Tuesday, October 5, 2021

अभिनय में बेहद सरल सहज थीं दुलारी

हिंदी सिनेमा में मां का ज़िक़्र होते ही दुर्गा खोटे, ललिता पवार, लीला चिटनिस, निरुपा रॉय, कामिनी कौशल और सुलोचना जैसी अभिनेत्रियों के चेहरे ज़हन में घूमने लगते हैं। इन तमाम अभिनेत्रियों की छवि भले ही फ़िल्मी मां की हो लेकिन हिंदी सिनेमा के सुनहरी दौर के दर्शक इस बात से वाक़िफ़ हैं कि इन सभी ने अपने कॅरियर की शुरुआत बतौर हिरोईन की थी और इनमें से कुछ का शुमार तो अपने दौर की कामयाब हिरोईनों में किया जाता था। इसी सूची में एक नाम है दुलारी का, जिन्हें आमतौर पर दर्शक एक सीधी-सादी और ग़रीब फ़िल्मी मां के तौर पर जानते हैं। दुलारी ने भी शुरुआती कुछ फ़िल्में बतौर हिरोईन और साईड हिरोईन की थीं और ‘आना मेरी जान मेरी जान संडे के संडे’ और ‘जवानी की रेल चली जाए’  ज़बर्दस्त हिट गीत भी दुलारी पर ही फ़िल्माए गए थे।
दुलारी का जन्म 18 अप्रॅल 1928 को नागपुर में हुआ था। दुलारी जी के अनुसार, उनके पूर्वज पीढ़ियों पहले अवध क्षेत्र से आकर नागपुर में बस गए थे। अपने माता-पिता की दुलारी पहली संतान थीं और घर में उनसे छोटे दो भाई थे। यूँ तो दुलारी जी का नाम अम्बिका रखा गया था, लेकिन घर में उन्हें सब राजदुलारी कहकर पुकारते थे जो आगे चलकर सिर्फ़ ‘दुलारी’ रह गया। उनके पिता विट्ठलराव गौतम डाकतार विभाग में नौकरी करते थे, लेकिन अभिनय का उन्हें इतना शौक़ था कि अभिनेत्री अरुणा ईरानी के नाना की नाटक कंपनी जब नागपुर आई तो नौकरी छोड़कर वे उस कंपनी के साथ मुंबई आ गए। ये 1930 के दशक के शुरू का समय था।

‘नेशनल स्टूडियो’ को सोहराब मोदी की कंपनी ‘मिनर्वा मूवीटोन’ ने ख़रीदा तो उन्होंने दुलारी को 7 साल के लिए नौकरी पर रखना चाहा। लेकिन कांट्रेक्ट की कुछ शर्तें मंज़ूर न होने की वजह से दुलारी ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। ‘बॉम्बे टॉकीज़’ की फ़िल्म ‘हमारी बात’ में उन्होंने हीरो जयराज की छोटी बहन की भूमिका की तो ‘अमर पिक्चर्स’ की ‘आदाब अर्ज़’ में वे बतौर सहनायिका नज़र आयीं, जिसमें उनके हीरो गायक मुकेश थे। ये दोनों ही फ़िल्में 1943 में बनी थीं।

 
अगले क़रीब 35 सालों में दुलारी ‘जब प्यार किसी से होता है’, ‘मुझे जीने दो’ ‘अपने हुए पराए’ ‘आए दिन बहार के’, ‘अनुपमा’, ‘तीसरी क़सम’, ‘पड़ोसन’, ‘आराधना’, ‘आया सावन झूम के’, ‘चिराग़’, ‘इंतक़ाम’, ‘आन मिलो सजना’, ‘हीर रांझा’, ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘कारवां’, ‘लाल पत्थर’, ‘बेईमान’, ‘सीता और गीता’, ‘राजा रानी’, ‘अमीर ग़रीब’, ‘हाथ की सफ़ाई’, ‘दीवार’, ‘दो जासूस’, ‘आहुती’, ‘गंगा की सौगंध’, ‘बीवी ओ बीवी’, ‘नसीब’, ‘रॉकी’, ‘प्रेम रोग’, ‘अगर तुम न होते’ और धर्माधिकारी 135 फ़िल्मों में छोटी-बड़ी चरित्र भूमिकाओं में नज़र आयीं। 

एक इंटरव्यू में दुलारी जी का कहना था, “बढ़ती उम्र के साथ बिगड़ती सेहत का असर मेरे काम पर भी पड़ने लगा था। 1989 में बनी फ़िल्म ‘सूर्या’ के एक सीन में मुझे 200 जूनियर आर्टिस्टों की भीड़ के साथ दौड़ना था। निर्देशक इस्माईल श्रॉफ़ के एक्शन कहते ही मैंने दौड़ना शुरू किया। लेकिन गठिया की बीमारी की वजह से मैं कुछ ही दूर जाकर गिर पड़ी। जूनियर आर्टिस्टों की भीड़ मेरे पीछे दौड़ी चली आ रही थी। अभिनेता सलीम ग़ौस ने, जो मेरे बेटे की भूमिका में थे, बहुत मुश्किल से मुझे कुचले जाने से बचाया, और इस प्रयास में उन्हें भी हल्की चोटें आयीं। ऐसे में मैंने रिटायरमेंट ले लेना ही बेहतर समझा। फिर कई साल बाद निर्देशक गुड्डू धनोवा के आग्रह पर उनकी फ़िल्म ‘ज़िद्दी’ में  भूमिका की। इस तरह  1997 में रिलीज़ हुई ‘ज़िद्दी’ मेरी आख़िरी फ़िल्म साबित हुई।”
दुलारी जी के पति का निधन 1972 में हुआ। उनकी इकलौती बेटी की शादी हो चुकी थी। अभिनय से सन्यास लेने के बाद कुछ समय तो वे मुंबई में अकेली रहीं। 2002 में अपनी बेटी के पास इंदौर चली गयीं। दुलारी जी का आखिरी वक्त पुणे के वृद्धाश्रम में गुज़रा था। अभिनेत्री वहीदा रहमान ने दुलारी जी की काफी सहायता की थी। अपने आखिरी दौर में पिछले काफ़ी समय से अल्ज़ाईमर की बीमारी से पीड़ित हो गयी थी। 85 साल की दुलारी जी को दिसंबर 2012 के आख़िरी सप्ताह में पूना के एक अस्पताल में आई.सी.यू. में दाख़िल कराया गया था, जहां 18 जनवरी, 2013 को उनका देहांत हो गया।


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