Wednesday, May 26, 2010

नरगिस--यथार्थ अभिनय का पर्याय
















फ्लैश बैक------

स्मरण दिवस पर विशेष-3 मई.
---------------------------------------------------
नरगिस का नाम सुनते ही पुराने लोगों के सपनों में घुस जाना है. 60-70 के दशक में नरगिस होने का मतलब आप दिलों की धड़कन, सपनों की शहजादी और भारतीय नारी का प्रतिनिधित्व करने वाली ऐसी अदाकारा के बारे में बात कर रहे हैं जो पूरे भारत वर्ष में सम्मान का प्रतीक थीं. पुराने लोगों से मतलब सफेद बालों में सिमटा अनुभव है जिसे नरगिस का जमाना देखने का शहूर मालूम है. आज भी इन अनुभवी लोगों से नरगिस के बारे में बात की जाए तो अजीब सी दिलकश मुस्कुराहट होठों पर तैर आती है. नरगिस भारत वर्ष की पहली ऐसी नायिका थीं जिसनें न सिर्फ नारी सम्मान को प्रतिस्थापित किया बल्कि फिल्मों में नारी की मौदूजगी को भी ऊँचाइयों पर ले गई थीं.
--------------------------------------------------------------------
नरगिस को खूबसूरत कहने में जुबान लडख़ड़ाती है और कलम भी आनाकानी करती है. मुर्गी के अंडे जैसा चेहरा और लट्ठे जैसी सीधी सपाट काया. अपनी इस अनाकर्षता के बावजूद उसे मंजिल मिल गई. उसके पास रुप भले न हो, पर अपील थीं. उसके व्यक्तित्व में मिठास भले न हो, पर चार्म था. और खासकर उसकी अदाओं में गुलमोहर-सी दिलकश डिगनिटी थीं, इसलिए अंदाज की अंगरेजीदां नीना हो या बाबुल की गंवार उजंड्ड लड़की...नरगिस कभी चोप नहीं लगी. अभिनय क्षमता की और अपनी डिगनिटी की बदौलत वह अपनी हर न्यूनता को मात दे गई. उन दिनों मधुबाला खूबसूरती में चार चाँद लगा रही थीं. गीताबाली अभिनय कुशलता से साक्षात्कार करने लगी थीं. सुरैया अपनी आवाज का जादू बिखेर रहीं थीं. मीनाकुमारी के पास खूबसूरती और अभिनय का संगम था. इन सभी समकालीन मलिकाओं के होते हुए नरगिस ने अपने अस्तित्व का अनोखा अहसास दिखाया, अपने लिए स्वतंत्र स्थान बना लिया. विवाह के बाद उसनें परदे से तलाक ले लिया. तो उधर झांक कर भी नहीं देखा. पति की फिल्म यादें में उसका साया पर दिखाई दिया था. लेकिन रसिक दर्शकों ने साये को भी पहचान लिया था.
जब उस स्वप्न सुंदरी, जीवंत अभिनय की बेजोड़ प्रतीक, बहुमुखी प्रतिभा की धनी कलानेत्री नरगिस का 3 मई 1981 को देहावसान हुआ, तो उस समय ख्याति की जिस बुलंदी पर वह पहुंच चुकी थीं, किसी अन्य सम्मान की आवश्यकता उन्हें नहीं थीं. उस समय वह राज्य सभा की मनोनीत सदस्या थीं, पद्मश्री के अंलकार से विभूषित थीं. उन्हें अनेक फिल्मफेयर पुरस्कार अवार्ड, स्वर्ण-पदक-पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका था.
चित्रपट संसार के कला प्रेमियों के सामने जब उनकी प्रख्यात फिल्म मदर इंडिया का नाम आता है तो एक ममतामयी माँ, नरगिस का प्रभावशाली (मेकअप किया हुआ) प्रौढ़ चेहरा बरबस सामने आता है. जिसके ह्दय में एक गरीब पंरतु सशक्त स्वाभिमानी तथा न्यायप्रेमी भारतमाता (मदर इंडियां) की आत्मा के दर्शन होते है. जमींदार के अत्याचारों, कर्जो से व्यथित किसानों, भूख से पीडि़त मानव व वर्षों से अभाव में प्यासी धरती व भूखे पशुओं की दयनीय दशा की कहानी है. इस फिल्म में नरगिस ने एक प्रौढ़ता का ऐसा किरदार निभाया कि दांतो तले अंगुली दबानी पड़ती है. तब तक नरगिस का विवाह भी नहीं हुआ था. सुनील दत्त से उनके विवाह प्रसंग अथवा रोमांस का जन्म भी इसी फिल्म के फिल्माकंन के दौरान हुआ था. इसमें आग का एक सीन था लेकिन दुर्भाग्यवश आग इतनी भड़क गई कि उसनें विकराल रुप धारण कर लिया और नरगिस उसमें घिर गई. वे शायद उस आग का शिकार हो ही जाती, यदि सुनील दत्त ने अपनी जान पर खेलकर उसे बचाया ना होता. यही साहस और बलिदान देखकर नरगिस भी सुनील दत्त को अपना दिल दे बैठी और नरगिस से नरगिस दत्त बन गई.
वास्तव में नरगिस का नाम फातिमा रशीद था और माँ थीं जद्दनबाई, जो फिल्म निर्देशिका थीं. उन्हीं की संस्था में 5 वर्ष की आयु में ही एक फिल्म तलाशे हक में एक बाल कलाकार के रुप में इन्होंनें अपनी प्रतिभा का परिचय दिया. फिर नरगिस ने 14 वर्ष की उम्र में महबूब खान की फिल्म तकदीर में मोतीलाल जैसे कलाकार के साथ अभिनय किया. तकदीर सबको बहुत पसंद आई. उसके बाद नरगिस ने राज कपूर के साथ आह फिल्म में काम किया. फिर उन्होंने अंबर, मेला, अंदाज, आग, दीदार, जोगन, बाबुल, पापी, चोरी चोरी, हलचल, लाजवंती, अदालत, बरसात,श्री 420, मदर इंडिया आदि में अपने समकालीन प्रतिष्ठित नायकों दिलीप कुमार, राज कपूर, अशोक कुमार, प्रदीप कुमार, वलराज साहनी आदि के साथ काम किया. इनकी आखिरी फिल्म रात और दिन थीं, जिसमें उन्हें उत्कृष्ठ अभिनय के लिए उर्वशी एवार्ड से सम्मानित किया गया. नरगिस अंतराष्ट्रीय फिल्म समारोह में केन्द्रीय समिति में महिला अभिनेत्रियों के प्रतिनिधि के रुप में चयनित हुई थीं. मास्को में उनको राज कपूर की फिल्म श्री420 तथा परदेसी ने ख्याति दिलाई थीं.
नरगिस और राज कपूर के प्रसंग के बगैर यह आलेख अधूरा सा लगेगा, लेकिन इस प्रसंग को सीमित करने से सब बातें भी स्पष्ट नहीं हो पाएगी, इसलिए इसकी चर्चा कभी विस्तार से करेंगे.
रवि के. गुरुबक्षाणी.
गल्र्स स्कूल के सामने,स्ट्रीट न.5. रविग्राम तेलीबांधा, रायपुर छग 492006
मोबाईल-8109224468.

राज कपूर-नीली आँखों का जादूगर






स्मरण दिवस-2 जून पर विशेष----------------रवि के. गुरुबक्षाणी
उसकी आँखें नीली थीं और उन्हें वह दो तरह से इस्तेमाल किया करता था-पहला भोलेपन के लिए और दूसरे दुनिया भर के ख्वाबों की फसल उगाने के लिए. इन दोनों वाक्यों को घटित करने में वह अपनी तरह से कामयाब रहा. उसनें प्रेम का अपना गणित बनाया और हँसी में करुणा की अंर्तधारा का भी. वह खुद के गावदीपन से हँसा सकता था, मगर वह हँसी दर्द से फूटती लगती थीं. कंधे उचकाते हुए या बत्तख की तरह कदमों को दौड़ाते हुए उसनें जो मैनेरिज्म खड़ा किया था, वही उसकी हैसियत नहीं थीं. सपने बुनने में उसे महारथ हासिल थीं और उनके टूटने की सूरत में पैदा हुई पीड़ा को पेश करने में भी.
हमारी पीढ़ी ने जिस राजकपूर को देखा, वो बॉबी, सत्यम् शिवम् सुंदरम् प्रेम-रोग और राम तेरी गंगा मैली का राजकपूर था. और बड़ा सच यह है कि बॉक्स ऑफिस का गणित जैसा राकेश रोशन और यशराज फिल्मस् को आता है. वैसा ही गणित राजकपूर को भी आता था, यह बात अलग है कि वह अपने अलग आँकड़े इस्तेमाल करता था. और, इसमें हैरत नहीं कि अपनी सफलता के लिए हर आदमी को अपने फॉर्मूले ईजाद करने पड़ते हैं. राजकपूर ने मुहब्बत और औरत का फार्मूला ईजाद कर लिया था. जो आग वाले आर.के. के धुर प्रेमी है, उन्हें सत्यम शिवम सुंदरम के आर.के. को तौलने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए.
राजकपूर सिर्फ समीक्षकों में जिंदा नहीं रहना चाहते थे. आजादी के तत्काल बाद नव निर्माण की जद्दोजहद में लगे लोगों के बीच रुमानियत का स्वप्नशील संसार देने और विचारों का फ्लैवर इस्तेमाल करने का सूत्र उसनें पकड़ लिया था. निर्दोष भारतीय चरित्र की प्रतिनिधि छबि को अपनाने का गुर उसे समझ में आ गया था. वह औसत आदमी का दर्द सेल्यूलाइड पर उतारने में बेजोड़ साबित हुआ.
दरअसल राजकपूर यथार्थ तो पेश करना चाहता था, मगर उसमें अपनी ऐसी छबि की स्थापना का मकसद भी शामिल था जो उसे स्टार का दर्जा भी दे सके. उसके लिए भले ही उसे चार्ली चैपलिन की शैली उठा लेनी पड़ी. जागते रहो का राजकपूर अद्भुत राजकपूर है, लेकिन उसकी व्यावसायिक असफलता से दुखी, बॉक्स ऑफिस के लिए तमाम जतन करता हुआ भी एक राजकपूर है. बरसात से राजकपूर ने सेक्स और संगीत का संयुक्त फॉर्मूला इस्तेमाल करना शुरु किया था. यह धीरे-धीरे गंगा मैली तक अनुपातिक रुप से और इस्तेमाल की दृष्टि से बदलता चला गया. दिलचस्प यह है कि राजकपूर ने अपने गुरु अब्बास की प्रगतिशीलता को स्वीकार कर लिया लेकिन नरगिस की कमर से उनका हाथ नहीं छूटा.
इसमें तो कोई शक नहीं कि राजकपूर में विलक्षण प्रतिभा थीं. लेकिन उस प्रतिभा का इस्तेमाल करते हुए उस पर रोजी रोटी और सिताराई ख्वाहिशें शामिल थीं. बेशक शीरी 420, आवारा और जागते रहो हर हाल में पूरी तरह से आदर के साथ उल्लेखित होगी, बूट पालिश के लिए बतौर निर्माता आर.के. को सम्मान के साथ याद किया जाएगा. तीसरी कसम के हीरामन को जीने वाले अभिनेता को कोई कम नहीं आंक सकता ( राजकपूर की इस भारी ऊँचाई में मुकेश, शंकर-जयकिशन, शैंलेद्र-हसरत, अब्बास और राधू कर्माकर, वी.पी. साठे को कद भी शामिल है. अगर अब्बास न मिले होते तो आर.के. का रोमांस, महज रोमांस से ऊपर कुछ नहीं होता.)
मगर राजकपूर के सिनेमा का जो उत्तरार्ध सच है, वह एक लोकप्रिय सितारे, एक यथार्थ को सपने में मिलाकर सम्मोहित करने वाले चतुर निर्देशक और जेब के लिए पूरा ख्याल रखने वाले निर्माता का सच है.
संगम की वैजयंतीमाला का स्विमिंग सूट, जोकर की सिमी की टांगे, जिस देश में गंगा बहती है की पद्मिनी का स्नान, बॉबी की डिम्पल की बिकनीं, सत्यम शिवम के झरनें में नहाती जीनत और गंगा मैली की दूध पिलाती-नहाती-बुलाती मंदाकिनी ये सब राजकपूर की दी हुई हैं. लोग तर्क देते हैं कि तुम्हें मंदाकिनी और डिम्पल अश्लील क्यों लगती हैं? मैं सवाल करता हूँ पोस्टर पर और प्रचार में बिकनी और झरना स्नान ही क्यों दिखाया जाता है? और फिर तुम्हारा मकसद इस उद्घोष से समन्वित बताया जा रहा हो कि नदी और नारी की उदात्तता की कहानी है, तब दर्शक को सिर्फ मंदाकिनी का स्नान ही याद रहता है?
पंडित नेहरु ने एक बार राजकपूर और दिलीपकुमार को भारत माता की दो आँखें कहकर संबोधित किया था. सोवियत संघ में पं. नेहरु के बाद सर्वाधिक लोकप्रियता राजकपूर को मिली थीं. राजकपूर की फिल्म आवारा और शीरी 420 सोवियत संघ के सिनेमा घरों में बगैर रुके लगातार 2 साल चलीं थीं. चीन के राष्ट्रपति माओत्से तुंग की मनपसंद फिल्म आवारा थीं. आवारा के 18 भाषाओं में संस्करण रुस, मध्यपूर्व, चीन और जापान के लिए जारी हुए थे. प्रथम अंतरिक्ष यात्री गगारिन जब भारत आए तो उन्होंने राजक पूर का अभिवादन आवारा हूँ कह कर किया था. बहरहाल, यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि जोकर राजकपूर अलग राजकपूर था. उसके बाद जोकर की असफलता से पराजित महसूस करता हुआ राजकपूर बॉबी में अपने पुराने मूल्यों को अलग कमरे में बंद करके चाबी खो आया. उसकी नीली आँखों में अभिनय के लिहाज से भरपूर भोलापन था, मगर उन्हीं आँखों के पीछे एक लोकप्रिय स्टार, सफल निर्देशक और व्यावायिक दिमाग वाले निर्माता की बॉक्स ऑफिसीय दृष्टि भी लगातार मौजूद थीं. और यहीं, उन आँखों का सच भी था.

हिमांशु राय ने दी भारतीय सिनेमा को नई पहचान





स्मरण दिवस-19 मई पर विशेष---------रवि के. गुरुबक्षाणी
हिमांशु राय भारतीय सिनेमा के इतिहास में कभी ना भुलाया जाने वाला नाम है. दादा साहेब फालके, आर्देशर ईरानी, हीरालाल सेन, और व्ही. शांताराम की तरह हिमांशु राय की भी भारतीय सिनेमा के विकास में अहम भूमिका रहीं है. भारतीय सिनेमा से वे उस समय जुड़े जब शुरुआती दौर था. संघर्ष चल रहा था. हिमांशु ने भारतीय सिनेमा को विदेशों तक पहचान कराई. पूरे विश्व को अहसास कराया कि भारतीय सिनेमा उनस ज्यादा पीछे नहीं है. उनकी मूक फिल्म दि लाइट आफ एशिया इंगलैंड में नौ महीने चली थीं.
विश्व सिनेमा में भारत की सबसे पहले पहचान कराने वाले हिमांशु का जनम बंगाल में हुआ था. घर का थियेटर होने के कारण हिमांशु को कला के प्रति रुझाम बचपन से ही हो गया था. वकील बनाने के लिए पिता ने उन्हें इंगलैंड उच्च शिक्षा के लिए भेजा. वकालत के साथ साथ हिमांशु ने वहां पर रंगमंच से भी रिश्ता बना लिया. लंदन में भारतीय लेखक निरंजन पाल के नाटक द गाडेस में हिमांशु ने मुख्य भूमिका निभाई जो बहुत पसंद की गई थीं.
उन्हीं दिनों उनके दिमाग में विश्व के महान ग्रंथों पर फिल्मों की एक सीरिज बनाने का काम आया. उन्होंने 1924 में म्यूनिख की एक कंपनी एमेवेका को इसके लिए साझीदार बना दिया. एडविन आरनोल्ड के काव्य दि लाइट आफ एशिया के आधार पर भगवान बुद्ध के जीवन पर फिल्मांकन किया गया. इसमें गौतम बुद्ध की भूमिका स्वयं हिमांशु ने निभाई और यशोधरा की भूमिका दी गी 23 वर्षीय सीतादेवी (वास्तविक नाम-रेनी स्मिथ) को. निर्देशन किया जर्मनी के फ्रेज आस्टिन ने. यह फिल्म भारत की अपेक्षा विदेशों में ज्यादा चलीं. मध्य यूरोप में इसने धूम मचा दी थीं. लगातार नौ महीने चलकर इसने कीर्तिमान स्थापित कर दिया. विश्व स्तर पर दि लाइट आफ एशिया की व्यावसायिक सफलता को देकर कई फिल्मकारों ने हिमांशु के सामने फिल्में बनाने के प्रस्ताव रखें. सन 1926 में हिमांशु ने जर्मनी की एक फिल्म कंपनी के सहयोग से शिराज नाम की फिल्म का निर्माण किया. फिल्म का कथानक विश्व प्रसिद्ध ताजमहल से सम्बंधित था. फ्रांज आस्टिन निर्देशित इस फिल्म में उनकी नायिका थी सीता देवी. सीतादेवी इस फिल्म में मुमताज बनीं थीं. यह फिल्म भी काफी सफल रहीं थीं. भारत, इंगलैंड और जर्मनी के अलावा अन्य देशों में भी इस फिल्म ने अपनी सफलता के झंडें गाढ़ दिये थे.
तीन साल बाद 1929 में हिमांशु राय ने इंगलैंड और जर्मनी की कम्पनी की मदद से ए थ्री आफ डायस फिल्म का निर्माण किया. फ्रांज आस्टिन द्वारा ही निर्देशित इस फिल्म के निर्माण के दौरान हिमांशु राय व देविका रानी इतने निकट आ गए कि फिल्म पूरी होते होते दोनों का रिश्ता कलाकारों के बजाए पति-पत्नि का बन गया था. शिराज ने अच्छी खासी व्यावसायिक सफलता हासिल की थीं. इसके बाद हिमांशु राय ने इंग्लिश कम्पनी के साथ मिलकर पहली सवाक फिल्म कर्म का निर्माण देविका रानी को लेकर किया. कर्म को अपार सफलता मिलीं. हिमांशु राय के सामने पैसों का ढेर लग गया. हिमांशु राय ने समझदारी दिखाते हुए सन 1964 में बम्बई के मालाड में आधुनिक उपकरणों से युक्त बाम्बे टाकीज की स्थापना कर डाली. थोड़े से समय में बाम्बे टाकीज का नाम चारों तरफ फैल गया. इतना नाम बढ़ा कि इसका नाम ही अच्छी फिल्मों की जमानत बन गया.
बाम्बे टाकीज की पहली फिल्म थीं-जवानी की हवा. नजम और देविका रानी इसमें नायक नायिका थे. यह पहली फिल्म थी जिसमें पहली बार पाश्र्व गायन का प्रयोग किया गया. सन 1935 में बाम्बे टाकीज के लैब अस्टिस्टेंट अशोक कुमार का नाम नायक के रुप में उभरा. दरअसल हुआ यूं कि नजम अचानक बंबई से बाहर चले गए. चूंकि हिमांशु राय काफी अनुशासन व काम के पाबंद थे इसलिए वह अपनी फिल्म जीवन प्रभात के लिए नजम का इंतजार नहीं कर सकते थे. अत: उन्होंने अशोक कुमार को फिल्म का नायक बना दिया. हिमांशु राय का चयन सार्थक रहा. फिल्म बेहद सफल रहीं.

सन 1936 में हिमांशु राय ने छूआछूत के जैसे ज्वलंत विषय पर अछूत कन्या बनाई. ब्राम्हण लड़के व अछूत लड़की की प्रेम कहानी वाली इस फिल्म ने समाज के ठेकेदारों में खलबली मचा दी. बाक्स आफिस पर इस फिल्म ने शानदार सफलता हासिल की. इसके बाद बाम्बे टाकीज के बैनर तले सामाजिक विषयों से सम्बंधित कई फिल्मों का निर्माण हुआ.
हिमांशु राय को साहित्य के प्रति गहरा लगाव था. वह अक्सर स्तरीय कहानियों की तलाश में रहा करते थे. मुंशी प्रेमचंद, कवि नरेंद्र शर्मा, शाहिद लतीफ, इस्मत चुगताई, पंडित प्रदीप, निरंजन पाल, गोपाल सिंह नेपाली जैसी प्रसिद्ध हस्तियां काफी लम्बे समय तक बाम्बे टाकीज से जुड़ी रहीं. नए कलाकारों को मौका देने में हिमांशु राय कभी पीछे नहीं रहे. देविका रानी, देवी, अशोक कुमार, लीला चिटनीस, एस.मुखर्जी, ख्वाजा अहमद अब्बास, अमिय चक्रवर्ती जैसी हस्तियों को हिमांशु राय ही सामने लाए. हिमांशु राय दिन-रात फिल्मों की बेहतरी के लिए सोचते रहते थे.
सिर्फ छह वर्ष में ही बाम्बे टाकीज की उन्होंने विशिष्ट पहचान बना दी थीं. इसको और बड़ा आकार देने की योजना वे बना ही रहे थे कि 19 मई 1940 को सिर्फ 45 वर्ष की उम्र में उमका निधन हो गया. इतनी छोटी सी उम्र में उन्होंने जो उपलब्धियां हासिल की थीं, वह किसी अजूबे से कम नहीं थीं. आज भी पुराने लोग हिमांशु राय और बाम्बे टाकीज के चर्चे गर्व से किया करते हैं.

मोहन माखीजानी से बने थे मैक मोहन



विदाई आलेख-------रवि के. गुरुबक्षाणी
-------------------------------------------
मैक मोहन अब नहीं रहे जैसे ही यह समाचार सुना दिल धक से रह गया क्योंकि मैक मोहन से मेरी बातें उनकी ई-मेल आईडी सांभा एट दि रेट जीमेल डॉट काम पर होती रहती थीं.
नवभारत की तरफ से उनकी सुपुत्री विनती से बात हुई मोबाइल न. 09820227232 पर. उन्होंने बताया कि वे साल भर से कैंसर की लाईलाज बीमारी से पीडि़त थे. उनकी आखिरी फिल्म अतिथि के लिए बात चल रही थी पर वे नहीं कर पाए. फिल्मकारों के अनुसार वे जिदांदिल इंसान थे.
--------------------------------------------
मैक मोहन भले ही सांभा के पात्र के नाम से जाने पहचाने जाते रहे हो पर हर फिल्मकार जानता है कि वे अभिनय के प्रति समर्पित कलाकार थे. रंगमंच से लेकर फिल्मों तक की यात्रा में उन्होंने हमेशा अभिनय में कमाल की योग्यता दिखाई थीं. शोले से शुरुआत करते है. इस फिल्म में मैकमोहन का सिर्फ चार शब्दों का डायलाग था-सरदार सिर्फ 2 आदमी थे. और इन चार शब्दों ने मैक मोहन को देशभर में सांभा नाम से अमर कर दिया. सिर्फ चार शब्दों के डायलाग पर इतनी ख्याति मिलना उल्लेखनीय घटना है फिल्मी इतिहास में.
मैक मोहन मूलत: चरित्र अभिनेता थे. उन्होंने 200 के लगभग फिल्में की थीं. मैक मोहन की पहली फिल्म हकीकत थीं. जो 1962 के भारत-चीन युद््ध पर बनी चेतन आनंद की प्रसिद्ध फिल्म थीं. 1964 में प्रदर्शित इस फिल्म में मैक मोहन ने राम स्वरुप के छोटे भाई की भूमिका अभिनित की थीं. फिल्म में मैक मोहन की भूमिका सभी ने सराही थीं. ज्यादातर फिल्मों में उन्होंने नकारात्मक भूमिकाएं की थीं. इसकी वजह उनकी दाढ़ी थीं जो उन्हें बहुत प्रिय थीं. वे चाहते थे कि वे अपनी प्रिय दाढ़ी के बिना फिल्में ना करे और यही दाढ़ी का शौक उन्हें सकारात्मक भूमिकाओं से परे ले गया.
अपने परिवार के बारे में उन्होंने बताया था-मेरे पिता जो सेना में ऊँचे पद पर थे. वे चाहते थे कि मैं भी सेना में जाऊँ कितुं उन्होंने मुझ पर कभी अपनी पसंद कभी लादी नहीं. उन्होंने मुझे खुली छूट दी कि जो भी करना है इज्जत के साथ करो. मेरी पसंद फिल्में थी इसलिए मैं फिल्मों में आ गया. मेरे किरदार को हीरो से पिटना लिखा है तो पिटता ही रहा हूँ..
मैक मोहन नाम का राज क्या है--ऐसा है हम लोग सिंधी हैं. जब पिताजी इंगलैंड गए तो माखीजानी से अंग्रेजों ने मैक जानी कर दिया. माखीजानी को वे मैक जानी पुकारने लगे. बस फिर हम भी बन गए मोहन माखीजानी से मैक जानी. फिर हमने नाम के मैक मोहन रख दिया. इस प्रकार सेना के अफसर का बेटा बुरा आदमी (फिल्मों में) बन गया. अभिनय की बारीकियां मैक मोहन ने फिल्माया स्टूडियों में सुबोध मुखर्जी से सीखी. वे तब संजीव कुमार जी के बैच में थे. उनकी पहली फिल्म में उन्होंने इंद्राणी मुखर्जी के देवर का रोल किया जो सराहा गया था. चेतन आनंद के साथ उन्होंने सह-निर्देशक का काम भी देखा था फिल्म आखिरी खत के दौरान. मैक मोहन क्रिकेट के स्टेट लेवल खेल चुके थे और बहुत अच्छे क्रिकेटर माने जाते थे. उनकी पढ़ाई लिखाई लखनऊ में और मुंबई में हुई थीं. मैक मोहन का पसंदीदा रोल फिल्म आया सावन झूम के का है. इस फिल्म में उन्होंने एक पागल प्रेमी का रोल निभाया था जो प्रेमिका के धोखा देने के बाद सुध-बुध खो बैठता है. इस रोल के निभाने से पहले मैक मोहन 2 दिन तक पागलखाने में रहे थे. मैक मोहन कभी भी लीडिंग विलेन नहीं बन पाए क्या इसका उनको मलाल था तो जवाब है बिल्कुल नहीं क्योंकि वे खुद को कदकाठी के कारण इस लायक नहीं समझते थे. उन्होंने हालीवुड की कुछ फिल्में भी की थीं. मशहूर निर्देशक केविन की फिल्म मिस्ट्री आफ डार्क जंगल में मैक मोहन थे. मैक मोहन की पत्नी पेशे से डाक्टर है. वे अपने पीछे 2 लड़कियां और 1 सुपुत्र छोड़ गए हैं.
मैक मोहन की मशहूर फिल्मों में शोले, जंजीर, मजबूर, दीवार, मेमसाब, सुहाना सफर, कसौटी, सलाखें, प्रेम रोग, डॉन, खून पसीना, हेरा फेरी, जानी दुश्मन, काला पत्थर, कर्ज, टक्कर, कुर्बानी, अलीबाबा और चालीस चोर, लक बाई चांस आदि शामिल है.