना हुई.. शांता आप्टे को ओर फिल्मों के प्रस्ताव भी नहीं मिले.. शांता फिल्मों में नायिका नहीं गायिका बनना चाहती थी.. लेकिन प्रभात फिल्म कंपनी ने उसे  अभिनेत्री के तौर पर अनुबंधित कर   लिया और   शांता को   पहली फिल्म   मिली     अमृत मंथन(1934.)... इस फिल्म में शांता सह अभिनेत्री थी और  उसने नायक की बहन की भुमिका निभाई थी.. फिल्म  हिट हो गई..! ईस फिल्म ने बंबई में सिल्वर जुबिली मनाई..! शांता का अभिनय भी सराहा गया..
 बाद में शांता आप्टे ने  अमर जयोती(1936) रजपुरा रमणी. (1936)  दुनिया ना माने (1937) वहा.(1937) अपना घर (1942)  दुहाई (1943) वाल्मीकि  (1946) जमीन दार.. सुभद्रा भाग्य लक्ष्मी.. गोपाल कृष्ण  मोहब्बत  सावन  पनिहारी जैसी फिल्मों में काम किया.. शांता ने  फिल्म रजपुत रमणी में    विरांगना.. फिल्म वाहन में आदिवासी कन्या फिल्म गोपाल कृष्ण और श्याम सुंदर में राधा की भुमिका निभाई थी.  मंदिर   में अबला नहीं हु.. स्वयं सिद्धा.. शांता आप्टे की हिन्दी फ़िल्में हे.. 
वी. शांता राम की फिल्म दुनिया ना माने (1937)  में बनी थी.. इस फिल्म में शांता आप्टे ने  यादगार भुमिका निभाई थी.
फिल्म की कहानी कुछ एसी थी.. फिल्म की नायिका नीरा  (शांता आप्टे)  का विवाह  एक विधुर (केशवराव दाते)  से हो जाता हे.. यह एक बेमेल विवाह हे.. कयोकि विधुर को युवा बेटे और बेटीयाँ हे.. पिता के उम्र के पति को पाकर नीरा  भीतर से बहुत  दुखी हे  . परिस्थितियों से समझौता करने की बजाय पहले वह विद्रोह करती हे.. लेकिन बाद में अपने आप को उसी घर में रहने लायक बनाने की कोशिश करती हे.. अपने वृद्ध पति से शारीरिक संबंध जोडने की बजाय पति को अपनी भुल का एहसास कराने में नीरा सफल होती हे.. विधुर और वृद्ध पति को भी  अपनी गलती का अहेसास होता हे.. लेकिन अपने आप को कुछ करने से असहाय   पा कर  आत्महत्या कर के अपनी युवा पत्नी निरा के  पुर्न विवाह के लिए  रास्ता बना जाता हे..! 
फिल्म दुनिया ना माने में   वासंती  की भुमिका थी.. 
लाहौर में बनी फिल्म जमींदार के हिरो एस. डी. नारंग थे.
फिल्म अपना धर में शांता आप्टे ने एक आजाद खयालात की औरत की भुमिका निभाई थी जिसका विवाह  एक विधुर से होता हे.. और वह वनवासियों की सेवा के लिए पति का घर छोड़ देती है.. 
सन 1950 मैं कलकत्ता में बनी फिल्म स्वयं सिद्धा  शांता आप्टे की एक जबरदस्त हिट फिल्म थी.. पहले तो यह फिल्म खरीदने के लिए कोई वितरक तैयार भी नहीं हो रहे थे.. इस फिल्म में शांता आप्टे के साथ हिरा लाल और  अमरनाथ की भी भुमिका थी 
 सन 1964 में आइ माला सिंहा गुरु दत्त फिरोज खान अभिनीत फिल्म बहुरानी  फिल्म स्वयं सिद्धा की ही रिमेक थी.. 
शांता आप्टे अपने उग्र स्वभाव के कारण विवाद में रहती थी.
सुना है उस समय की एक  प्रख्यात फिल्म पत्रिका फिल्म इन्डिया में एक बार  शांता आप्टे के बारे में अनाप शनाप लिखा गया था तो शांता आप्टे छड़ी लेकर  उस मेगेजिन के संपादक  बाबुराम पटेल की  पिटाई करने पहोच गयी थी..! 
हिन्दू स्तानी फिल्मों  में सबसे पहला इन्गलिश गाना शांता आप्टे ने फिल्म दुनिया ना माने के लिए गाया था.. गाने के बोल कुछ ऐसे थे.. In the world broadfield of battle    ... 
शांता आप्टे   महाराष्ट़ीयन  ब़ाह्मण थी.
सुना हे शांता आप्टे  अभिनेत्री होते हुए भी कीसी पुरुष को  स्पर्स तक नहीं करने देती थी.. 
शांता आप्टे ने एक गुजराती फिल्म में भी काम किया था.. जिसका नाम याद नहीं आ रहा.
शांता आप्टे को शराब की लत लग  गयी थी.. उसका भाई  बाबुराम आप्टे  शांता के सभी पैसे हजम कर गया था..वह अकेलापन  महसूस करती थी. 25 फरबरी 1964 के रोज केन्सर की बिमारी से शांता आप्टे का देहांत हो गया.

प्रस्तुति 

साक्षी ■■
★★
गुरुबक्षणी निवास स्ट्रीट 5 
रविग्राम धर्मशाला के सामने तेलीबांधा रायपुर छतीसगढ़ 492006 
मोबाइल 8109224468

Monday, October 25, 2021

अपर्णा सेन

#अपर्णा_सेन 
 जन्म - 25 अक्टूबर 1945 (आयु 74)
हिन्दी एवं बांगला सिनेमा की अभिनेत्रियों में से एक हैं। १९६० और १९७० के दशक की प्रमुख अभिनेत्री में से एक है। उन्हें अपने जीवनकाल में ८ बीऍफ़जेए पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। उन्हें १९८७ में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।

अपर्णा सेन ने 15 साल की उम्र में अपनी फिल्म की शुरुआत की, जब उन्होंने 1961 की फिल्म किशोर कन्या (तीन बेटियां) सत्यजीत रे (जो उनके पिता की लंबे समय की दोस्त थी) के निर्देशन वाले हिस्से में मृण्मयी की भूमिका निभाई। इसके बाद उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में अध्ययन किया, पंद्रह साल की उम्र में उनकी फोटो ब्रायन ब्रेक द्वारा उनकी 1960 की "सुपर 19" मानसून "तस्वीरों की श्रृंखला के लिए प्रसिद्ध थी; यह चित्र जीवन .

के कवर पर दिखाई दिया, 2009 में सेन शर्मिला टैगोर और राहुल बोस अनिरुद्ध रॉय-चौधरी की बंगाली फिल्म  में दिखाई दीं। अंतैहेन । इस फिल्म ने चार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
सेन का जन्म एक में हुआ था बंगाली परिवार, मूल रूप से कॉक्स बाजार चटगांव जिला (अब बांग्लादेश में)। उनके पिता अनुभवी आलोचक और फिल्म निर्माता चिदानंद दासगुप्ता थे। उनकी माँ एक कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर थीं और 73 साल की उम्र में चिदानंद के निर्देशन में बनी फिल्म अमोदिनी (1995) के लिए बेस्ट कॉस्ट्यूम डिज़ाइन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार अर्जित किया। सेन बंगाली कवि जीबनानंद दास के रिश्तेदार हैं।  सेन ने अपना बचपन हजारीबाग और कोलकाता में बिताया और उनकी स्कूलिंग मॉडर्न हाई स्कूल फॉर गर्ल्स , कोलकाता , भारत में हुई। उसने अपनी बी.ए. अंग्रेजी में प्रेसीडेंसी कॉलेज में, लेकिन डिग्री पूरी नहीं की।

सेन ने 15 साल की उम्र में अपनी फिल्म की शुरुआत की, जब उन्होंने 1961 की फिल्म किशोर कन्या (तीन बेटियां) सत्यजीत रे (जो उनके पिता की लंबे समय की दोस्त थी) के निर्देशन वाले हिस्से में मृण्मयी की भूमिका निभाई। इसके बाद उन्होंने कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज मे अध्ययन किया, पंद्रह साल की उम्र में उनकी फोटो ब्रायन ब्रेक द्वारा उनकी 1960 की "सुपर 19" मानसून "तस्वीरों की श्रृंखला के लिए प्रसिद्ध थी; यह चित्र जीवन .

के कवर पर दिखाई दिया, 2009 में सेन शर्मिला टैगोर और राहुल बोस अनिरुद्ध रॉय-चौधरी की बंगाली फिल्म में दिखाई दीं। अंतैहेन । इस फिल्म ने चार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीते।

2009 में, सेन ने अपनी अगली बंगाली फिल्म इति मृणालिनी की घोषणा की, जिसमें कोंकणा सेन शर्मा , अपर्णा सेन, रजत कपूर , कौशिक सेन , और प्रियांशु चटर्जी । पहली बार के पटकथा लेखक रंजन घोष सह-लेखक इति मृणालिनी । यह पहली बार था जब सेन ने किसी फिल्म लेखक के साथ सहयोग किया या किसी फिल्म संस्थान के पाठ्यक्रम से जुड़े। इति मृणालिनी की पटकथा मुंबई स्थित फिल्म स्कूल व्हिसलिंग वुड्स इंटरनेशनल में पटकथा लेखन पाठ्यक्रम में एक असाइनमेंट था। यह भारतीय पटकथा लेखन में भी पहला था, क्योंकि पहली बार किसी भारतीय फिल्म संस्थान की पटकथा वास्तव में फिल्माई गई थी। फिल्म 29 जुलाई 2011 को रिलीज़ हुई थी।

2013 में, उनकी फिल्म गोयनार बख्शो (ज्वेलरी बॉक्स) महिलाओं की तीन पीढ़ियों और गहनों के एक बॉक्स से उनके रिश्ते को दर्शाती हुई रिलीज़ की गई थी। यह पैक्ड घरों में भाग गया और समीक्षकों और आलोचकों से महत्वपूर्ण प्रशंसा प्राप्त की। इसके बाद, 2015 में अर्शीनगर , रोमियो और जूलियट का एक रूपांतरण जारी किया गया था।

2017 में, सोनाटा- सेन द्वारा लिखित और निर्देशित एक अंग्रेजी फिल्म थी। । महेंद्र एलकुंचवार द्वारा एक नाटक से लिया गया, फिल्म अपर्णा सेन द्वारा निभाई गई तीन मध्यम आयु वर्ग के अविवाहित दोस्तों के जीवन की पड़ताल करती है, शबाना आज़मी और लिलेट दुबे।

#पुरस्कार

अपर्णा सेन को राष्ट्रपति ए से वर्ष 2002 के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पुरस्कार मिला। पीजे अब्दुल कलाम .
पद्म श्री - 1987 में भारत सरकार द्वारा चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार।
सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 36 चौरंगी लेन। 1981 में 202>अंग्रेजी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 36 चौरंगी लेन के लिए 1981 में।
बंगाली में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पारोमा के लिए। 1984 में।
बंगाली में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार युगंत 1995 में।
बंगाली में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार पैरोमिटर 2000 में एक दिन
सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार श्री के लिए। और मिसेज अय्यर 2002 में।
नेशनल इंटीग्रेशन पर बेस्ट फीचर फिल्म के लिए नरगिस दत्त अवॉर्ड मि। और मिसेज अय्यर 2002 में।
नेशनल स्क्रीन अवार्ड फॉर बेस्ट स्क्रीनप्ले मि। और मिसेज अय्यर 2002 में।
2005 में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 2005 में 15 पार्क एवेन्यू के लिए।
कार्लोवी वैरी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल
फिल्मफेयर पुरस्कार पूर्व 1974 में सुजाता के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार। 1976 में फिल्मफेयर पुरस्कार पूर्व और 1976 में असमाया का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार।
फिल्मफेयर पुरस्कार पूर्व 1982 में बिजॉयनी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार।
फिल्मफेयर अवार्ड्स ईस्ट 1983 में इंदिरा के लिए बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड।
फिल्मफेयर अवार्ड्स ईस्ट 1985 में परम के लिए बेस्ट डायरेक्टर अवार्ड।
बीएफजेए अवॉर्ड -अपर्चितो के लिए बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड 1970 में
बीएफजेए अवार्ड -1975 में सुजाता के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड
बीएफजेए अवार्ड -बेस्ट डायरेक्टर अवार्ड फॉर परमा को 1986
बीएफजेए अवार्ड -बस स्क्रीनसेशन अवार्ड फॉर पारा
बीएफजेए पुरस्कार -अनंतो अपान के लिए 1988 में बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड
बीएफजेए अवार्ड -सबसे बढ़िया सपोर्टिंग एक्ट्रेस अवार्ड 1992 में महाप्रतिबी
बीएफजेए अवार्ड # 90- बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड स्वेट पथर थला 1993 में
बीएफजेए पुरस्कार -सबसे सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार 1997 में अनिश्र अप्रैल के लिए
बीएफजेए अवार्ड - 1997 में मूल कहानी-युगांत के लिए बाबूलाल चौखानी मेमोरियल ट्रॉफी
बीएफजेए अवार्ड 2001 में परमवीर एक दिवस के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार
बीएफजेए अवार्ड - 2001 में मूल कहानी और पटकथा के लिए बाबूलाल चौखानी मेमोरियल ट्रॉफी forParamitar Ek Din
BFJA अवार्ड -Most आउटस्टैंडिंग वर्क ऑफ द ईयर फॉर मिस्टर एंड मिसेज अय्यर 2003
BFJA अवार्ड -लाइफ 2013 में टाइम अचीवमेंट अवार्ड
आनंदलोक पुरस्कार 2001 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री
आनंदलोक पुरस्कार 2002 में "शीर्षक" के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री
कलाकंद पुरस्कार-सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (स्टेज) पुरस्कार 1993 में भालो खरब मेये के लिए
2000 में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए कलाकर पुरस्कार पैरोमिटर एक दिन
कलाकर पुरस्कार-सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार के लिए आई मृणालिनी 2012 में।

अपर्णा सेन ने दुनिया भर के फिल्म समारोहों में चोटों पर काम किया है। 1989 में वह 16 वें मास्को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जूरी की सदस्य थीं। 2008 में, वह एशिया पैसिफिक स्क्रीन अवार्ड्स के अंतर्राष्ट्रीय जूरी में चुनी गईं। 2013 में, उन्होंने दूसरे लद्दाख अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव की जूरी का नेतृत्व किया।
1986 से 2005 तक, सेन पाक्षिक सानंदा , एक बंगाली महिला पत्रिका (<द्वारा प्रकाशित) के संपादक थे। आनंद बाजार पत्रिका समूह) पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में समान लोकप्रियता प्राप्त करता है। नवंबर 2005 से दिसंबर 2006 तक, वह बंगाली 24x7 इंफोटेनमेंट चैनल कोलकाता टीवी के साथ क्रिएटिव डायरेक्टर के रूप में जुड़ी रहीं। 2011 में उन्होंने शारदा समूह द्वारा शुरू की गई पत्रिका पारोमा के संपादक के रूप में कार्यभार संभाला। सारदा ग्रुप के वित्तीय घोटाले के बाद, परोमा मुश्किल में भाग गया। यह अंततः 14 अप्रैल 2013 को बंद हो गया। सेन और उसकी संपादकीय टीम ने प्रथम एखॉन नामक एक नई पत्रिका शुरू की, जो अल्पकालिक थी।

1987 में, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंग ने भारतीय सिनेमा में अपने योगदान के लिए सेन को पद्म श्री दिया। तब से, उन्हें कई जीवन भर की उपलब्धि के पुरस्कार मिले हैं।

जन्मदिन अवसर विनम्र अभिवादन🙏🏽🌹

साहिर1

विनम्र श्रद्धांजलि 💐💐💐💐💐

साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हयी साहिर है। उनका जन्म 8 मार्च 1921 को लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था। साहिर लुधियानवी का इंतकाल 25 अक्टूबर 1980 को हुआ। हालांकि इनके पिता बहुत धनी थे पर माता-पिता में अलगाव होने के कारण उन्हें माता के साथ रहना पड़ा और गरीबी में गुज़र करना पड़ा। साहिर की शिक्षा लुधियाना के ख़ालसा हाई स्कूल में हुई। सन् 1939 में जब वे गवर्मेंट कालेज के विद्यार्थी थे तब अमृता प्रीतम से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा। कॉलेज़ के दिनों में वे अपने शेरों के लिए मशहूर हो गए थे और अमृता इनकी प्रशंसक बनी लेकिन अमृता के घर वालों को ये रास नहीं आया क्योंकि एक तो साहिर मुस्लिम थे और दूसरे गरीब। बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कालेज से निकाल दिया गया। जीविका चलाने के लिये उन्होंने तरह तरह की छोटी-मोटी नौकरियाँ कीं।
साहिर लुधियानवी की असीम शख्सियत को उनके कलम की नोक के एक तोहफे पर समेटना कुछ ऐसा होगा कि जैसे आसमां को एक डिब्बे में बंद करने की जद्दोजेहद। पर जैसे आसमान का सिमटा हुआ अक्स भी उसके फैलाव पर असमंजस पैदा करता है, वैसे ही साहिर का एक गीत, उनकी एक नज़्म, उनकी शख्सियत की रूमानियत, उसकी व्यवहारिकता, उनकी हंसी, उनके रंज और उनके व्यक्तिगत गुरूर को एक ही झटके में बयां कर देता है। साहिर दुनियावी एहसास के जीते जागते आईना थे। 08 मार्च, 1921 की पैदाइश, साहिर लुधियानवी का असल नाम था, अब्दुल हयी। एक कठिन पिता और एक जुझारू और ममतामयी माँ के बीच झूलते, साहिर के कठिन बचपन ने जो कुछ देखा, जो कुछ समझा, उन एहसासों ने उनके ख्वाबों, उनकी कलम, उनकी रूह और उनके इश्क पर जबरदस्त असर डाला। आजा़दी के परवाने बन कर, हिन्दुस्तानियों के दिलों की कड़वाहट को कागज़ पर उतारने वाले साहिर ने, देश के बंटवारे और इश्क ओ रूमानियत के कई पहलुओं को तीर की तरह इस्तेमाल कर, लोगों के एहसासों पर सीधा-सीधा वार किया। और यह वार कविता और शायरी की दुनिया से लेकर फिल्मी गीतों के उनके सफर तक यूं ही धारदार बना रहा।

साहिर

#साहिर_लुधियानवी 

जन्म -८ मार्च १९२१ 
निधन -२५ अक्टूबर १९८०
 एक प्रसिद्ध शायर तथा गीतकार थे। इनका जन्म लुधियाना में हुआ था और लाहौर (चार उर्दू पत्रिकाओं का सम्पादन, सन् १९४८ तक) तथा बंबई (१९४९ के बाद) इनकी कर्मभूमि रही।

साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हयी साहिर है। उनका जन्म 8 मार्च 1921 में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था। हालांकि इनके पिता बहुत धनी थे पर माता-पिता में अलगाव होने के कारण उन्हें माता के साथ रहना पड़ा और गरीबी में गुज़र करना पड़ा। साहिर की शिक्षा लुधियाना के खा़लसा हाई स्कूल में हुई। सन् 1939 में जब वे गव्हर्नमेंट कालेज के विद्यार्थी थे अमृता प्रीतम से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा। कॉलेज़ के दिनों में वे अपने शेरों के लिए मशहूर हो गए थे और अमृता इनकी प्रशंसक बनी। लेकिन अमृता के घरवालों को ये रास नहीं आया क्योंकि एक तो साहिर मुस्लिम थे और दूसरे गरीब। बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कालेज से निकाल दिया गया। जीविका चलाने के लिये उन्होंने तरह तरह की छोटी-मोटी नौकरियाँ कीं।
सन् 1943 में साहिर लाहौर आ गये और उसी वर्ष उन्होंने अपनी पहली कविता संग्रह तल्खियाँ छपवायी। ' तल्खियाँ ' के प्रकाशन के बाद से ही उन्हें ख्याति प्राप्त होने लग गई। सन् 1945 में वे प्रसिद्ध उर्दू पत्र अदब-ए-लतीफ़ और शाहकार (लाहौर) के सम्पादक बने। बाद में वे द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के भी सम्पादक बने और इस पत्रिका में उनकी किसी रचना को सरकार के विरुद्ध समझे जाने के कारण पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ वारण्ट जारी कर दिया। उनके विचार साम्यवादी थे। सन् 1949 में वे दिल्ली आ गये। कुछ दिनों दिल्ली में रहकर वे बंबई (वर्तमान मुंबई) आ गये जहाँ पर व उर्दू पत्रिका शाहराह और प्रीतलड़ी के सम्पादक बने।
फिल्म आजादी की राह पर (1949) के लिये उन्होंने पहली बार गीत लिखे किन्तु प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, जिसके संगीतकार सचिनदेव बर्मन थे, के लिये लिखे गीतों से मिली। फिल्म नौजवान का गाना ठंडी हवायें लहरा के आयें ..... बहुत लोकप्रिय हुआ और आज तक है। बाद में साहिर लुधियानवी ने बाजी, प्यासा, फिर सुबह होगी, कभी कभी जैसे लोकप्रिय फिल्मों के लिये गीत लिखे। सचिनदेव बर्मन के अलावा एन. दत्ता, शंकर जयकिशन, खय्याम आदि संगीतकारों ने उनके गीतों की धुनें बनाई हैं।
59 वर्ष की अवस्था में 25 अक्टूबर 1980 को दिल का दौरा पड़ने से साहिर लुधियानवी का निधन हो गया।

उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जितना ध्यान औरों पर दिया उतना खुद पर नहीं। वे एक नास्तिक थे तथा उन्होंने आजादी के बाद अपने कई हिन्दू तथा सिख मित्रों की कमी महसूस की जो लाहौर में थे। उनको जीवन में दो प्रेम असफलता मिली - पहला कॉलेज के दिनों में अमृता प्रीतम के साथ जब अमृता के घरवालों ने उनकी शादी न करने का फैसला ये सोचकर लिया कि साहिर एक तो मुस्लिम हैं दूसरे ग़रीब और दूसरी सुधा मल्होत्रा से। वे आजीवन अविवाहित रहे तथा उनसठ वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। उनके जीवन की तल्ख़ियां (कटुता) इनके लिखे शेरों में झलकती है। परछाईयाँ नामक कविता में उन्होंने अपने गरीब प्रेमी के जीवन की तरद्दुद का चित्रण किया है -

मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में
तुम्हारी आँख मुसर्रत से झुकती जाती है
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं।
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,
अदाए-अज्ज़ो-करम से उठ रही हो तुम
सुहाग-रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं
वे लमहे कितने दिलकश थे वे घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,
वे सहरे कितने नाज़ुक थे वे लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं
बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया
नागाह लहकते खेतों से टापों की सदायें आने लगीं
बारूद की बोझल बू लेकर पच्छम से हवायें आने लगीं
तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया
मग़रिब के मुहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ खाकी वर्दी-पोश आये
इठलाते हुए मग़रूर आये, लहराते हुए मदहोश आये
खामोश ज़मीं के सीने में, खैमों की तनाबें गड़ने लगीं
मक्खन-सी मुलायम राहों पर बूटों की खराशें पड़ने लगीं
फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं
जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं
इनसान की कीमत गिरने लगी, अजनास के भाओ चढ़ने लगे
चौपाल की रौनक घटने लगी, भरती के दफ़ातर बढ़ने लगे
बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे

हिन्दी (बॉलीवुड) फ़िल्मों के लिए लिखे उनके गानों में भी उनका व्यक्तित्व झलकता है। उनके गीतों में संजीदगी कुछ इस कदर झलकती है जैसे ये उनके जीवन से जुड़ी हों। उन्हें यद्यपि शराब की आदत पड़ गई थी पर उन्हें शराब (मय) के प्रशंसक गीतकारों में नहीं गिना जाता है। इसके बजाय उनका नाम जीवन के विषाद, प्रेम में आत्मिकता की जग़ह भौतिकता तथा सियासी खेलों की वहशत के गीतकार और शायरों में शुमार है।
साहिर वे पहले गीतकार थे जिन्हें अपने गानों के लिए रॉयल्टी मिलती थी। उनके प्रयास के बावजूद ही संभव हो पाया कि आकाशवाणी पर गानों के प्रसारण के समय गायक तथा संगीतकार के अतिरिक्त गीतकारों का भी उल्लेख किया जाता था। इससे पहले तक गानों के प्रसारण समय सिर्फ गायक तथा संगीतकार का नाम ही उद्घोषित होता था।

#प्रसिद्ध_गीत

"आना है तो आ" (नया दौर 1957), संगीतकार ओ पी नय्यर

"अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम" (हम दोनो 1961), संगीतकार जयदेव

"चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें" (गुमराह 1963), संगीतकार रवि

"मन रे तु काहे न धीर धरे" (चित्रलेखा 1964), संगीतकार रोशन

"मैं पल दो पल का शायर हूं" (कभी कभी 1976), संगीतकार खय्याम

"यह दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है" (प्यासा 1957), संगीतकार एस डी बर्मन

"ईश्वर अल्लाह तेरे नाम" (नया रास्ता 1970), संगीतकार एन दत्ता

"मारो भर भर कर पिचकारी" (धनवान 1981), संगीतकार हृदयनाथ मंगेशकर

पुण्यतिथी अवसर विनम्र अभिवादन🙏🏽🌹

Sunday, October 24, 2021

मिर्जा गालिब

आज बात करेंगे ग़ालिब साहब की गज़लों से सुसज्जित फ़िल्म मिर्ज़ा ग़ालिब की। 1954 मैं प्रदर्शित इस फिल्म का निर्माण व निर्देशन किया सोहराब मोदी जी ने। कहानी लिखी राजेंद्र सिंह बेदी जी ने। मुख्य भूमिकाएं निभाई भारत भूषण, सुरैया, निगार सुल्ताना, दुर्गा खोटे, मुकरी, मुराद, उल्हास व कुमकुम जी ने। अखिल भारतीय सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने सुरैया जी के ग़ज़ल गायन और उनके अभिनय की विशेष रूप से सराहना की।

सँगीत रचना ग़ुलाम मोहम्मद साहब व गायन सुरैय्या जी, रफ़ी साहब व तलत महमूद जी का। गीत इस प्रकार थे...

1. दिल ए नादान तुझे हुआ क्या है आखिर इस दर्द की दवा क्या है?
2. कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज ए बयां और
3. रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई ना हो
4. नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उसको सुनाये ना बने
5. ये ना थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
6. आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
7. इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही, मेरी वहशत तेरी शौहरत ही सही
8. फिर मुझे दीद-ए-तर याद आया
9. गंगा की रेती पे बंगला छवाय दे, सैंया तेरी खैर होगी
10. हमने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन, ख़ाक हो जाएंगे हम तुझको ख़बर होने तक
11. सज़दे में है सर, तुझपर है नज़र, शिकवे भी जुबां तक आ पहुंचे

मन्नाडे

आज 24 अक्टूबर को, *बॉलीवुड के सर्वश्रेष्ठ भारतीय शास्त्रीय संगीत के फिल्मी नग़मे गाने वाले लोकप्रिय गायक,दिवंगत मन्नाडे जी* की पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते है।

उनके विषय मे एक संक्षिप्त विवरण पेश है।

*मन्नाडे-फिल्मी शास्त्रीय संगीत के महान गायक*
*लेखक व संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

1)- *मुलनाम-प्रबोध कुमार डे (मन्नाडे-फिल्मी नाम)*
2)- *जन्म-1 मई 1919,कलकत्ता,बंगाल प्रोविंस,ब्रिटिश इंडिया*
3)- *मृत्यु-24 अक्टूबर 2013,बेंगलौर, कर्नाटक*
4)- *पिता-पूरनचंद डे*
5)- *माँ-महामाया डे*
6)- *चाचा-के.सी.डे (कृष्ण चंद्र डे) महान गायक*
7)- *संगीत घराना-भिंडी बाजार घराना*
8)- *गुरु-अमन अली खान साहब*
9)- *मूलतः शास्त्रीय संगीत के फिल्मी गायक*
10)- *अन्य विशेषता-हार्मोनियम,तबला,सितार,तानपुरा वादक*
11)- *प्रथम फ़िल्म-तमन्ना 1942*
12)- *प्रथम गाना-जागो भाई उषा पोंछी बोल गाने में के सी डे के साथ गायन*
13)- *प्रथम सोलो गीत-फ़िल्म रामराज्य 1943 में गयी गयी गयी सीता सती*
14)- *फिल्मी गायन में सक्रियता-1942 से 2013 तक*
15)- *अवार्ड-सम्मान* ....

१)- *पद्मश्री-1971*
२)- *पद्म भूषण-2005*
३)- *पद्म विभूषण-2012*
४)- *दादा साहब फाल्के पुरस्कार-2012*
५)- *फ्रांस सरकार से-ordere des arts at des letter-1965*

16)- *प्रमुख सदाबहार फिल्मी नग़मे* ....

*दिवंगत मन्नाडे जी के सदाबहार नग़मे*
*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*
१)- *ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन,तुझ पे दिल कुर्बान-काबुलीवाला* 
२)- *लागा चुनरी में दाग़ छुपाऊँ कैसे,घर जाऊँ कैसे-दिल ही तो है*
३)- *कस्मे वादे प्यार वफ़ा,सब बातें है,बातों का क्या-उपकार*
४)- *सुर ना सजे क्या गाउँ मैं,सुर के बिना जीवन सुना-बसंत बहार*
५)- *तू प्यार का साग़र है तेरी इक बूंद के प्यासे हम-सीमा*
६)- *न तो कारवाँ की तलाश है न तो रहगुज़र की तलाश है-बरसात की रात,में साथ रफ़ी,आशा व सुधा मल्होत्रा*
७)- *तुम बिन जीवन जैसा कैसा ये जीवन-बावर्ची*
८)- *ऐ मेरी जोहरा जबीं तुझे मालूम नहीं,तू अभी तक है हसीं-वक्त*
९)- *ऐ मालिक तेरे बंदे हम,ऐसे हो हमारे करम, नेकी पर चले,और बदी से हटे,ताकि हंसते हुए निकले दम-नवरंग, में साथ आशा*
१०)- *ठहर ज़रा ओ जाने वाले,इंग्लिश मिस्टर भोले भाले,हम मतवाले पॉलिश वाले-बूट पॉलिश,में साथ आशा व मधुबाला ज़वेरी*
११)- *आजा सनम मधुर चाँदनी में हम तुम मिले तो आ जायेगी बहार-चोरी चोरी,में साथ लता*
१२)- *प्यार हुआ इक़रार हुआ है,प्यार से फिर क्यों डरता है दिल-श्री 420,में साथ लता*
१३)- *दिल का हाल सुने दिलवाला,सीधी सी बात न मिर्च मसाला,कहके रहेगा कहने वाला-श्री 420*
१४)- *ये रात भीगी-भीगी,ये मस्त नज़ारे,ये चाँद प्यारा प्यारा-चोरी चोरी,में साथ लता*
१५)- *जहाँ मैं जाती हूँ,वहीं चले आते हो,चोरी-चोरी मेरे दिल को सताते हो,ये तो बताओ के तुम,मेरे कौन हो-चोरी चोरी,में साथ लता*
१६)- *तू छुपी है कहाँ,मैं तड़पता यहाँ-नवरंग,में साथ आशा*
१७)- *नैन मिले चैन कहाँ दिल है वहीं तू है जहाँ,ये क्या किया दुनिया वाले-बसंत बहार,में साथ लता*
१८)- *पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई-मेरी सूरत तेरी आँखे,में एकल*
१९)- *जीवन से लंबे है बंधु,ये जीवन के रस्ते-आशीर्वाद*
२०)- *झूमता मौसम मस्त महीना,काली जुल्फे,रँग सुनहरा-उजाला* 
२१)- *नाइंटीन फिफ्टी सिक्स,नाइंटीन फिफ्टी सेवन,नाइंटीन फिफ्टी एट,दुनिया का ढांचा बदला-अनाड़ी,में साथ लता*
२२)- *ये इश्क़ इश्क़ है इश्क़ इश्क़-बरसात की रात,में साथ रफ़ी,एस डी बातिश व सुधा मल्होत्रा*
२३)- *झनक झनक तोरी बाजे पायलिया,प्रीत के गीत सुनाए पायलिया-मेरे हुजूर*
२४)- *छम छम बाजे रे पायलिया-जाने अनजाने*
२५)- *ऐ भंजना सुन वंदना तू हमारी,दरस तेरे चाहे तेरा ये पुजारी-बसंत बहार*
----- *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----
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भाग-2
*दिवंगत मन्नाडे जी के सदाबहार नग़मे*
*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

२६)- *छम छम,लो सुनो छम छम,तारों की बारात चली,झूमती व गाती चली-उजाला,में साथ लता*
२७)- *है आग हमारे सीने में,हम भी है तुम भी हो,दोनों है आमने सामने-जिस देश मे गंगा बहती है,में साथ लता, मुकेश,महेंद्र कपूर व गीतादत्त*
२८)- *शाम ढले जमुना किनारे,किनारे,आजा गोरी आजा तुझे श्याम पुकारे-पुष्पांजलि*
२९)- *यशोमति मैय्या से पूछे नंदलाला,राधा क्यों गोरी कृष्ण क्यों काला-सत्यम शिवम सुंदरम,में साथ लता*
३०)- *ऐ भाई ज़रा देख के चलो,आगे भी नहीं पीछे भी,ऊपर ही नहीं नीचे भी-मेरा नाम जोकर*
३१)- *मस्ती भरा है समाँ,हम तुम दोनों जवाँ-परवरिश,में साथ लता*
३२)- *ओ मामा ओ मामा ओ मामा मामा मामा-परवरिश,में साथ रफ़ी*
३३)- *इंसान का इंसान से हो भाई चारा,यही पैग़ाम हमारा-पैग़ाम*
३४)- *धरती कहे पुकार के,गीत गा ले प्यार के,मौसम मतवाला-दो बीघा जमीन*
३५)- *ये कहानी है दीये की और तूफान की-तूफान और दीया*
३६)- *मेरे जीवन मे किरण बनके बिखरने वाले,बोलो तुम कौन हो,बोलो तुम कौन हो-तलाक,में साथ आशा*
३७)- *तू है या नहीं भगवान,तू है या नहीं भगवान,कभी होता यकीं कभी होता भरम,बड़ी मुश्किल में है इंसान-जनम जनम के फेरे,में साथ रफ़ी व लता*
३८)- *हो उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा-दो आँखे बारह हाथ,में साथ लता*
३९)- *यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी-जँजीर*
४०)- *जिसका कोई नहीं उसका तो ख़ुदा है यारो-लावारिस*
४१)- *ओ नदिया चले चले रे धारा,तुझको चलना होगा,तुझको चलना होगा-सफ़र* *
४२)- *जिंदगी कैसी है पहेली हाये,कभी तो ये हँसाये कभी ये रुलाये-आनंद*
४३)- *तुझे सूरज कहूँ या चंदा,तुझे दीपक कहूँ या-एक फूल दो माली*
४४)- *फूल गेंदवा न मारो,लगत करजवा में ठेस-दूज का चाँद*
४५)- *पर्दा उठे सलाम हो जाये-दिल ही तो है,में साथ आशा*
४६)- *कौन आया मेरे मन के द्वारे,पायल की झंकार लिए-देख कबीरा रोया*
४७)- *बता दो कोई कौन गली गए श्याम-मधु*
४८)- *चाँदी सा बदन सोने की नज़र,उसपे ये क़यामत क्या कहिये-ताजमहल,में साथ रफ़ी,आशा व मीना कपूर*
४९)- *ढूंढ के लाऊँ कहाँ से मैं-बहु बेग़म,में साथ ऱफी व आशा*
५०)- *ऐ दोस्त मैंने नई नई दुनिया देखी है,अपनी नज़र से तेरी नज़र दे देखी है-सच्चाई,में साथ ऱफी*
----- *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----
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भाग-3
*दिवंगत मन्नाडे जी के सदाबहार नग़मे*
*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

५१)- *जीवन चलने का नाम चलते रहो, सुबहो शाम-शोर,में साथ महेंद्र कपूर व श्यामा चित्रा*
५२)- *ना माँगु सोना चाँदी,ना माँगु घोड़ा हाथी,ये मेरे किस काम के-बॉबी,में साथ लता*
५३)- *हो कह गए फादर अब्राहिम-इज्जत*
५४)- *ये हवा ये नदी का किनारा,कह रहा है प्यार कर-घर सँसार,में साथ आशा*
५५)- *मिलते ही नज़र तुमसे,हम हो गए दीवाने,आगाज़ तो अच्छा है,अंजाम ख़ुदा जाने-उस्तादों के उस्ताद* *साथ रफ़ी व आशा*
५६)- *आयो कहाँ से घनश्याम,हाय रे आयो कहाँ से घनश्याम-बुड्ढा मिल गया* 
५७)- *एक चतुर नार बड़ी होशियार,अपने ही जाल में फ़सत जात,हम मरत जात,अरे हे हे हे हो-पड़ोसन,में साथ किशोर व महमूद*
५८)- *वाँग वाँग साँवरिया साँवरिया-पड़ोसन*
५९)- *खाली डिब्बा खाली बोतल,ले ले मेरे यार-नीलकमल*
६०)- *प्यार की आग में तनबदन जल गया,फिर क्यों सताती है दुनिया मुझे-जिद्दी*
६१)- *बच्चे में है भगवान,बच्चा ही जग की शान-नन्हा फ़रिश्ता,में साथ रफ़ी व किशोर*
६२)- *कौन है वो कौन है मुझे किसने बुलाया-वारिस,में साथ आशा*
६३)- *होली रे होली,रँगों की टोली-पराया धन* 
६४)- *ताक़त वतन की हमसे है,इज्जत वतन की हमसे है,हिम्मत वतन की हमसे है,इंसाफ़ के हम रखवाले-प्रेम पुजारी*
६५)- *हिंदुस्तान की कसम,हो हो,हर जवान की क़सम,न झुकेगा सर वतन का हर जवान की क़सम-हिंदुस्तान की कसम,में साथ रफ़ी*
६६)- *हर तरफ़ अब यही अफ़साने है,हम तेरी आँखों के दीवाने है-हिंदुस्तान की क़सम*
६७)- *हरियाला सावन ढोल बजाता आया-दो बीघा जमीन,में साथ लता*
६८)- *हँसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है-अविष्कार*
६९)- *होके मजबूर मुझे,उसने भुलाया होगा,जहर चुपके से दवा समझ के खाया होगा-हक़ीक़त,में साथ रफ़ी, तलत,भूपिंदर*
७०)- *ऊपर गगन विशाल,नीचे गहरा पाताल-मशाल*
७१)- *बिगुल बज रहा आज़ादी का,गगन गूँजते नारो से,बच के रहना छुपे है घर के गद्दारों से-तलाक़*
७२)- *चुंदरिया कटती जाए रे,उमरिया कटती जाए रे-मदर इंडिया*
७३)- *दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे-नरसी भगत,में साथ हेमंत*
७४)- *दिल की गिरह खोल दो चुप न बैठो कोई गीत गाओ-रात और दिन,में साथ लता*
७५)- *दिलरुबा दिल्ली वाली-दस नम्बरी,में साथ आशा व मुकेश*
------ *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----
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भाग-4
*दिवंगत मन्नाडे जी के सदाबहार नग़मे*
*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

७६)- *दुख भरे दिन बीते रे भैय्या,अब सुख आयो रे,रँग जीवन मे नया लायो रे-मदर इंडिया,में साथ रफ़ी,आशा व शमशाद बेग़म*
७७)- *इक ऋतु आये इक ऋतु जाए-सौ साल बाद,में साथ लता*
७८)- *गुरुर ब्रम्ह,गुरुर विष्णु,गुरुर देवो महेश्वरा-झनक झनक पायल बाजे,में साथ लता*
७९)- *आन मिलो आन मिलो श्याम साँवरे आन मिलो-देवदास,में साथ गीतादत्त*
८०)- *आयी आयी बसंती बेला-अंगुलीमाल,में साथ लता*
८१)- *अब कहाँ जाए हम,बता ऐ जमीं आसमाँ-उजाला*
८२)- *अभिज्ञान शाकुंतलम,सुंदर अभिनय कला-कवि कालिदास,में साथ आशा*
८३)- *अल्ला अल्ला मैं अब्दुल्ला-अलादीन और जादुई चिराग़,में साथ आशा*
८४)- *अँखियाँ न चुरा ओ बालमा-आमने सामने,में साथ शमी*
८५)- *अपने लिए जिये तो क्या जिये,तू जी ऐ दिल ज़माने के लिए-बादल*
८६)- *बाबू,समझो इशारे,होरन पुकारे-चलती का नाम गाड़ी,में साथ किशोर*
८७)- *चली राधा रानी पनिया भरण को-परिणीता*
८८)- *मैं इधर जाऊँ या उधर जाऊँ,बड़ी मुश्किल में हूँ,मैं किधर जाऊँ-पालकी,में साथ रफ़ी व आशा*
८९)- *मेरे घर से प्यार की पालकी चली गयी-पालकी,में साथ रफ़ी व आशा*
९०)- *ओ माँझी रे-सौदागर*
९१)- *महफ़िल में आये हो,आपका दिल-एजेंट विनोद,में साथ आशा*
९२)- *मेरे मन की धड़कन में कोई नाँचे-हमदर्द* 
९३)- *मज़लूम किसी के कौम के-आंदोलन*
९४)- *मेरे दिल मे है इक बात-पोस्ट बॉक्स नम्बर 999,में साथ लता*
९५)- *मेरे मेहबूब मुझको तू इतना बता,मैं कुँवारा मरूँगा या शादीशुदा-हसीना मान जाएगी,में साथ आशा*
९६)- *मुँह से मत लगा,चीज़ है बुरी-जॉनी वॉकर,में साथ रफ़ी*
९७)- *मुस्लिम को तस्लीम अर्ज है हिंदू को परनाम,मैं हूँ प्यारे हज्जाम-दो कलियाँ,साथ महमूद*
९८)- *पँछी रे उड़े गगन गगन-राहगीर,में साथ हेमंत व सुलक्षणा पंडित*
९९)- *फिर तुम्हारी याद आएगी सनम गी सनम,हम न भूलेंगे तुम्हे अल्ला क़सम-रुस्तम ए सोहराब,में साथ रफ़ी*
१००)- *फिर कहीं कोई फूल खिला,चाहत न कहो उसको-अनुभव*
------ *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* ------
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भाग-5
*दिवंगत मन्नाडे जी के सदाबहार नग़मे*
*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

१०१)- *तेरे नैना तलाश करें जिसे-तलाश*
१०२)- *तुझको रक्खे राम तुझको अल्ला रक्खे,दे दाता के राम तुझको अल्ला रक्खे-आँखे,में साथ आशा व महमूद*
१०३)- *तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो-अनुरोध*
१०४)- *राम नाम से सबके मन मे-वाल्मीकि*
१०५)- *प्यास थी फिर भी तकाज़ा न किया-आलिंगन*
१०६)- *सोचा था मैंने तो ऐ जान मेरी-चाँदी सोना,में साथ आशा व किशोर*
१०७)- *सुन ले प्यार के दुश्मन दुनिया-प्यार किये जा,में साथ किशोर,लता व आशा*
१०८)- *तेरे जीवन का है कर्मों से नाता-कर्मयोगी* 
१०९)- *दीवारों का जँगल,जिसका आबादी है नाम-दीवार*
११०)- *गोरी तोरी पैजनियाँ-मेहबूबा*
१११)- *हो तुमने ये ठीक सोचा है-ईमान* 
११२)- *ज़रा तो आँखे देखो मिलाके-तलाक़,में साथ आशा*
११३)- *जाने वाले सिपाही से पूछो-उसने कहा था*
११४)- *जैसी करनी वैसी भरनी-कर्मयोगी*
११५)- *है जिन्दड़ी-विश्वनाथ*
११६)- *दिलवाले,तेरा नाम क्या है-क्रांति,में साथ लता,महेंद्र कपूर,नितिन मुकेश व शैलेंद्र सिंह*
११७)- *अब मेरी बारी आयी ज़िगर थाम लो-सम्राट,में साथ रफ़ी व लता*
११८)- *बेलिया बेलिया बेलियाँ-परवरिश,में साथ लता*
११९)- *बुद्धम शरणम गच्छामि-अंगुलीमाल,में साथ आशा*
१२०)- *चाहे जिंदगी से कितना ही भाग रे-शारदा*
१२१)- *बड़े आये शिकारी शिकार करने-अंगुलीमाल,में साथ आशा*
१२२)- *चुप जमीं आसमाँ,कह सके ना ये जुबां-दो दोस्त*
१२३)- *दुल्हन बनूँगी डोली चढ़ूँगी-वो जो हसीना,में साथ लता*
१२४)- *एक ज़ानिब शम्मे महफ़िल-अभिलाषा,में साथ रफ़ी*
१२५)- *एक समय पर दो बरसाते-झूला*
------ *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----
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भाग-6
*दिवंगत मन्नाडे जी के सदाबहार नग़मे*
*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

१२६)- *गया उजाला सूरज-आकाश दीप*
१२७)- *गंगा और जमुना की गहराई है धरती-दो बीघा जमीन,में साथ लता*
१२८)- *हाय कुछ भी नहीं ओ माय डार्लिंग-आख़री ख़त*
१२९)- *हम,छुपे रुस्तम है-छुपा रुस्तम*
१३०)- *हाथ मेरे मधु का प्याला-आरोप*
१३१)- *जय अम्बे जय जय जग दम्बे-अमर सिँह राठौर*
१३२)- *जवानी का गुज़रा ज़माना-वक्त की दीवार*
१३३)- *कान्हा बोले ना-सँग,में साथ लता*
१३४)- *बहुत दिन हुए तारों के देश मे-अनुराधा,में साथ लता*
१३५)- *चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए रे-बहारो के सपने,में साथ लता*
१३६)- *लपक झपक तू आ रे बदरवा-बूट पॉलिश*
१३७)- *जिनके पास हाथी घोड़ा, उनका दिल है छोटा-दिल का राजा,में साथ रफ़ी आशा*
१३८)- *जोड़ी हमारी,जमेगी जैसे जानी,हम तो है अंग्रेज़ी,तुम लड़की हिंदुस्तानी-औलाद,में साथ आशा*
१३९)- *कभी तुम भोली भाली सिस्टर,दोस्त नहीं कोई तेरे जैसा मिस्टर-खामोशी* 
१४०)- *मेरी भैंस को डंडा क्यों मारा,तेरे बाप का वो क्या करती थी-पगला कहीं का*
१४१)- *लल्ला,अल्ला तेरा निगेहबान-अब्दुल्ला*
१४२)- *क्या भई अपलम,हाँ भई चपलम-अपलम चपलम,में साथ रफ़ी*
१४३)- *कोई न जाने बिन तेरे राम- माँ और ममता*
१४४)- *दुनिया ने तो मुझको छोड़ दिया-शारदा*
१४५)- *हमारी ही मुट्ठी में आकाश सारा-प्रहार,में साथ कविता*
१४६)- *बलमा मोरा अँचारा महके रे-सँगत,में साथ लता*
१४७)- *दुनिया वालों की नहीं कुछ भी ख़बर-उमर कैद,में साथ कविता,सोनू निगम,शबाब काबरी*
१४८)- *क्या हमने सोचा था-ओ तेरा क्या कहना*
१४९)- *कन्हैया ओ कन्हैया-राजा और रँक,में साथ लता व विनोद शर्मा*
१५०)- *कली अनार की न इतना सताओ-छोटी बहन,में साथ आशा*
------ *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----
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भाग-7
*दिवंगत मन्नाडे जी के सदाबहार नग़मे*
*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

१५१)- *काँटों के साये में फूलों का घर है-वल्लाह क्या बात है* 
१५२)- *कैसी तूने रीत रची भगवान-ऊँचे लोग,में साथ आशा*
१५३)- *कच्ची कली कचनार की, कच कच कच्ची कली कचनार की- हँगामा,में साथ आशा*
१५४)- *कबसे नज़र ढूँढे-वक्त वक्त की बात,में साथ लता*
१५५)- *मैं हूँ कौन ये तुझको नहीं है पता-अहिंसा,में साथ रफ़ी*
१५६)- *मेरे लाल,तुम तो हमेशा थे-अविष्कार*
१५७)- *मुरली मनोहर कृष्ण कन्हैया-झनक झनक पायल बाजे, में साथ लता*
१५८)- *ना तेल ना बाती-एक के बाद एक*
१५९)- *नसीब होगा मेहरबान मेरा कभी न कभी-फोर्टी डेज,में साथ आशा*
१६०)- *साजन की हो गयी,मैं साजन की हो गयी-देवदास,में साथ गीतादत्त*
१६१)- *सुनो सुनो हे नर नारी-आगे बढ़ो*
१६२)- *सुनी पिता की आज्ञा-अमर सिंह राठौर*
१६३)- *रात खुशी की आई- बाबला*
१६४)- *ऋतु आये ऋतु जाए सखी री-हमदर्द,में साथ लता*
१६५)- *सावन की घटाओ धीरे धीरे आना-आगे बढ़ो,में साथ खुर्शीद*
१६६)- *तुम कहो और हम सुने-चोर पुलिस,में साथ आशा,सुरेश वाडकर व विनीता मिश्रा*
१६७)- *उलझन हज़ार कोई डाले- चाँदी सोना,में साथ किशोर व आशा*
१६८)- *साँझ ढली दिल की लगी- काला बाज़ार,में साथ आशा*
१६९)- *ये दिन दिन है खुशी के- जबसे तुम्हे देखा है,में साथ सुमन कल्याणपुर*
१७०)- *ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे, तोड़ेंगे दम मगर साथ न छोड़ेंगे- शोले,में साथ किशोर*
१७१)- *टूट गया मेरा सपना सुहाना-आरोप*
१७२)- *उड़ जा भँवर माया कमल का आज बंधन तोड़ के-रानी रूपमती*
१७३)- *नए नए रागों से लिखती- कवि कालिदास,में साथ गीतादत्त*
१७४)- *ओ मेरी मैना तू सुन ले मेरा कहना,अरे मुश्किल हो गया जीना तेरे बिना-प्यार किये जा*
१७५)- *तन के तम्बूरे में दो साँसों के तार बोले-जनम जनम के फेरे* 
------ *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----
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भाग-8
*दिवंगत मन्नाडे जी के सदाबहार नग़मे*
*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

१७६)- *रँग बिरंगी फूलों की झूमे रे डलियां-जनम जनम के फेरे,में साथ गीतादत्त*
१७७)- *मितवा लौट आये मेरे- संगीत सम्राट तानसेन*
१७८)- *सुध बिसर गयी आज अपने गुनन की-संगीत सम्राट तानसेन,में साथ रफ़ी*
१७९)- *सप्त सूरत तीन ग्राम, ऊँचास कोटि तान-संगीत सम्राट तानसेन*
१८०)- *उसको नहीं देखा हमने कभी,पर इसकी ज़रूरत क्या होगी,क्या होगी,ऐ माँ तेरी सूरत से हसीं भगवान की सूरत क्या होगी- दादी माँ,में साथ महेंद्र कपूर*
१८१)- *राग भैरव प्रथम शांत रस जाके-संगीत सम्राट तानसेन*
१८२)- *मैं पंडित तू पठान,एक दूजे पे कुर्बान-पंडित और पठान,में साथ रफ़ी*
१८३)- *बम बम भोले,खिला दे भांग के गोले-पंडित और पठान,में  साथ आशा*
१८४)- *फटाफट जाम पिला दें- फ़ौजी,में साथ नरेंद्र चंचल, आशा, मीनू पुरुषोत्तम व कुमार सोनिक*
१८५)- *आग पे रखकर हाथ- फ़ौजी,में साथ रफ़ी व कुमार सोनिक*
१८६)- *खुशहाल जी खुशहाल-दो चट्टाने,में साथ रफ़ी*
१८७)- *आटा नहीं चावल नहीं-दो चट्टाने,में साथ रफ़ी*
१८८)- *तेरा प्यार ख़ुदा ना हो मुझसे जुदा-दो चट्टानें,में साथ रफ़ी*
१८९)- *हमने जलवा दिखाया तो मर जाओगे-दिल ने फिर याद किया,में साथ आशा*
१९०)- *अल्ला मेरी झोली में छम से चले आओ-शबनम,में साथ रफ़ी व उषा खन्ना*
१९१)- *बोलो ये दिल का इशारा, आँखों ने मिल के पुकारा-संतान,में साथ लता*
१९२)- *ये दिल फ़रेब सूरत-एक सपेरा एक लुटेरा,में साथ उषा खन्ना*
१९३)- *प्यार भरी घटाए-कैदी नम्बर 911,में साथ लता*
१९४)- *ये नशीली दवा छा रहा है नशा-नीली आँखे* 
१९५)- *तख़्त होगा न ताज होगा, कल था पर आज न होगा- आज और कल,में साथ रफ़ी व गीतादत्त*
१९६)- *देखो रे हुआ लहुँ से लहुँ जुदा,दोनों टुकड़े एक ही बिल के-मेला*
१९७)- *भुस भर दिया मेरी चाहत में-अमानत,में साथ रफ़ी*
१९८)- *सायकल पे हसीनो की टोली-अमानत,में साथ रफ़ी व आशा*
१९९)- *बताए राखी का व्यवहार- पंडित और पठान,में साथ रफ़ी*
२००)- *वर्दी में है भगवान-फ़ौजी,में साथ रफ़ी,आशा व मीनू पुरुषोत्तम*
------ *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----
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भाग-9
*दिवंगत मन्नाडे जी के सदाबहार नग़मे*
*संकलनकर्ता-संतोष कुमार मस्के*

२०१)- *वाकिफ़ हूँ ख़ूब,इश्क़ के तर्जे-बयां से मैं-बहु बेग़म,में साथ रफ़ी*
२०२)- *लागी मनवा के बीच कटार के मारा गया ब्रम्हचारी-चित्रलेखा* 
२०३)- *भगत के बस में-शबाब*
२०४)- *चमत्कार प्रभु ने किया- किसान और भगवान*
२०५)- *हो नाचो नाचो सुंदर बाला- किसान और भगवान,में साथ मीनू पुरुषोत्तम*
२०६)- *क्या इंसान क्या भगवान- किसान और भगवान*
२०७)- *तेरे बनेंगे बिगड़े काम,हो सुन भाई आत्माराम-आँगन*
२०८)- *मोहे बावला बना गए वाकी बतियाँ-चित्रलेखा*
२०९)- *सुबह चले शाम चले जिंदगी का काफ़िला -दास्तान ए लैला मजनूँ*
२१०)- *कहने वाले तू भी कह ले अपने मन की बात,कव्वाली की रात है कव्वाली की रात-कव्वाली की रात,में साथ रफ़ी व बलबीर*
२११)- *A फ़ॉर एप्पल B फ़ॉर बेबी, C फ़ॉर केमल D फ़ॉर डैडी-साधु और शैतान,में साथ आशा*
२१२)- *मेरे दिल मे है एक बात,कह दूँ तो भला क्या है-पोस्ट बॉक्स नम्बर 999,में साथ लता*
२१३)- *प्यार के बुखार को उतार मेरे मनवा-इज्जत*
२१४)- *आँखे शराब की-मन की आँखे*
२१५)- *जोगी आया लेके संदेशा भगवान का-पोस्ट बॉक्स नम्बर 999*
२१६)- *हम जां लड़ा देंगे- पाकेटमार*
२१७)- *उई क्या हुआ,हो गया- पॉकेटमार,में साथ आशा*
२१८)- *कहत कबीर सुनो भई साधो,बात कहूँ मैं खरी,के दुनिया एक नम्बरी तो मैं दस नम्बरी-दस नम्बरी,में साथ मुकेश व आशा*
२१९)- *राधा मोहन श्याम शोभन- सत्यम शिवम सुंदरम*
२२०)- *कतल हुआ नजरों का पाला मेरा-मेरी भाभी*
२२१)- *अलबेली नार प्रीतम द्वारे-मैं शादी करने चला*
२२२)- *ओ पैसे तू भगवान नहीं-मैं शादी करने चला,में साथ रफ़ी*
२२३)- *है बहुत दिनों की बात,था एक मजनूँ और एक लैला-भाभी,में साथ रफ़ी*
२२४)- *ओ हसीनो के जलवे परेशान रहते,अगर तुम न होते अगर तुम न होते-बाबर,में साथ रफ़ी,आशा व सुधा मल्होत्रा*
२२५)- *हम भी अगर बच्चे होते नाम हमारा होता बबलू रे गबलु, खाने को मिलते लड्डू,और दुनिया कहती हैप्पी बर्थडे टू मी-दूर की आवा,में साथ रफ़ी व आशा*
----- *संतोष कुमार मस्के-संकलन से* -----
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तू संगीत का सागर है, तेरी इक गीत के प्यासे हम

तू संगीत का सागर है, तेरी इक गीत के प्यासे हम ...

मन्ना डे का असली नाम 'प्रबोध चन्द्र डे' था। १ मई १९१९ को जन्मे मन्ना दा ने हिन्दी और बंगाली के अलावा गुजराती, मराठी, मलयालम, कन्नड़, असमिया, भोजपुरी, अवधी, पंजाबी, मैथिली, कोंकणी, सिंधी और छत्तीसगढ़ी में पार्श्वगायन किया है। १९४२ में आई फ़िल्म ‘तमन्ना’ से उन्होंने अपने पार्श्वगायन का आग़ाज़ किया था। उन्होंने करीब चार हजार गीतों को स्वर दिया। पद्मश्री, पद्मभूषण और दादा साहेब फाल्के जैसे उच्चतम सम्मान पा चुके मन्ना दा किसी गाथा से कम नहीं।

आज उनकी पुण्यतिथि (२४ अक्टूबर २०१३) पर उन्हें याद करते हुए उनका एक इंटरव्यू जो २००३ में 'लिटिल इंडिया डॉट कॉम' द्वारा लिया गया था। उसका हिंदी अनुवाद साभार आप सब के लिए ~

● बड़े होने और संगीत की आपकी शुरुआती स्मृतियाँ कैसी हैं?

~ अपने शुरुआती दिनों में अपने विख्यात चाचा के.सी. डे से संगीत मुझे विरासत में मिला। लेकिन मेरी १३ वर्ष की आयु में वे अपनी दृष्टि गँवा बैठे और अपने जीवनयापन के लिए संगीत का सहारा लेने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं बचा। परिवार में किसी और का रुझान संगीत की तरफ नहीं था। उन्होंने अपना सारा अर्जित ज्ञान मुझे और मेरे स्वर्गीय भाई को दिया। इसके अलावा अलाउद्दीन खान साहब, स्वर्गीय विलायत खान के पिता इनायत खान जैसे और कई संगीतकार हमारे चाचा के समकालीन थे और हमारे घर आते रहते थे। जिनसे बहुत कुछ सीखने को मिला।

● हालांकि आप के पास भी क्लासिकल संगीत की अथाह रेंज है आप ख़ुद सुगम संगीत को ज़्यादा पसंद करते हैं।

~ एक मज़बूत बुनियाद के लिए क्लासिकल की ट्रेनिंग ज़रूरी है लेकिन ईमानदारी से कहूं तो मैं शास्त्रीय गायन के लिए बना ही नहीं था। मेरी इस तथ्य में ज़्यादा रूचि नहीं कि आप बैठकर एक ही राग को दो-तीन घंटों तक गाते रहें। उसमें बहुत दोहराव होता है और श्रोताओं के धैर्य की खासी परीक्षा हो जाती है। के. सी. डे मेरे जीवन पर प्रभाव डालने वाले पहले व्यक्ति थे और बिलकुल शुरुआत से मेरी गायन शैली उन्हीं के गायन पर ढली है। ऐसा लगता है कि चीज़ों को समझ लेने की मेरी क्षमता भी ठीक ठाक थी और उनके बजाए पीसेज को मैं टेबल पर जस का तस दोहरा सकता था और वैसे ही ग़ा भी लेता था। मेरे चाचा अपने दोस्तों को लेकर बड़े सतर्क रहते थे और चाहते थे कि मैं भी वैसा ही बनूँ। वे नहीं चाहते थे कि मैं रुचिहीन लोगों के साथ उठूं-बैठूं। अच्छा प्रभाव और सम्पूर्ण मित्रताएं बहुत ज़रूरी होती थीं और मैं आज तक इस बात का अनुसरण करता हूँ।

● आपने कलकत्ता छोड़ा और गायन के क्षेत्र में हाथ  आजमाने बंबई चले गए। कैसी रही वह यात्रा?

~ कलकत्ते का संगीत मुझे परेशान करने लगा था। वहां रविंद्र संगीत के अलावा कुछ था ही नहीं सो मैंने बंबई जाने का फ़ैसला किया अलबत्ता मुझे नहीं पता था कि यह सब इतना मुश्किल होगा। पहली बात तो यह थी कि बंगाली होने के नाते मैं एक बाहरी आदमी था और मुझे इस तरह के कमेंट्स सुनने को मिलते थे कि अरे बंगाली बाबू वापस बंगाल जाओ, अपने रसगुल्ले खाओ और वहीं रहो। मैं अपने चाचा के साथ गया था सो चीज़ें उतनी दुश्वार नहीं थीं। मैंने पांच साल तक उनके असिस्टेंट का काम किया और उस ज़माने के हिसाब से मुझे ५०० रूपये का अच्छा खासा वेतन मिलता था।

२२-२३ की आयु में मुझे अपना पहला ब्रेक मिला जब मैंने फ़िल्म ‘रामराज्य’ के लिए “ऊपर गगन विशाल” गाया और तुरंत मुझ पर एक धार्मिक गायक का ठप्पा लगा दिया गया। फिर जाने माने फ़िल्म मेकर बिमल रॉय के लिए मैंने “चली राधे रानी अंखियों में पानी” गाया। वह बड़ा हिट हुआ और बिमल रॉय ने पूछा “मन्ना तुमने स्क्रीन पर वह गाना देखा है?” जब मैंने न में जवाब दिया तो वे बोले कि मुझे उसे देखना चाहिए कि उसे देखकर दर्शक किस कदर प्रभावित हो रहे हैं। सो मैंने वैसा ही किया और क्या देखा कि एक कोई बूढा दढ़ियल आदमी उस गीत को ग़ा रहा था। मैं तो ग़ुस्से में पगला ही गया। मैं दोहरी मनः स्थिति में था कि वापस कलकत्ता चला जाऊं या वहीं रहकर संघर्ष करता रहूँ।

● क्या यह सच है कि उन दिनों एक तरह का गिरोह जैसा काम करता था कि संगीत निर्देशक ख़ास गायकों को ही लेते थे और बाकी लोगों को मौका नहीं मिल पाता था?

~ मुझे गिरोहों के बारे में कुछ नहीं मालूम पर स्ट्रगल करने में मुझे कोई बुराई नज़र नहीं आती। मेरे ख़याल से हम सब का अपना-अपना कोटा होता है और ऐसा नहीं है कि संगीत निर्देशकों ने जितना सब कम्पोज़ किया उसे मैंने ही गाया या किसी एक ने। हाँ सबके अपने अपने पसंदीदा गायक होते ही थे। उसे मैं ‘पार्ट ऑफ़ द गेम’ ही मानता हूँ।

● आपने इतने सारे महान संगीत निर्देशकों के साथ गाया है। क्या आप हमारे साथ कुछ यादें साझा करना चाहेंगे?

~ हां, मैंने सभी के लिए गाया। एस. डी. बर्मन अपनी तरह के अकेले थे। मैं उन्हें बचपन से जानता था क्योंकि वे भी मेरे चाचा से संगीत सीखते थे। मैं बर्मन दा से सदा आकर्षित रहता था। मुझे उनकी नाक से गाने की शैली पसंद आती थी और कॉलेज के दिनों में मैं उन्हीं की गाने की शैली की नक़ल किया करता। उनके गाने की शैली टिपिकल पूर्वी बंगाल की थी और उन्होंने हिन्दी गानों में भी उस शैली को नहीं छोड़ा। उनकी आवाज़ बिलकुल अलहदा थी और वे एक ट्रेंडसेटर बने। “वहां कौन है तेरा” को जिस तरह बर्मन दा ने गाया वैसा कोई नहीं गा सकता। वे मुझ से बहुत प्यार करते थे और हम अक्सर साथ साथ टेनिस खेलते थे। वे अक्सर कहते थे कि अगर कोई अपने दिल से किसी गाने को कम्पोज़ करे तो उन कम्पोजीशंस में आत्मा डालने का काम लता मंगेशकर और मन्ना डे ही कर सकते हैं। उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने की बात हमेशा मेरे मन में रहती थी। एक बार उन्होंने ज़िक्र किया था कि मेरे गाए जिन दो गीतों ने उन्हें हिलाकर रख दिया था वो गीत थे “पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई” और ‘काबुलीवाला’ का “ऐ मेरे प्यारे वतन”। इस गाने को सुनने के बाद सलिल चौधरी भी रोने लगे थे।

सलिल मेरे व्यक्तिगत दोस्त थे। वे न सिर्फ़ एक म्यूजिकल जीनियस थे, उनके लिखे गीतों की तब भी बहुत मांग रहती थी और इतने सालों बाद अब भी, हालांकि उन्हें गुज़रे ज़माना बीत चुका। वे सच्चे अर्थों में एक इंटेलेक्चुअल थे। शंकर जयकिशन ने मुझे गाने के लिए शानदार गीत दिए। मैं शंकर के ज़्यादा नज़दीक था और वे सच्चे अर्थों में मेरी आवाज़ के प्रशंसक थे और बीस सालों तक इस जोड़ी ने मुझे ऐसे गाने दिए जो सालों साल सदाबहार बने रहेंगे। मुझे याद है जब भारत भूषण एक स्टार बन चुके थे मोहम्मद रफ़ी उनके सारे गाने गाया करते थे। शंकर ने ‘बैजू बावरा’ के लिए एक सुन्दर गाना रचा जिसे भारत भूषण के भाई शशि भूषण प्रोड्यूस कर रहे थे। जब शशि को पता चला कि गाना मैं गाने वाला हूँ तो उन्होंने इस बात का विरोध किया। वे चाहते थे कि गाना रफ़ी से गवाया जाए। शंकर ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि या तो गाना मन्ना डे गाएगा या वे कोई दूसरा संगीत निर्देशक खोज लें। मेरे “सुर ना सजे” गाने की यह कहानी है, और कहना न होगा गाना ज़बरदस्त हिट हुआ। बाद में जब शशि भूषण ने गाना सुना तो अभिभूत होकर मुझे गले से लगा लिया और बोले कि गाने को मुझ से बेहतर कोई नहीं ग़ा सकता था।

● शंकर ने ही आपको शास्त्रीय गायन के पुरोधा भीमसेन जोशी के साथ “केतकी गुलाब जूही” जैसा डूएट गाने का अवसर दिया था। कितना मुश्किल था वह?

~ भगवान जानता है कितना मुश्किल था। शंकर ने कहा कि मन्ना कमर कस लो अगली कम्पोज़ीशन तुम्हारे जीवन की यादगार  कम्पोज़ीशन बनने वाली है। तुम्हें किसी के साथ एक क्लासिकल डुएट गाना है। किसके साथ गाना है यह नहीं बताया गया। मैंने कहा ठीक है और रियाज़ शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद मुझे बताया गया कि धुन बन चुकी है और मुझे तुरंत स्टूडियो पहुंचना है। वहां जा कर पता लगा कि पंडित भीमसेन जोशी के साथ गाना है। डुएट को नायक और उसके प्रतिद्वंद्वी पर फ़िल्माया जाना था। मुझे नायक के लिए गाना था जिसकी जीत होनी थी। मुझे कंपकंपी छूट गयी और मैंने कहा कि मैं उनके साथ गा कर जीत नहीं सकता। सो मैं घर चला गया और अपनी पत्नी से कहा कि हमें कुछ दिन के लिए कहीं चले जाना चाहिए और तब तक नहीं लौटना चाहिए जब तक कि शंकर जयकिशन किसी और से उस गाने को गवा न लें। मेरी पत्नी ने मुझे हौसला दिया और कहा ऐसी बात तुम सोच भी कैसे सकते हो? और इसके अलावा तुम नायक के लिए गा रहे हो और तुमने उसे जिताना है। गाना बहुत मुश्किल था पर मैंने अपना सारा कुछ उसमें झोंक दिया और बाद में भीमसेन जोशी जी ने मुझसे कहा कि मन्ना साहब आप वाकई बहुत अच्छा गाते हैं। आप क्लासिकल गाना शुरू क्यों नहीं करते? मैं ने उनसे कहा कि मैं उनकी प्रेरक उपस्थिति के कारण शायद वैसा गा सका। बस इस से आगे नहीं! 

अनिल बिस्वास भी मेरे लिए उम्दा कम्पोजीशंस लाए पर असल चुनौती मुझे रोशन से मिली। अगर आप “न तो कारवाँ की तलाश है” सुनेंगे तो शायद समझ सकेंगे मैं क्या कहने की कोशिश कर रहा हूँ। रोशन ने मुझे सावधान करते हुए कहा कि देखो मन्ना, रफ़ी नायक के लिए गा रहे हैं लेकिन तुम उस्ताद के लिए, फर्क नज़र आना चाहिए। जब मैंने आलाप लिया तो ख़ुद रोशन भी भौंचक्के रह गए। बोले तुमने ख़ुद को साबित कर दिखाया है।

ज़्यादातर संगीत निर्देशक तो मुझे कम्प्रोमाइज कर लेने देते थे पर नौशाद साहब बिल्कुल नहीं। या तो उनके बताए तरीके से गाइए या गाइए ही मत! सी. रामचंद्र बहुत नियमबद्ध थे लेकिन उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। उन्होंने मुझे बतलाया कि डिक्शन और उच्चारण कितने महत्वपूर्ण होते हैं। वे किसी भी शब्द को ग़लत उच्चारित होते बर्दाश्त नहीं करते थे। वैसे भी मैं उच्चारण को लेकर बहुत सावधान रहता हूँ और इस बात को आप मेरे क्षेत्रीय गीतों में भी देख सकते हैं लेकिन इस मामले में सी. रामचंद्रन सबसे ज़्यादा मशक्कत करते थे। अनिल बिस्वास ने यह भी कहा था कि आप इकलौते गायक थे जो हर गाने की नोटेशन लेते थे और एक ही टेक में गा भी देते थे और यह भी कि जिन गानों को रफ़ी, किशोर, मुकेश या तलत महमूद ने गाया उन्हें आप भी गा सकते थे लेकिन आपके गाए गानों को लेकर इन गायकों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह उनका बड़प्पन है। वे मुझे काफ़ी पसंद करते थे, लेकिन मैं नहीं मानता कि रफ़ी साहब को कोई छू भी सकता है।

● हमें रफ़ी साहब के बारे में बताइये। बहुत कम लोग जानते हैं कि आपने रफ़ी को एक कोरस से छांट कर बाहर निकाला था और पहला ब्रेक दिलवाया था।

~ रफ़ी मुझसे जूनियर थे और जब मैं लीड सिंगर की जगह गा रहा होता था, कई बार वे कोरस में गाया करते थे। लेकिन बाद में मुझे अहसास हुआ कि उनके भीतर कितना दुर्लभ टेलेंट हैं और यह भी कि किसी भी क्षेत्र में वे अद्वितीय रहेंगे, खासतौर पर फिल्मों की प्लेबैक सिंगिंग में। मेरे मामले में कुछेक गाने अपनी तरह के अलग हैं पर रफ़ी साहब की जहां तक बात है उन्होंने जो कुछ गाया वह अविश्वसनीय था। सच तो यह है कि कई बार मेरे चाचा के. सी. डे कोई धुन बना रहे होते और मैं उन्हें असिस्ट किया करता। एक बार वे ‘जस्टिस’ नाम की फ़िल्म के लिए गाना कम्पोज़ कर रहे थे और मैं उनकी मदद कर रहा था। जब धुन बन गयी उन्होंने कहा कि रफ़ी को बता दो। मैंने कहा क्या बता दो। वे बोले यही कि धुन बन गयी है और उसे गाना गाना है। मैं काफ़ी आहत हुआ और मैंने पूछा क्यों? क्या मैं इसे नहीं गा सकता? चाचा बोले न तुम नहीं गा सकोगे। इसे बस रफ़ी ही गा सकता है। मैंने घमंड पी लिया और रफ़ी को बुलवा लाया। जब रेकॉर्डिंग ख़त्म हुई तो मुझे अहसास हुआ कि वाकई जिस तरह रफ़ी ने उस गीत को गाया वैसा मुझसे नहीं हो सकता था।

● आपको किसके साथ गाने में ज़्यादा मज़ा आया? लता के साथ या आशा के?

~ मैंने जितने डुएट लता के साथ गाये हैं उतने किसी और के साथ नहीं गाए। मुझे लता सबसे पहले अनिल बिस्वास की एक रिहर्सल में मिली थीं। मैंने अटपटे कपडे पहने एक सांवली सी लड़की को वहां स्टूडियो में बैठे देखा। जब मेरी रिहर्सल ख़त्म हुई अनिल ने कहा मन्ना ये ह्रदयनाथ मंगेशकर की बेटी हैं। तुमने इसका गाना सुना है? उसके पिता गुज़र गए थे और उनका वक़्त खराब चल रहा था। मैं उसे सुनने को वहां बैठ गया और उसके गाना शुरू करते ही मेरी समझ में आ गया कि मेरे सामने एक असाधारण प्रतिभा गा रही है।

दोनों ही बहनें अतुलनीय हैं लेकिन आशा बहुत वर्सेटाइल है और उसके साथ गाने का मतलब होता था इम्प्रोम्पटू इम्प्रोवाइज़ेशन करते जाना और एक दूसरे को चुनौती देते हम ऊपर नीचे आगे पीछे होते रहते थे। इसमें बड़ा मजा आता था। लोग कहते हैं कि ये दो बहनें इंडस्ट्री में किसी और को घुसने नहीं देतीं। मैं कहता हूँ कि अगर यह सच भी है तो प्रतिभा और मेहनत के मामले में इन बहनों की बराबरी कौन कर सकता था?

● ऐसा कौन सा गाना है जिसे सुनकर आप अपने आप से कहते हैं कि यह एक विस्मयकारी कम्पोजीशन है और आप उसके साथ न्याय कर पाने में सफल रहे?

~ मनोज कुमार की फ़िल्म ‘उपकार’ का ‘कसमें वादे प्यार वफ़ा’। इसे प्राण पर फिल्माया गया था जो फिल्मों में अक्सर विलेन की भूमिका किया करते थे। यह एक अलग क़िस्म का रोल था जिसने उनके एक्टिंग करियर को पूरी तरह बदल डाला था। उन्होंने मुझे फ़ोन कर कहा कि मन्नाजी मुझे ख़ुद पर एक गाना फिल्माए जाने का पहली बार मौका मिल रहा है। मनोज आपको मेरी भूमिका समझा देंगे। आप कृपा करके गाने को इतना मुश्किल मत गा देना कि स्क्रीन पर उसे दोहरा पाना मेरे लिए आसान न रह जाए। सुबह मनोज और मैंने गाने की रिहर्सल शुरू की। मनोज जी गानों के प्रति बेहद समर्पित शख़्स थे।

● राज कपूर के बारे में क्या ख़याल है? हालांकि अपने अधिकाँश गानों के लिए उन्होंने मुकेश की आवाज़ का इस्तेमाल किया, उनके कुछ यादगार गाने आपने गाए।

~ उनके क़द के फिल्मकारों के साथ काम कर सकना मेरे लिए बड़े फ़ख्र की बात रही। राजकपूर के साथ रेकॉर्ड किया गया हर गाना अपने आप में अविस्मरणीय होता था। उसे श्रेष्ठतम बनाने में वे किसी भी तरह की कोताही नहीं बरतते थे। अक्सर वे एक ढोलक लेकर बैठ जाया करते और कहते चलो मज़े करते हैं। “प्यार हुआ इकरार हुआ” के लिए हम पूरे ओर्केस्ट्रा के साथ रेकॉर्डिंग कर रहे थे और राज जी के आने का इंतज़ार था। वे बहुत लेट थे और तब पहुंचे जब हम पैक अप करने ही वाले थे। वे इतने विनम्र थे कि पैर छू कर लोगों से माफ़ी मांगने लगे, तब चाय का एक दौर चला और हम सब फिर से साथ बैठे। जब हम गा रहे थे राज ने थोड़ी स्पेस दिए जाने का अनुरोध किया और एक छाता माँगा। इस तरह सीन कम्पोज़ हुआ। सुबह से शुरू कर के हम रात के दस बजे तक रिहर्सल करते रहे क्योंकि हम उसमें इस कदर डूबे हुए थे। मुझे याद है जब मैंने ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए “ऐ भाई ज़रा देख के चलो” गाया था और जिसके लिए मुझे फिल्मफेयर अवार्ड मिला, मैं किसी प्रोग्राम के सिलसिले में बाहर था और करीब एक बजे रात लौटा। जैसे ही हमने रिहर्सल शुरू की राज ने, जिनके कान मधुर संगीत को इस कदर पहचानते थे, महसूस किया कि हमें एक वायोलिनिस्ट की ज़रुरत है। पांच वायोलिनिस्ट खोजे गए, और उन्हें ट्रेंड किया गया और हमने रेकॉर्डिंग शुरू की। फ़िल्म बनाने में उन दिनों इस तरह का समर्पण देखने को मिलता था।

● महमूद जी के लिए आपने कुछ विस्मयकारी गाने गाए थे जैसे किशोर के साथ “एक चतुर नार” और “फुल गेंदवा ना मारो”. महमूद एक तरह के अभिनेता बन गए थे, जब फ़िल्में उन्हें केंद्र में रख कर लिखी जाती थीं। उनके साथ गाने का अनुभव कैसा रहा?

~ बेहद शानदार। महमूद मेरे साथ बैठते थे और नोट्स लेते जाते थे और पूछते रहते थे कि मैं कैसे गाता हूँ वगैरह। मुझे गाता हुआ देखकर वे अपनी भंगिमाओं में मेरी आवाज़ की सारी गतियाँ और भावनाएं ले आया करते थे। वे बेहद दयालु और मजेदार इंसान थे।

● लोग आपकी बांग्ला कम्पोज़ीशन्स के बारे में हैरत करते नहीं थकते।

~ मैंने बांग्ला में कोई २५०० गाने गाए हैं और उनमें से करीब ९५% का संगीत भी कम्पोज़ किया है। आप यक़ीन नहीं करेंगे कि पूर्वी बंगाल यानी वर्तमान बंगलादेश के हर घर में मेरी ये रचनाएं मिला करती हैं। वहां जब भी मैं गाता हूँ लोगों को मेरे सारे गाने याद होते हैं। अगर मैं बोल भूल जाता हूँ तो श्रोता उन्हें पूरा करते हैं। मेरा मन कृतज्ञता से भर उठता है। यह मेरी खुशनसीबी है कि इतनी बड़ी तादाद में लोग अब भी मेरे गीतों को प्यार करते हैं। हाल ही में मैंने न्यूयॉर्क में ५००० लोगों के सामने गाया। वह किसी तरह का कोई उत्सव वगैरह था। मैंने आयोजकों से पूछा कि आप मुझसे यहाँ गवाना चाहते हैं जहां लोग शापिंग और खाने में व्यस्त हैं तो वे बोले कि आप को अपने गाने की ताक़त का अन्दाज़ा नहीं है। आप बस शुरू करिए। मैंने गाना शुरू किया और सारे लोग सारे काम छोड़ कर ख़ामोशी से गाना सुनने लगे।

● क्या आपको इस बात से आश्चर्य होता है कि हमारे पास आज भी मन्ना डे का कोई क्लोन नहीं है जबकि कई लोगों ने रफ़ी और किशोर की आवाज़ की नक़ल कर ली है?

~ देखिये, इसमें मेरी कोई गलती नहीं! आवाज़ तो खुदा की देन होती है, और उसे सुधारने के लिए मैंने मेहनत भर की है। मैं आपको बताना चाहूँगा कि हाल ही में मैंने एक मराठी युवा को अपने खासे मुश्किल गानों को गाते सुना  कि मैं दंग रह गया। “लागा चुनरी में दाग” तो उसने इतनी ख़ूबसूरती से गाया कि मैं भी हक्का बक्का बैठा रह गया। मैं समझता हूँ मेरी आवाज़ और मेरी ख़ास शैली ने मुझे अपने लिए एक जगह बना पाने में मदद की और आमतौर पर उसकी नक़ल करना मुश्किल होता होगा।

● आज के संगीत के बारे में आप क्या सोचते हैं? और आपने फिल्मों में गाना बंद क्यों कर दिया है?

~ क्या आज आप एक भी ऐसे कम्पोज़र की तरफ इशारा करके कह सकते हैं कि वह मेरे ज़माने के संगीतकारों के कैलिबर का है या जानता है कि वह कर क्या रहा है? संगीत के क्षेत्र में जो भी हो रहा है वह बेहद अस्वास्थ्यकर है। म्यूजिक वीडियोज़ का कमाल है कि जो चाहे गायक बन सकता है सो यह तो अच्छी बात हुई है चाहे आपको गाना न भी आता हो आप गा सकते हैं। हर कोई गा रहा है। जब “मैं तो सीटी बजा रहा था, भेलपूरी खा रहा था, तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं” जैसे गाने बनने लगें तो आप क्या उम्मीद रख सकते हैं? यहाँ तक कि क्षेत्रीय संगीत भी बॉलीवुड संगीत का क्लोन बनता जा रहा है। मैं समझता हूँ कि आमिर खान और यश चोपड़ा के अलावा मुझे कोई भी ऐसी फ़िल्में बनाता नज़र नहीं आ रहा जिनके लिए अच्छे संगीत की ज़रुरत हो। गायकों के तौर पर मुझे सोनू निगम, अलका याग्निक और सुनिधि चौहान अच्छे लगते हैं लेकिन उन्हें वैसा संगीत नहीं मिल रहा जो उनकी प्रतिभा का पूरा इस्तेमाल कर सके।

मैं अब भी गाता हूँ और चुनिन्दा शोज़ करता हूँ। मेरा स्वास्थ्य ठीक है, मेरी दोनों बेटियाँ शानदार गायिकाएं हैं और उन्होंने इंडस्ट्री में न जाने का रास्ता चुना। उन्होंने लता और आशा के बीच का गलाकाट संघर्ष देखा और वह उन्हें भाया नहीं। दोनों प्रोफेशनल्स हैं। दरअसल मेरी बड़ी बेटी कैलिफोर्निया के सन माइक्रोसिस्टम्स में काम करती है। मेरी पत्नी बहुत अच्छी हैं जिसे मैं ख़ूब प्यार करता हूँ और एक अनुशासित जीवन जीता हूँ। सबसे बड़ी बात मेरे लिए यह है कि इतने सारे लोग उस संगीत को पसंद करते हैं जिस पर मेरा विश्वास रहा और वे मेरे गीत सुनने को आते हैं. मेरे लिए इतना बहुत है।

जीवन 1

#जीवन_ओंकार_नाथ_धर 

एक हिन्दी फिल्म अभिनेता कलाकार थे। वह किरण कुमार के पिता हैं।
जन्म- 24 अक्टूबर 1915 श्रीनगर जम्मू
मृत्यु-10 जून 1987 मुंबई (उम्र 71)

जीवन का असली नाम ओंकार नाथ धर था। जीवन के 24 भाई बहन थे। जीवन के जन्म के बाद ही उनकी मां का निधन हो गया था। वहीं, तीन साल में उनके पिता का निधन हो गया।

बॉलीवुड के पहले नारद मुनि एक्टर जीवन की आज १०५ वीं जयंती है। जीवन का असली नाम ओंकार नाथ धर था। जीवन के 24 भाई बहन थे। जीवन के जन्म के बाद ही उनकी मां का निधन हो गया था। वहीं, तीन साल में उनके पिता का निधन हो गया।

जीवन जब मुंबई पहुंचे थे तो उनके जेब में केवल 26 रुपए थे। जीवन ने शुरुआत में डायरेक्टर मोहनलाल सिन्हा के स्टूडियो में की थी। मोहनलाल ने उन्होंने अपनी फिल्म 'फैशनेबल इंडिया' में रोल दिया। जीवन ने लगभग 60 फिल्मों में नारद मुनि का रोल किया था।

जीवन को पहचान 1935 में आई फिल्म 'रोमांटिक इंडिया' से पहचान मिली थी। जीवन ने अफसाना', 'स्टेशन मास्टर', 'अमर अकबर एंथनी, नागिन, शबनम, हीर-रांझा, जॉनी मेरा नाम जैसी यादगार फिल्मों में काम किया था।

जीवन ने अपनी करियर की शुरुआत में पहचान लिया था कि वह हीरो नहीं बन सकते हैं। ऐसे में उन्होंने विलेन का रोल किया। खूंखार विलेन द्वारा कॉमेडी करने का ट्रेंड भी बॉलीवुड में जीवन ने शुरू किया था। इसे बाद में कादर खान, शक्ति कपूर और परेश रावल ने इसे आगे बढ़ाया।

जीवन के नारद मुनि रोल पर मिड डे ने एक आर्टिकल में लिखा था- अगर स्वर्ग में से नारद मुनि खुद आ जाए और जीवन की तरह नारायण-नारायण न कहे तो लोग उन्हें भी नारद का डुप्लिकेट मानेंगे।

जीवन के दो बेटे- किरण कुमार और भुषण जीवन हैं। किरण कुमार बॉलीवुड और टीवी के जाने-माने एक्टर हैं। वहीं, उनके दूसरे बेटे भूषण जीवन की 1997 में लिवर की खराबी के कारण मौत हो गई थी। 

विनम्र अभिवादन🙏🌹

जीवन

विशिष्ट शैली से अपने किरदार को जीवंत करने वाले अभिनेता थे 'जीवन'

अपनी दुबली-पतली काया, लंबे कद और संवाद बोलने की अपनी विशेष शैली से फिल्मी दुनिया में अपनी अलग पहचान के साथ जीवन ने धार्मिक फिल्मों में नारद मुनि की भूमिका में अपने को इतना फिट पाया कि वह नारद मुनि के रूप में आत्मसात हो गए और जब उन्होंने फिल्मों में विलेन की भूमिका अदा की तो फिल्मों में प्राण जैसे दिग्गज विलेन के दौर में भी अपनी एक अलग जगह हासिल की।

ओल्ड मूवीज की बात करें तो उस समय विलेन का किरदार भी इतना पाॅवरफुल होता था की बहुत बार तो हीरो से ज्यादा विलन प्रभावी हो जाता था... जीवन ऐसे ही प्रमुख विलनों में से हैं जिनकी बहुत सी फिल्मो में उनकी चर्चा हीरो से ज्यादा होती थी।

जीवन का जन्म एक कश्मीरी परिवार में 24 अक्टूबर 1915 को हुआ था। उनका असली नाम ओंकार नाथ धार था। बहुत छोटी उम्र मात्र 3 साल में ही उनके सिर से उनके माता-पिता का साया उठ गया था। उस समय में फिल्मों में एक्टिंग का इतना क्रेज था कि फिल्मों का शौक रखने वाला लगभग हर व्यक्ति फिल्मी कलाकारों में अपनी छवि देखता था और खुद भी फिल्मी दुनिया में भाग्य अजमाने का ख्वाब रखता था, यही वजह थी कि बॉलीवुड में तब ऐसे बहुत से कलाकार हुए हैं जिन्होंने घर में इजाजत मिले न मिले, घर से भागकर फिल्मों में अपना करियर बनाने मुंबई की ओर रूख किया। ‘जीवन’ भी ऐसे ही अभिनय पसंद कलाकारों में थे जिन्हें अभिनय से बहुत लगाव था, और घर से इजाजत न मिलने के बावजूद 18 साल की उम्र में वे घर से भागकर फिल्मों में भाग्य अजमाने मुंबई आ गए। आपको आश्चर्य होगा जानकर कि जीवन जब मुंबई आए तो उनकी जेब में सिर्फ 26 रुपए थे।

फिल्मों में कॅरियर को लेकर शुरुआती दिनों में जीवन को काफी मेहनत करनी पड़ी। शुरूआत में उन्होंने जाने-माने डायरेक्टर मोहन सिन्हा के स्टूडियो में रिफ्लेक्टर पर सिल्वर पेपर चिपकाने का काम किया और जब मोहन सिन्हा को पता चला कि ‘जीवन’ अभिनय का शौक रखते हैं तो उन्होंने जीवन को 1935 में बनी अपनी फिल्म ‘फैशनेबल इंडिया’ में रोल दिया। जीवन ने इस फिल्म में अपने सराहनीय अभिनय से सबका मन जीत लिया और इसके बाद उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, उन्हें लगातार कई फिल्में मिलती गई। 

उस समय धार्मिक फिल्मों का प्रचलन था और धार्मिक फिल्मों में जब जीवन को नारद मुनि का रोल करने का मौका मिला तो उन्होंने नारद मुनि की भूमिका को जीवंत कर दिया। उसके बाद तो जब भी कोई फिल्मकार नारद मुनि पर फिल्म बनाता तो वह जीवन को ही उस किरदार के लिए उपयुक्त पाता। जीवन ने तकरीबन 49 फिल्मों में नारद मुनि का किरदार निभाया, जो अपने आप में एक रिकार्ड है। 

फिल्मों में जीवन के बोलने का लहजा और उनका एक्सप्रेशन अलग ही था जो बाद में उनके अभिनय की एक अलग पहचान बन गई। जीवन ने लगभग चार दशकों तक फिल्मों में काम किया। अपने कॅरियर के शुरुआती दौर में ही जीवन जान गए थे कि उनका चेहरा हीरो लायक नहीं है इसलिए उन्होंने खलनायकी में हाथ आजमाया और एक लंबे समय तक इस किरदार में वह सफल भी हुए। 

जीवन की फिल्मों की लिस्ट लंबी है, स्वामी, कोहिनूर, शरीफ बदमाश, अफसाना, स्टेशन मास्टर, अमर अकबर एंथनी, धर्म-वीर नागिन, शबनम, हीर-रांझा, जॉनी मेरा नाम, कानून, सुरक्षा, लावारिस, नया दौर, दो फूल, वक्त, हमराज, बनारसी बाबू, गरम मसाला, धरम वीर, सुहाग, नसीब और गिरफ्तार आदि जीवन की यादगार फिल्में हैं। 

10 जून 1987 को 71 साल की उम्र में जीवन का निधन हो गया। आज भी बड़े-बड़े कलाकार फिल्मों में जीवन के अभिनय की नकल करते नजर आते हैं। जीवन के बेटे किरण कुमार भी हिन्दी सिनेमा के मशहूर एक्टर हैं। अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए उन्होंने भी कई फिल्मों में विलेन की भूमिका निभाई। 

हिंदी फिल्मों के पहले सुपर स्टार खलनायक और एक शानदार एथलीट - के एन सिंह

Old is Gold - 24
 हिंदी फिल्मों के पहले सुपर स्टार  खलनायक और एक शानदार एथलीट - के एन सिंह
  (1908-2000)
 
अगर आपसे हिंदी फिल्मों के ऐसे खलनायक का नाम पूछा जाये जो जब सूटेड बूटेड होकर, ओवर कोट पहने, सिर पर हैट लगाए और होठों के बीच सिगार दबाये सुनहरे पर्दे पर आता था और बगैर चीखे चिल्लाये अपनी आँखों के माध्यम से भौहों को चढ़ा कर खलनायकी का अभिनय करता था तो आपको केवल और केवल एक ही नाम याद आयेगा - कृष्णा निरंजन सिंह याने के एन सिंह।

के एन सिंह ने चालीस के दशक से 70 के दशक तक लगभग 250 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया। 1947 तक खलनायकी में उनका कोई तगड़ा प्रतिद्वंद्वी नहीं था। भारत के स्वतंत्र होने के बाद लाहौर से प्राण साहब और जीवन के आने के बाद इनमें एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा देखने मिली पर इन्होंने अपनी स्टाइल को नही बदला। इन्होंने कभी खलनायक के रूप में चीखना चिलाना नही किया। इनका एक डायलॉग बहुत कॉमन था - "अपनी बकबास बंद करो, गधे कहीं के।''

एक अच्छे अभिनेता होने के साथ-साथ के एन सिंह बहुत अच्छे एथलीट थे। जैवलिन थ्रो के लिए 1936 के बर्लिन ओलंपिक के लिए उनका भारतीय टीम में चयन हो गया था परंतु पारिवारिक कारणों से वे ओलंपिक में भाग लेने नहीं जा सके थे।

के एन सिंह रजत पर्दे पर भले ही खलनायक थे पर निजी जिंदगी में वे एक  बेहतरीन इंसान थे।  वे सदा दूसरों की मदद करने के लिए तैयार रहते थे। उनका मानना था कि फिल्म इंडस्ट्री से जितना लिया है उतना ही वापस करते चलो ना जाने कब अंतिम समय आ जाए।

के एन सिंह ने उस समय के लगभग सभी महान अभिनेताओं के साथ काम किया और वे सभी उनके अभिनय का लोहा मानते थे। 


Friday, October 22, 2021

अमर फ़िल्म बात एक फ़िल्म की

आज चर्चा करेंगे मेहबूब खान निर्देशित संगीतमय फिल्म अमर की। 1954 में आई इस फ़िल्म को अपने अभिनय से सँवारा दिलीप कुमार, मधुबाला, निम्मी, मुकरी व मुराद जी ने। शुरआत में मधुबाला की जगह मीना कुमारी जी इस फ़िल्म में थी, मीना जी को निज़ी कारणों से शूटिंग छोड़नी पड़ी, फिर दिलीप कुमार के आग्रह पर मधुबाला को लिया गया। फ़िल्म की कहानी विवादास्पद होने के कारण अलोचना का सामना करना पड़ा। 

शक़ील बदायुनी जी के बोलों को सँगीत दिया नौशाद जी ने। गीतों को स्वरबद्ध किया रफ़ी साहब, लता जी व आशा जी ने। फ़िल्म के गीत संगीत को बहुत पसंद किया गया। गीत इस प्रकार थे...

1. इंसाफ का मंदिर है ये भगवान का घर है
2. तेरे सदके बलम , ना कर कोई ग़म
3. ना शिक़वा है कोई, ना कोई गिला है
4. ना मिलता ग़म तो बर्बादी के अफ़साने कहाँ जाते
5. उमंगों को सखी पी की नगरिया कैसे ले जाऊं
6. जाने वाले से मुलाक़ात ना होने पाई
7. एक बात कहूँ मेरे पिया सुनले अगर तूँ
8. खामोश है खेवनहार मेरा, नैया मेरी डूबी जाती है
9. उड़ी उड़ी छाई घटा, जिया लहराये
10. राधा के प्यारे कृष्ण कन्हाई, तेरी दुहाई

भगवती nawani

#सिंधु सभा टाइम्स न्यूज़
राजेंद्र सचदेव द्वारा

आज 22 अक्टूबर को महान सिंधी संगीत की गायिका स्वर्गीय भगवंती नवानी की पुण्य तिथि है पुण्य तिथि पर शत शत नमन

आज सिंधी संगीत के महान गायिका जिसे सिंधी संगीत की दुनिया में सिंधी लता मंगेशकर भी कहा जाता था लता मंगेशकर की तरह मधुर आवाज वाली गायिका स्वर्गीय भगवंती नवानी कि आज पुण्य तिथि है स्वर्गीय भगवान जी नवानी ने सिंधी लोक संगीत सिंधी कला की जो सेवा की है वह सिंधी समाज के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा 1947 में विभाजन के पश्चात देश का सिंधी समाज विभिन्न समस्याओं से अपने को पुनर्स्थापना के कार्य में जूझ रहा था मायूस था उसी समय प्रसिद्ध साहित्यकार गोविंद माली ने कलाकार मंडल की स्थापना कर सिंधी लोक संगीत के माध्यम से पूरे देश में प्रसिद्ध गायिका स्वर्गीय भगवंती नवानी के साथ 3000 स्टेज शो की है और और सिंधी संगीत के माध्यम से सिंधी समाज की मायूसी दूर की उनमें उत्साह का संचार किया 1947 में विभाजन के पश्चात सिंध पाकिस्तान में सिंधी समाज अपना सब कुछ धन दौलत छोड़कर विभाजित भारत में आ गया और विभिन्न प्रांतों में बस गया परंतु सब कुछ छोड़ने के बाद भी अपनी संस्कृति कला साहित्य अपने साथ ले आया स्वर्गीय भगवंती नवानी ने देशभर में घूम कर स्टेज शो के माध्यम से सिंधी संस्कृति कला लोकगीतों के स्टेज शो देकर देश में सिंधी संस्कृति को जीवित रखने में उसके विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की सिंधी फिल्मों में पार्श्व 
गायन के माध्यम से अपनी मीठी आवाज देकर सिंधी गीतों को गाया  सिंधी सिंधु जे किनारे फिल्म मैं स्वयं अभिनय करके मुख्य अभिनेत्री का रोल अदा करते हुए फिल्म के के माध्यम से देश में सिंधियत को जीवित रखने में उसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान देते हुए अपना संपूर्ण जीवन सिंधी लोक कला संस्कृति लोकगीतों के प्रति समर्पित कर दिया भारत के कोने कोने में छोटे-छोटे कस्बों में नगरों में घूम घूम कर सिंधी गीतों के माध्यम से निस्वार्थ भावना से स्टेज शो के माध्यम से अपने मधुर मधुर आवाज से  सिंधी लोकगीत सिंधी गीत   गाकर सिंधी समाज में  नई पीढ़ी को सिंधी लोक कला संस्कृति से जोड़ने का कार्य करती थी इंदौर में प्रतिवर्ष मेरे पिताश्री स्वर्गीय डॉ कमल सचदेव जी के प्रयासों से अखिल भारतीय सिंधी समाज द्वारा आयोजित कार्यक्रम में प्रतिवर्ष इंदौर आती थी और दो दिवसीय स्टेज शो के माध्यम से सिंधी लोकगीतों का कार्यक्रम प्रस्तुत करती थी आज ऐसे महान कलाकार की पुण्यतिथि पर स्वर्गीय भगवंती नवानी को सिंधु सभा टाइम्स के प्रधान संपादक राजेंद्र सचदेव संपादक अशोक सचदेव मुंबई ब्यूरो चीफ रोहित एम भाग नारी द्वारा  विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की है और शत शत नमन किया है भावभीनी श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं

यश चोपड़ा

रोमांटिक फिल्मों के बादशाह यश चोपड़ा 
यश चोपड़ा का जनम 27 सितम्बर 1932 को हुआ था आपकी मृत्यु 21 अक्टूबर 2012 को हुयी  हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध निर्देशक थे। बाद में उन्होंने कुछ अच्छी फिल्मों का निर्माण भी किया। उन्होंने अपने भाई बी० आर० चोपड़ा और आई० एस० जौहर के साथ बतौर सहायक निर्देशक फिल्म जगत में प्रवेश किया। 1959 में उन्होंने अपनी पहली फिल्म धूल का फूल बनायी थी। उसके बाद 1961 में धर्मपुत्र आयी। 1965 में बनी फिल्म वक़्त से उन्हें अपार शोहरत हासिल हुई। उन्हें फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए। बालीवुड जगत से फिल्म फेयर पुरस्कार , राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के अतिरिक्त भारत सरकार ने उन्हें 2005 में भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया।

यश चोपड़ा का जन्म 27 सितम्बर 1932 को ब्रिटिश भारत में पंजाब प्रान्त के ऐतिहासिक नगर लाहौर में हुआ था। उनका पूरा नाम यश राज था जिसमें से उन्होंने यश अपना लिया और राज को राज़ ही रहने दिया। यशराज ने बम्बई आकर एक सहायक निर्देशक के रूप में अपना कैरियर शुरू किया। यह काम उन्होंने आई० एस० जौहर के साथ बतौर उनके सहायक बनकर किया था। बाद में उनके बड़े भाई बी० आर० चोपड़ा ने, जो बम्बई में पहले
ही से स्थापित हो चुके थे, उन्हें 1959 में अवैध सम्बन्धों के भावों को आगृत करने वाले नाटक पर आधारित फिल्म "धूल का फूल" के निर्देशन के साथ स्वतन्त्र रूप से फिल्मी कैरियर की शुरुआत करने में सहायता की। इसके पश्चात एक अन्य सामाजिक नाटक "धर्मपुत्र" पर आधारित फिल्म का निर्माण 1961 में करके एक और धमाका किया। इन दोनों फिल्मों की सफलता से प्रोत्साहित चोपड़ा भाइयों ने अन्य भी कई फिल्में उन्नीस सौ साठ के दशक में बनायीं। 1965 में "वक़्त" की अपार लोकप्रियता से उत्साहित होकर उन्होंने स्वयं की फिल्म निर्माण कम्पनी "यश राज फिल्म्स" की स्थापना 1973 में कर डाली। 1973 में "दाग" फिल्म बनाने के दो साल बाद ही 1975 में "दीवार", 1976 में "कभी कभी" और 1978 में "त्रिशूल" जैसी फिल्में बनाकर अभिनेता के रूप में उन्होंने अमिताभ बच्चन को बालीवुड में स्थापित किया।
1981 में "सिलसिला", 1984 में "मशाल" और 1988 में बनी "विजय" उनकी यादगार फिल्मों के रूप में चिह्नित हैं। 1989 में उन्होंने वाणिज्यिक और समीक्षकों की दृष्टि में सफल फिल्म "चाँदनी" का निर्माण किया जिसने
बॉलीवुड में हिंसा के युग के अन्त और हिन्दी फिल्मों में संगीत की वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
1991 में उन्होंने क्लासिकल फिल्म "लम्हे"बनायी जिसे फिल्म जगत के समस्त आलोचकों द्वारा और स्वयं चोपड़ा की दृष्टि में उनके सबसे अच्छे काम के रूप में स्वीकार किया गया। 1993 में नवोदित कलाकार शाहरुख खान को लेकर बनायी गयी फिल्म "डर" ने उनका सारा डर दूर कर दिया। 1997 में "दिल तो पागल है", 2004 में "वीरजारा" और 2012 में "जब तक है जान" का निर्माण करके 2012 में ही उन्होंने फिल्म- निर्देशन से अपने संन्यास की घोषणा भी कर दी थी।चलचित्र निर्माण और वितरण कम्पनी के रूप में यश राज फिल्म्स 2006 से लगातार भारत की सबसे बड़ी फिल्म-कम्पनी है। यही नहीं, यश चोपड़ा जी "यश राज स्टूडियो" के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में भी जब तक बालीवुड रहेगा, जाने जायेंगे। उनका फिल्मी कैरियर पाँच दशकों से भी अधिक का रहा है जिसमें उन्होंने 50 से अधिक फिल्में बालीवुड को दीं। उन्हें हिन्दी सिनेमा के इतिहास में एक ऐसे फिल्म निर्माता के रूप में जाना जाता है जिन्होंने छह बार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और कुल मिलाकर ग्यारह बार में से चार बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिये फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। भारत सरकार ने उन्हें 2001 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिया और 2005 में भारतीय सिनेमा के प्रति उनके योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया।

बतौर निर्माता फिल्में

2007 लागा चुनरी में दाग
2000 मोहब्बतें
1982 सवाल

बतौर निर्देशक

2004 वीर-ज़ारा
1997 दिल तो पागल है
1993 डर
1992 परम्परा
1991 लम्हे
1989 चाँदनी
1988 विजय
1981 सिलसिला
1975 दीवार
1973 जोशीला
1965 वक्त
1961 धर्मपुत्र
1959 धूल का फूल
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अजीत

हामिद अली खान उर्फ अजीत ❤️💕

जन्म:  27 जनवरी 1922
निधन:  21 अक्टूबर 1998

हिन्दी फ़िल्मों के एक शानदार अभिनेता थे। अपने स्टेज के नाम अजीत से मशहूर हो गये। भारतीय सिनेमा में वह अपने खलनायक किरदारों में अपनी विशिष्ट अदाकारी और संवाद अदायगी के लिए प्रख्यात थे.अजीत बॉलीवुड में एक अलग मुकाम हासिल करने के लिए कड़े संघर्ष के दौर से गुजरे थे. 27 जनवरी 1922 को हैदराबाद रियासत के गोलकुंडा में जन्मे हामिद अली खान उर्फ अजीत को बचपन से ही अभिनय का शौक था। उनके पिता बशीर अली खान हैदराबाद में निजाम की सेना में काम करते थे, उनके एक छोटे भाई वाहिद अली खान एवं दो बहने थी। अजीत ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा आंध्रप्रदेश के वारंगल जिले के गवर्मेंट जूनियर कॉलेज हनामकोंडा से पूरी की थी। अजीत ने चालीस के दशक में नायक बनने के ख्याब को साकार करने के लिए अपनी पाठयपुस्तकों को बेचकर घर से भागकर मायानगरी बम्बई का रूख किया,बम्बई में उन्होंने नालो में इस्तेमाल होने वाले सीमेंट पाइपो में रहकर और गुंडो से लड़ते भिड़ते हुए मुफलिसी के मुश्किल दिन गुजारे थे और अनेक फ़िल्मों में छोटे मोटे रोल करने के बाद हीरो के रूप में फिल्मी जीवन की शुरूआत वर्ष 1946 में प्रदर्शित फिल्म 'शाह-ए- मिस्र'से की थी।

वर्ष 1950 में फिल्म बेकसूर के निर्माण के दौरान निर्देशक के.अमरनाथ की सलाह पर उन्होंने अपने वास्तविक नाम हामिद अली खान को त्यागकर अजीत के फ़िल्मी नाम का नया चोला धारण किया था .फिर उन्होंने नास्तिक, पतंगा, बारादरी,ढोलक,ज़िद,सरकार,सैया,तरंग,मोती महल, सम्राट,तीरंदाज आदि फिल्मो में बतौर नायक के काम किया.सर्वाधिक 15 फिल्मों में नलिनी जयवंत उनकी हीरोइन थी, शकीला के साथ भी उनकी अनेक कामयाब फिल्मे थीं.अजीत ने उस दौर की सभी मशहूर अभिनेत्रियों मधुबाला ,मीना कुमारी,माला सिन्हा,सुरैया,निम्मी,मुमताज के साथ हीरो के रूप में बहुत सारी फिल्मों में काम किया था . वर्ष 1957 में अजीत बी.आर.चोपड़ा की फिल्म "नया दौर" में ग्रामीण युवक की ग्रे शेड भूमिका में दिखाई दिए । हालांकि यह फिल्म मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार पर केन्द्रित थी,फिर भी अजीत ने अपने दक्ष अभिनय से दर्शकों की खूब वाह वाही लूटी थी।

नया दौर की सफलता के बाद अजीत ने यह निश्चय किया कि वह बड़े बैनर की फिल्मो में ही अपने अभिनय का जलवा दिखाएंगे। वर्ष 1960 में के.आसिफ की कालजयी फिल्म "मुगले आजम" में एक बार फिर से उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे,पर अजीत ने यहां भी सेनापति दुर्जनसिंह की छोटी सी भूमिका के जरिए दर्शकों का दिल जीत लिया था. अपने हीरो के दौर की समाप्ति होने पर,सन 1966 में उन्होंने राजेंद्र कुमार के कहने पर टी. प्रकाशराव की फिल्म सूरज से खलनायकी के किरदार निभाना शुरू किया. वर्ष 1973 अजीत के सिने करियर का अहम पड़ाव साबित हुआ। उस वर्ष उनकी फिल्मों जंजीर, यादों की बारात, समझौता, कहानी किस्मत की और जुगनू ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। इन फिल्मों की शानदार सफलता के बाद अजीत ने उन बुलंदियों को छू लिया, जिसके लिए वह अपने सपनों के शहर बम्बई आए थे। खलनायकी के किरदारों को जिस नफ़ासत और तहजीब से अजीत ने पेश किया,वो अदभुद था.उनकी आवाज शेर की भांति बुलंद थी और परदे पर उनके आगमन से ही दर्शकों के दिल दहल उठते थे।
अजीत ने सफेदपोश खलनायकी का कभी भुलाया नहीं जा सकने वाला किरदार निर्माता निर्देशक सुभाष घई की सन 1976 में प्रर्दशित फिल्म कालीचरण में निभाया। कालीचरण में उनका किरदार लॉयन तो उनके नाम का पर्याय ही बन गया था। इस फिल्म में उनका संवाद 'सारा शहर मुझे लायन के नाम से जानता है' आज भी बेहद लोकप्रिय है. इसके अलावा उनके लिली डोंट बी सिली और मोना डार्लिग जैसे संवाद भी सिने प्रेमियों के बीच काफी लोकप्रिय रहे।
फिल्म कालीचरण की कामयाबी के बाद अजीत खलनायकी की दुनिया के बेताज बादशाह बन गए थे,फिर उन्होंने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा और अपने दमदार अभिनय से दर्शकों की वाहवाही लूटते रहे। कई फिल्मों में तो अजीत खलनायक होते हुए भी नायक पर भारी पड़ते दिखाई देते थे.उन्होंने धर्मेंन्द्र के साथ यादों की बारात, जुगनू, प्रतिज्ञा, चरस, आजाद, राम बलराम, रजिया सुल्तान और राज तिलक जैसी अनेक कामयाब फिल्मों में काम किया।सन नब्बे के दशक की शुरुवात में अजीत ने स्वास्थ्य खराब रहने के कारण फिल्मों में काम करना कम कर दिया। कुछ वर्षो बाद उन्होंने फिल्मो में वापसी की और अपनी दूसरी पारी में जिगर, शक्तिमान, आदमी, आतिश, आ गले लग जा और बेताज बादशाह जैसी अनेक फिल्मों में अपनी अभिनय क्षमता से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया।
संवाद अदायगी के बेताज बादशाह अजीत ने करीब चार दशक के फिल्मी कैरियर में लगभग 200 फिल्मों में अपने अभिनय का जौहर दिखाया था. निजी जीवन में अजीत ने पहली शादी एक फ्रेंच लेडी ग्लेन डी'मोंटे से की थी, जिससे उन्हें कोई संतान ना थी,फिर उन्होंने दूसरी शादी शाहिदा अली खान से की थी,उनसे तीन संतान शाहिद अली खान, ज़ाहिद अली खान और आबिद अली खान हुई. अन्तः जीवन का सफर पूरा करते हुए अजीत 22 अक्टूबर 1998 को अपने गृहनगर हैदराबाद में इस दुनिया से अलविदा हो गए। वह पांच दशक तक भारतीय फिल्म जगत में अजेय रहे। अजीत को उनके विशिष्ट अभिनय शैली के लिए फ़िल्मी दुनिया में कभी भुलाया नहीं जा सकता है।

उनके कुछ फेमस डायलॉग ..

मोना डार्लिंग

सारा शहर मुझे 'लायन' के नाम से जनता है

वाटस युवर प्रॉब्लम?

आई लास्ट मई ग्लासेस

स्मार्ट बॉय

हव वैरी इंटरेस्टिंग...

लिली डोंट बी सिली

मोना लूटलो सोना

इसे लिक्विड-आक्सीजन में डाल दो, लिक्विड इसे जीने नहीं देगा, आक्सीजन इसे मरने नहीं देगा।

Wednesday, October 20, 2021

नागिन मधुर म्यूजिक बस्टर

आज जिस म्यूजिकल ब्लॉकबस्टर फ़िल्म की बात करेंगे वो है नंदलाल जसवन्तलाल निर्देशित "नागिन", 1954 में आई इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाई प्रदीप कुमार, वैजयंतीमाला, जीवन व मुबारक जी ने। फ़िल्म की कहानी लिखी सुप्रसिद्ध गीतकार राजेंद्र कृष्ण जी ने। 1954 की ये सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म थी। इस फ़िल्म से वैजयन्ती जी बॉलीवुड में स्थापित हो गई।
इस मधुर सँगीत के रचनाकार हेमन्त दा। बीन धुन बजाई हेमन्त दा के संगीत सहायक कल्याण जी(कल्वायलिन) व रवि जी( हारमोनियम), जो आगे चलकर मशहूर संगीतकार बने। इससे पहले बीन की धुन असल बीन बजाकर ही दी जाती थी। कल्याण जी लन्दन से नया संगीत यंत्र कल्वायलिन लेकर आये थे, जो मुँह से नही, उंगलियों से बजाया जाता था। गीत लिखे राजेन्द्र कृष्ण जी ने। आवाज़े लता जी, हेमन्त दा व आशा जी। गीत इस प्रकार थे...

1. मन डोले मेरा तन डोले, मेरे दिल का गया क़रार रे ये कौन बजाए बाँसुरिया
2. तेरे द्वार खड़ा एक जोगी
3. सुन रसिया, मन बसिया, काहे को जलाए जिया आजा
4. जादूगर सैंया छोड़ो मेरी बैंया हो गई आधी रात अब घर जाने दो
5. ओ ज़िन्दगी के देने  ज़िन्दगी के लेने वाले
6. तेरे द्वार खड़ा एक जोगी
7. सुन री सखी मोहे सजना बुलाये, मोहे जाना है पी की नगरिया
8. तेरी याद में जलकर देख लिया, अब आग में जलके देखेंगे
9. छोड़ दे पतंग मेरी छोड़ दे
10. याद रखना, प्यार की निशानी गोरी याद रखना
11. मेरा बदली में छुप गया चाँद रे
12. ऊंची ऊंची दुनिया की दीवारें सैंया छोड़ के जी
13. बीन म्यूजिक
एक गाना मिस लग रहा है याद नही आ रहा मुझे,कृप्या मुझे अवगत करवाएं।

Saturday, October 16, 2021

बस्टर मूक फिल्मों के अभिनेता

अपने शायद कभी स्टंट कामेडियन नहीं सुना होगा. अमेरिकी हास्य अभिनेता बस्टर केटन (सन 1895-1966) , ( चित्र में दांये ) निर्माता, निर्देशक.पटकथा लेखक और स्टंट हास्य कलाकार के रूप में बहुत विख्यात रहे, मूक फिल्मों के लिए आप सबसे ज्यादा याद किये जाते हैं. उन्हें 'King of commedy without laughing' के रूप में भी जाना जाता है. आप चार्ली चैपलिन से छः वर्ष छोटे थे और कई फिल्मों में दोनों ने साथ-साथ भी काम किया है, U tube पर आपकी पचासों फ़िल्में उपलब्ध हैं.

Friday, October 15, 2021

संगीतकार शंकर संगीत विधा के सधे हुए विद्यार्थी थे

बॉलीवुड की सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन ने भारतीय हिंदी सिनेमा को ऐसे-ऐसे खूबसूरत नगमें दिए, जो आज भी संगीत प्रेमियों की रूह को तर कर जाते हैं। इस जोड़ी के शंकर का पूरा नाम 'शंकर सिंह रघुवंशी' था। इस जोड़ी ने करीब दो दशक तक बॉलीवुड को एक से बढ़कर एक सुपरहिट गाने दिए। इस जोड़ी का संगीत बॉलीवुड लीजेंड राज कपूर को इतना भाया कि उनकी 19 फिल्मों में शंकर-जयकिशन ने म्यूजिक दिया। इन दोनों की जोड़ी द्वारा तैयार की गई धुनों को मोहम्मद रफ़ी साहब ने सबसे ज्यादा आवाज़ दी। उन्होंने इस जोड़ी के संगीत पर 363 गाने रिकॉर्ड किए थे।
शंकर सिंह रघुवंशी का जन्म 15 अक्टूबर, 1922 को  हुआ था। उनके पिता राम सिंह रघुवंशी मूल रूप से मध्य प्रदेश के निवासी थे, लेकिन वे काम के सिलसिले में हैदराबाद में बस गए थे। शंकर को बचपन से कुश्ती लड़ने का बड़ा शौक़ था। उनका कसरती बदन बचपन के इसी शौक़ का नतीजा था। शंकर सिंह बचपन में अपने घर के पास के एक शिव मंदिर में पूजा-अर्चना के समय जाया करते थे। इस दौरान तबला वादक का वादन उन्हें बहुत आकर्षित करता था। यहां से उनमें तबला वादन की रुचि जाग्रत हुई।बजाने की लगन दिनों प्रतिदिन बढ़ती गई। जब महफ़िलों में तबला बजाते हुए 'उस्ताद नसीर खान' की नज़र इन पर पड़ी तो शंकर को उन्होंने अपना चेला बना लिया।
मुंबई आने के बाद में शंकर अपनी कला को और निखारने के लिए एक नाट्य मंडली में शामिल हो गये, जिसके संचालक हेमावती और मास्टर सत्यनारायण हुआ करते थे। इसी के साथ शंकर पृथ्वी थियेटर में 75 रुपए महीने पर तबला वादक के रूप में नौकरी भी करने लगे। इसी के साथ उन्हें वहां थियेटर में छोटे-मोटे रोल भी मिल जाया करते थे। पृथ्वी थिएटर में काम करते हुए उन्होंने तबले के साथ-साथ सितार बजाना भी सीख लिया था। शंकर मुंबई में संगीत के साथ-साथ नियमित कसरत के लिए पृथ्वी थियेटर से थोड़ी दूर पर मौजूद एक व्यायामशाला में जाया करते थे। यहां शंकर की मुलाक़ात दत्ताराम हुई। दत्ताराम तबले और ढोलक में माहिर माने जाते थे। इसके बाद शंकर दत्ताराम से तबला और ढोलक के हुनर की बारीकियां सीखने लगे। कुछ समय बाद शंकर के वादन से प्रभावित होके दत्ताराम उन्हें फिल्मों में काम दिलाने के लिए दादर ले गए। उन्होंने यहां शंकर की मुलाक़ात गुजराती फ़िल्मकार चंद्रवदन भट्ट से कराई।
जिस वक़्त शंकर और दत्ताराम इस मुलाक़ात के लिए चंद्रवदन भट्ट के यहां पहुंचे थे, उसी समय वहां फिल्मों में काम की तलाश में जयकिशन भी पहुंचे थे। जब अंदर बुलाने के इंतज़ार में दोनों साथ ही बाहर बैठे हुए थे, इस दौरान दोनों की आपसी बात-चीत से पता चला कि जयकिशन हारमोनियम बजाने में माहिर है। यहां से दोनों की दोस्ती आगे बढ़ी और शंकर ने जयकिशन को पृथ्वी थियेटर में नौकरी दिलवा दी। उस वक़्त पृथ्वी थियटर को एक अच्छे हारमोनियम मास्टर की जरुरत भी थी। यहां से दोनों साथ मिल कर काम करने लगे और आगे दोनों की दोस्ती इतनी बढ़ी कि पक्के दोस्त बन गए। और कुछ समय हुस्नलाल भगतराम की भी शागिर्दी में रहे।
लीजेंड एक्टर राज कपूर जब अपनी पहली फिल्म के लिए पृथ्वी थियेटर पहुंचे, उस दौरान उनकी शंकर-जयकिशन से मुलाक़ात हुई। राज कपूर ने अपनी डेब्यू फिल्म के संगीत के ​लिए पृथ्वी थियेटर्स के संगीतकार राम गांगुली को चुना। राम गांगुली के साथ उनके सहायक संगीतकार के रूप में शंकर-जयकिशन ने भी उस फिल्म में काम किया था। जब राज कपूर ने शंकर सिंह की तैयार की ‘अंबुआ का पेड़ है ... वही मुडेर है, आजा मोरे बालमा ... अब काहे की देर है’ वाली धुन सुनीं, जिसे शंकर ने खुद लिखा और संगीतबद्ध किया था, यहीं से राज उनकी प्रतिभा के कायल हो गए।
इसके बाद राज कपूर ने अपनी फिल्म ‘बरसात’ के लिए संगीत देने का काम शंकर-जयकिशन की जोड़ी को दिया। इस फिल्म का एक गाना ‘जिया बेकरार है, छायी बहार है आजा मेरे बलमा तेरा इंतज़ार हैं’ काफ़ी हिट हुआ था। शंकर-जयकिशन की जोड़ी इस फिल्म में सुपर हिट म्यूजिक दिया। इसके बाद इन दोनों ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और कई अवॉर्ड अपने नाम किए। इन दोनों की जोड़ी को 9 बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
शंकर-जयकिशन की इस प्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी ने लगभग दो दशक तक संगीत जगत पर राज किया। इन दोनों की जोड़ी साल 1971 तक कायम रही। 12 सितंबर, 1971 को जयकिशन के निधन के साथ दोनों की जोड़ी हमेशा के लिए बिखर गई। इसके बाद शंकर सिंह ने भी काम करना बंद कर दिया था। अपने जोड़ीदार के निधन के करीब 16 साल बाद 26 अप्रैल, 1987 को शंकर सिंह रघुवंशी का भी निधन हो गया। इस तरह भारतीय हिंदी संगीत की यह महान जोड़ी हमेशा के लिए अलविदा कह गई, लेकिन आज भी इनका संगीत लोगों के दिलों में बसता है।

Wednesday, October 13, 2021

महल फिल्म ने लता मंगेशकर को स्टारडम दिलाया बल्कि मधुबाला को भी ए लिस्ट एक्ट्रेस बनाया था।

महल फिल्म ने लता मंगेशकर को स्टारडम दिलाया बल्कि मधुबाला को भी ए लिस्ट एक्ट्रेस बनाया था।

“महल” के मेकिंग की कहानी बड़ी दिलचस्प है। 1948 में अशोक कुमार एक हिल स्टेशन पर “जिजीबॉय” हाउस के पास एक फ़िल्म की शूटिंग कर रहे थे, उन्होंने आधी रात को एक कार में एक रहस्यमयी महिला की बिना सिर वाली लाश देखी और उनके देखते ही देखते वो महिला जल्द ही घटनास्थल से गायब हो गई। ये बात अशोक कुमार ने अपने नौकरों को बताई। उनके नौकरों ने उनकी बात पर विश्वास नहीं किया और उनको कहा कि आपने जरूर कोई सपना देखा होगा। जब कुमार पास के थाने में शिकायत दर्ज कराने गए तो एक पुलिसकर्मी ने उन्हें बताया कि 14 साल पहले भी इसी जगह पर इसी तरह की घटना हुई थी- एक महिला की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी।
अशोक कुमार ने कमाल अमरोही को ये कहानी सुनाई। अमरोही इस वक्त तक 1939  में रिलीज़ हुई सोहराब मोदी की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म “पुकार” के संवाद लिख चुके थे लेकिन उन्होंने किसी फिल्म का निर्देशन नहीं किया था और वो किसी फ़िल्म का निर्देशन करना चाहते थे । कमाल अमरोही को अशोक कुमार के द्वारा सुनाई गई कहानी पसंद आई और अमरोही ने कहानी को आंशिक रूप से संशोधित कर आगे विकसित किया और फिल्म का नाम “महल ” रखा । जब ये कहानी सावक वाचा को सुनाई गई तो उन्होंने फिल्म के कथानक को खारिज कर दिया क्यों कि वो इस बात से आशंकित थे कि सस्पेंस फिल्मों को रिपीट दर्शक नहीं मिलते हैं। उनके मना करने का एक कारण बॉम्बे टॉकीज द्वारा प्रोड्यूस की गई उनकी पिछली फिल्मों ज़िद्दी (1948) और आशा(1948) की बॉक्स ऑफिस असफलता भी था । इन फिल्मों की असफलता के कारण बॉम्बे टॉकीज आर्थिक मुसीबतों का सामना कर रहा था। अशोक कुमार ने उनको समझाया कि अगर अच्छी तरह से फ़िल्म को निर्देशित किया जाता है तो फिल्म दिलचस्प बन सकती है और उन्होंने कमाल अमरोही को इस फिल्म के निर्देशक के रूप में नियुक्त कर दिया । अशोक कुमार ये कहते हुए खुद सह-निर्माण के लिए सहमत हुए कि फ़िल्म को घाटा हुआ तो वो उनकी जिम्मेदारी होगी और यहां तक कि फिल्म में अभिनय करने के लिए भी वो तैयार हो गए।उन्होंने फ़िल्म में कामिनी की भूमिका के लिए एक उपयुक्त अभिनेत्री चुनने का काम कमाल अमरोही को सौंपा। उन्होंने मधुबाला जी का चयन किया l इसके पहले कई अभिनेत्रियों से संपर्क किया गया लेकिन उनमें से ज्यादातर ने रोल सुनते ही ये रोल करने से इंकार कर दिया और जिन्होंने हां की उन्होंने अपनी फ़ीस बहूत ज्यादा डिमांड की। एक समय फ़िल्म के निर्माता वाचा द्वारा सुरैया को लीड एक्ट्रेस के रोल के लिए फाइनल कर लिया गया क्यों कि उनको लगता था कि सुरैया अशोक कुमार की जोड़ी पर्दे पर कमाल लगेगी। सुरैया ने अपनी दादी के इंकार करने के बाद फ़िल्म छोड़ दी क्यों कि उनकी दादी को फ़िल्म की कहानी पसन्द नही आई थी। इसी बीच ,15 वर्षीय मधुबाला ने ये रोल करने के लिए अपनी इच्छा जाहिर की। मधुबाला उस वक्त न्यूकमर थी और उस समय तक कुछ छोटी मोटी फिल्में कर चुकी थी। वाचा ने मधुबाला की कम उम्र और अनुभवहीनता के चलते मधुबाला को इस फ़िल्म के रोल के लिए ख़ारिज कर दिया। कमाल अमरोही ने वाचा को समझाया और कहा कि वो मधुबाला का ऑडिशन लेना चाहते हैं। मधुबाला का ऑडिशन लेते वक्त अपनी सुविधानुसार लाइट्स की व्यवस्था की। मधुबाला इस ऑडिशन में सफेद व काले कपड़ों में बहुत खूबसूरत लग रही थी। फिल्म के मुख्य अभिनेता अशोक कुमार की उम्र मधुबाला की उम्र से दोगुनी से भी ज़्यादा होने के बावजूद मधुबाला ने ये रोल हासिल किया। अशोक कुमार ने इस फ़िल्म की रिलीज़ के वर्षों बाद एक बार कहा था कि “मधुबाला सिर्फ 15 साल की थी और इतनी अनुभवहीन थी कि उसे लगभग हर शॉट के लिए कई रीटेक की जरूरत पड़ती थी, फिर भी मुझे विश्वास था कि हमने सही कास्टिंग की है और वो अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय करेगी।
विमल रॉय इस फ़िल्म में मुख्य एडिटर थे । “महल” की एडिटिंग करते वक्त वो इस फ़िल्म के कथानक से इतने प्रभावित हुए कि आगे चलकर उन्होंने इसी कथानक पर दिलीप कुमार के साथ फ़िल्म “मधुमति” बनाई थी।
इस फ़िल्म की यूनिट को शूटिंग के दौरान भी आर्थिक तंगी के चलते कई परेशानियों का सामना करना पडा। हालात ये थे कि कमाल अमरोही को अपने घर की पुरानी चीजों व वस्त्रों को फ़िल्म की शूटिंग के दौरान काम में लेना पडा क्यों कि नए खरीदने के लिए पैसे नहीं थे।
संगीतकार के तौर पर खेमचंद प्रकाश को जबकि गीतकार के तौर पर नक्षब को लिया गया। लता मंगेशकर, राजकुमारी दुबे और जोहराबाई अंबलेवाली ने गानों को अपनी आवाज दी। टुन टुन को शुरू में “आयेगा आने वाला” गाने की पेशकश की गई थी,लेकिन उन्होंने कारदार प्रोडक्शन हाऊस के साथ अपने अनुबंध के कारण इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया । बाद में लता मंगेशकर ने उसी प्राचीन हवेली में ये गाना गाया,जहां फिल्म की शूटिंग हुई थी।एक और गाना जिसका शीर्षक “मुश्किल है बहुत मुश्किल” है,जो लगभग चार मिनट लंबा है,अमरोही और मधुबाला ने एक ही टेक में पूरा किया।  हर किसी की अस्वीकृति के बावजूद,अमरोही ने मधुबाला की प्रतिभा को बहुत सम्मान दिया, यह घोषणा करते हुए कि “इस फिल्म के साथ ही उनकी असली क्षमताएं सामने आईं।”
जब खेमचंद प्रकाश ने इस गीत “आएगा आने वाला” की धुन बनाई तो इसके बारे में दोनों निर्माताओं की राय अलग थी । निर्माता सावक वाचा को यह धुन बिल्कुल पसंद नहीं आई ।जबकि अशोक कुमार को यह धुन “आएगा आने वाला” अच्छी लगी । खेमचंद्र प्रकाश के संगीत में बनी इस फिल्म के गाने बहुत लोकप्रिय हुए। महल फ़िल्म के गाने “आएगा आने वाला” पहला गाना है जिसके साथ लता मंगेशकर को उनकी गायकी का श्रेय मिला । इस गीत ‘आएगा आने वाला’ में यह असर डालना था कि गाने की आवाज़ दूर से क्रमश: पास आ रही है । उन दिनों अपने देश में रिकार्डिंग की तकनीक अधिक विकसित नहीं थी लेकिन संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने इसका तोड़ निकाल लिया। रिकॉर्डिंग स्टूडियो के बीच में माइक रखा गया तथा कमरे के एक कोने से गाते गाते लता मंगेशकर धीरे धीरे चलते हुए माइक के पास पहुँची ।इस तरह गीत में वांछित प्रभाव पैदा किया गया । गीत के म्यूजिक रिकार्ड में गायिका का नाम ‘कामिनी’ छपा था। ‘कामिनी’ फ़िल्म ‘महल’ में नायिका मधुबाला का नाम था जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो यह गीत बेहद मशहूर हो गया। रेडियो पर श्रोताओं के ढेरों पत्र गायिका का नाम जानने के लिये पहुँचने लगे। फलस्वरूप एच.एम.व्ही को रेडियो पर जानकारी प्रसारित करनी पड़ी कि इस गीत की गायिका का नाम “लता मंगेशकर ” है। इस तरह लता मंगेशकर इस गाने से स्टार बन गई।
बॉम्बे टाकीज़ द्वारा निर्मित फिल्म “महल “कमाल अमरोही के लिए भी “मील का पत्थर” साबित हुई ।जहाँ तक पुनर्जन्म का हिंदी फ़िल्मों से संबंध है, तो इस राह पर भी हमारे फ़िल्मकार “महल” के बाद चले पड़े। जन्म मरण,आत्मा परमात्मा जैसे रहस्यपूर्ण विषय अब हमारे फिल्मकारों की गहरी आस्था बन गए और जिस पर हमारा हिंदी सिनेमा आज तक चल रहा है। ‘महल’ के बाद में आयी फ़िल्म मधुमती (1958),मिलन (1967),नीलकमल, (1968 ), क़र्ज़ (1980 ) ,कुदरत (1981 ), बीस साल बाद (1962), मेरा साया (1966), अनीता (1967) आदि आदि कुछ रहस्य प्रधान फिल्मे थी जिनमे रोमांच पैदा करने के लिए “पुनर्जन्म” का आंशिक तड़का लगाया गया था । भूल भुलैया (2007) की कहानी महल से ही प्रभावित थी ,जिसे पर्सनैलिटी डिसॉर्डर जैसे विषय के साथ जोड़कर परोसा गया था।
“महल” बनकर तैयार हुई और 13 अक्टूबर 1949 को रिलीज़ हुईं। बॉम्बे टॉकीज की पिछली कुछ मूवीज ने बॉक्सऑफिस पर कुछ ख़ास अच्छा नहीं किया था इसलिए कई ट्रेड पंडितों इस फ़िल्म के फ्लॉप की भविष्यवाणी की। हालाकि पहले और दूसरे हफ्ते में फ़िल्म स्लो रही । फिल्म ने तीसरे हफ़्ते में रफ्तार पकड़ी और जल्दी ही देशभर में चर्चा का केंद्र बन गई। लोग फ़िल्म को देखने के लिए सिनेमाघरों में टूट पड़े। एक थिएटर मालिक ने मीडिया से कहा, “मैं दोस्तों और जनता की इस फ़िल्म की टिकट्स की डिमांड से बहुत खुश हूं इस फ़िल्म के सारे शोज की टिकट्स एडवांस में ही बिक रही है। ये हमारी उम्मीदों से परे एक हिट फ़िल्म है और मुझे लगता है कि यह निश्चित रूप से सिल्वर जुबली हिट बन जायेंगी। लोग इसे बार-बार देखना चाह रहे हैं।”
इस फ़िल्म ने उस वक्त 1 करोड़ 40 लाख का कारोबार किया था और 1949 की “बरसात” और “अंदाज” के बाद तीसरी सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म थी। “महल” उस दशक की दसवीं सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म रही। ये बॉम्बे टॉकीज की सबसे बड़ी हिट फिल्म बनी। 
72 Years of Mahal