Sunday, December 19, 2021

नलिनी जयवंत जन्म 18 फ़रवरी, 1926

*नलिनी जयवंत* 
आज हिंदी सिनेमा जगत की एक सुंदर अभिनेत्री नलिनी जयवंत जी का स्मृतिदिन ।

जन्म 18 फ़रवरी, 1926 जन्म भूमि बम्बई, ब्रिटिश भारत;
 मृत्यु 20 दिसम्बर, 2010 मृत्यु स्थान मुम्बई ।

          नलिनी जयवंत  भारतीय सिनेमा की उन सुन्दर अभिनेत्रियों में से एक थीं, जिन्होंने पचास और साठ के दशक में सिने प्रेमियों के दिलों पर राज किया। फ़िल्म 'काला पानी' का यह गीत 'नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर', इस गीत पर नलिनी जयवंत द्वारा किये गए अभिनय को भला कौन भुला सकता है। नलिनी जयवंत ने अपने फ़िल्मी सफर की शुरुआत वर्ष 1941 में प्रदर्शित फ़िल्म 'राधिका' से की थी। अपने समय के मशहूर अभिनेता अशोक कुमार के साथ उनके प्रेम की अफवाहें भी उड़ी थीं। अभिनेता दिलीप कुमार, देव आनन्द और अशोक कुमार के साथ नलिनी जयवंत ने कई सफल फ़िल्में दी थीं। 

        नलिनी जयवंत का जन्म 18 फ़रवरी, 1926 में ब्रिटिश भारत के बम्बई शहर (वर्तमान मुम्बई) में हुआ था। नलिनी के पिता और अभिनेत्री शोभना समर्थ (नूतन और तनुजा की माँ) की माँ रतन बाई रिश्ते में भाई-बहन थे, इसी नाते नलिनी, शोभना समर्थ की ममेरी बहन लगती थीं। वर्ष 1940 में नलिनी जयवंत ने निर्देशक वीरेन्द्र देसाई से विवाह किया। इस दौरान प्रसिद्ध अभिनेता अशोक कुमार के साथ नलिनी के प्यार की अफवाहें भी उड़ीं। बाद के समय में नलिनी जयवंत ने अभिनेता प्रभु दयाल के साथ दूसरा विवाह कर लिया। प्रभु दयाल के साथ उन्होंने कई फ़िल्मों में भी काम किया
        नलिनी जयवंत के हिन्दी सिनेमा में प्रवेश की कहानी भी काफ़ी रोचक है। किस्सा यूँ है कि हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर के निर्माता-निदेशकों में से एक थे- चमनलाल देसाई। वीरेन्द्र देसाई इन्हीं चमनलाल देसाई के पुत्र थे। उनकी एक कंपनी थी 'नेशनल स्टूडियोज़'। एक दिन दोनों पिता-पुत्र फ़िल्म देखने सिनेमाघर पहुँचे। शो के दौरान दोनों की नज़र एक लड़की पर पड़ी, जो तमाम भीड़ में भी अपनी दमक बिखेर रही थी। यह नलिनी जयवंत थीं, जिनकी आयु उस समय बमुश्किल 13-14 बरस की ही थी। दोनों पिता-पुत्र की जोड़ी ने दिल ही दिल में इस लड़की को अपनी अगली फ़िल्म की हिरोइन चुन लिया और ख़्यालों में खो गए। फ़िल्म कब ख़त्म हो गई और कब वह लड़की अपने परिवार के साथ ग़ायब हो गई, इसकी ख़बर तक दोनों को न हुई।
          एक दिन वीरेन्द्र देसाई अभिनेत्री शोभना समर्थ से मिलने उनके घर पहुँचे तो देखा कि नलिनी वहाँ मौजूद थीं। नलिनी को देखते ही उनकी आँखों में चमक आ गई और बाछें खिल गईं। असल में शोभना समर्थ, जिन्हें बाद में अभिनेत्री नूतन और तनूजा की माँ और काजोल की नानी के रूप में अधिक जाना गया, नलिनी जयवंत के मामा की बेटी थीं। इस बार वीरेन्द्र देसाई ने बिना देर किए नलिनी के सामने फ़िल्म का प्रस्ताव रख दिया। नलिनी के लिए तो यह मन माँगी मुराद पूरी होने जैसा था। डर था तो सिर्फ पिता का, जो फ़िल्मों के सख्त विरोधी थे। लेकिन वीरेन्द्र देसाई ने उन्हें मना लिया। इस मानने के पीछे एक बड़ा कारण था पैसा। उस समय जयवंत परिवार की आर्थिक स्थिति कुछ ठीक नहीं थी। रहने के लिए भी उन्हें अपने एक रिश्तेदार के छोटे-से मकान में आश्रय मिला हुआ था। इस प्रकार नलिनी जयवंत की पहली फ़िल्म थी 'राधिका', जो 1941 में प्रदर्शित हुई। वीरेन्द्र देसाई के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे- हरीश, ज्योति, कन्हैयालाल, भुड़ो आडवानी आदि। फ़िल्म में संगीत अशोक घोष का था। इस फ़िल्म के दस में से सात गीतों में नलिनी जयवंत की आवाज़ थी। 
         फ़िल्म 'राधिका' के बाद इसी वर्ष महबूब ख़ान के निर्देशन में एक फ़िल्म रिलीज़ हुई 'बहन'। इस फ़िल्म में नलिनी के साथ प्रमुख भूमिका में थे शेख मुख्तार। साथ में थीं नन्हीं-सी मीना कुमारी, जो 'बेबी मीना' के नाम से इस फ़िल्म में एक बाल कलाकार थीं। इस फ़िल्म में संगीतकार अनिल बिस्वास ने नलिनी जयवंत से चार गीत गवाए थे। इन चार गीतों में से वजाहत मिर्ज़ा का लिखा हुआ एक गीत था- 'नहीं खाते हैं भैया मेरे पान', जो बहुत लोकप्रिय हुआ। 1941 में ही फिर से वीरेन्द्र देसाई के ही निर्देशन में बनी फ़िल्म 'निर्दोष' आई, जिसमें मुकेश नायक की भूमिका में थे। फ़िल्म में मुकेश की आवाज़ में कुल तीन गीत थे, जिनमें एक सोलो गीत 'दिल ही बुझा हुआ हो तो फस्ले बहार क्या' था और बाकी दो नलिनी जयवंत के साथ युगल गीत थे, जबकि नलिनी के तीन सोलो गीत थे। अपने एक संस्मरण में नलिनी जयवंत ने कहा था कि- "मैं जब बमुश्किल छह-सात साल की थी, तभी ऑल इंडिया रेडियो पर नए-नए शुरू हुए बच्चों के प्रोग्राम में भाग लेने लगी थी। इसी कार्यक्रम में हुई संगीत प्रतियोगिता में मैंने गायन के लिए प्रथम पुरस्कार जीता था।"
         नलिनी जयवंत अपनी पहली ही फ़िल्म से सितारा घोषित कर दी गई थीं। उस समय नलिनी फ्रॉक और दो चोटी के साथ स्कूल में पढ़ रही थीं। उम्र थी पन्द्रह साल। फ़िल्म 'आंख मिचौली' (1942) की सफलता ने उन्हें आसमान पर बिठा दिया। नलिनी को फ़िल्मों में सफलता तो मिल गई, लेकिन उसी के साथ नलिनी पर फिदा वीरेन्द्र देसाई को उनसे प्यार भी हो गया। शादी भी हो गई। इस मामले को उस दौर के लेखक ने इस तरह बयान किया है- "जब ये हंसती हैं तो मालूम होता है कि जंगल की ताज़गी में जान पड़ गई और नौ-शगुफ्ता कलियाँ फूल बनकर रुखसारों की सूरत में तब्दील हो गई हैं। नलिनी जयवंत ने 'आंख मिचौली' खेलते-खेलते मिस्टर वीरेन्द्र देसाई से 'दिल मिचौली' खेलना शुरू कर दिया और यह खेल अब बाकायदा शादी की कंपनी से फ़िल्माया जाकर ज़िंदगी के पर्दे पर दिखलाया जा रहा है।" लेकिन नलिनी जयवंत का यह वैवाहिक जीवन अधिक दिन तक नहीं चल सका और वीरेन्द्र देसाई से उनका तलाक हो गया। नलिनी ने दूसरा विवाह अपने एक साथी कलाकार प्रभू दयाल से किया।
        1950 के दशक में नलिनी जयवंत ने एक बार फिर धमाके के साथ अशोक कुमार के साथ फ़िल्म 'समाधि' और 'संग्राम' से नई ऊँचाई हासिल की। हालांकि 1948 की फ़िल्म 'अनोखा प्यार' में दिलीप कुमार और नर्गिस के मुकाबले जिस अंदाज़ में उन्होंने काम किया, उसकी ज़बर्दस्त तारीफ हो चुकी थी, लेकिन इन दो फ़िल्मों ने उनके स्टारडम में चार चाँद लगा दिए। फ़िल्म 'समाधि' में "गोरे-गोरे ओ बांके छोरे, कभी मेरी गली आया करो" गीत पर कुलदीप कौर के साथ उनका नाच अब तक याद किया जाता है। 
       अशोक कुमार के साथ नलिनी जयवंत की जोड़ी कामयाब तो हुई, वहीं दोनों के रोमांस की चर्चा भी शुरू हो गई। अशोक कुमार ने अपने परिवार से अलग चैम्बूर के यूनियन पार्क इलाके में नलिनी जयवंत के सामने एक बंगला भी ले लिया, जहाँ वे ज़िंदगी के आखि़री दिनों में भी बने रहे और वहीं प्राण त्यागे। इस जोड़ी ने 1952 में 'काफिला', 'नौबहार' और 'सलोनी' फिर 1957 में 'मिस्टर एक्स' और 'शेरू' जैसी फ़िल्में कीं। दिलीप कुमार के साथ, जिन्होंने नलिनी जयवंत को 'सबसे बड़ी अदाकारा' का दर्जा दिया, उन्होंने 'अनोखा प्यार' के अलावा 'शिकस्त' (1953) और देव आनंद के साथ 'राही' (1952), 'मुनीमजी' (1955) और 'काला पानी' (1958) जैसी कामयाब फ़िल्में कीं। 

पुरस्कार : फ़िल्म 'काला पानी' में किशोरी बाई वाली भूमिका के लिए तो नलिनी जयवंत को सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला। 
       निदेशक रमेश सहगल की दो फ़िल्मों 'शिकस्त' और 'रेलवे प्लेटफॉर्म' (1955) की भूमिकाओं के लिए भी नलिनी जयवंत को याद किया जाता है। 'काला पानी' के बाद उन्होंने फ़िल्मों में काम लगभग बंद कर दिया। दो फ़िल्में 'बॉम्बे रेसकोर्स' (1965) और 'नास्तिक' (1983) इसका अपवाद हैं। ये दोनों फ़िल्में भी रिश्तों के दबाव में ही कीं। 'नास्तिक' में उन्होंने अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका निभाई थी।

 नलिनी जयवंत की प्रमुख फ़िल्में  :  नास्तिक 1983 बोम्बे रेसकोर्स 1965 गर्ल्स हॉस्टल 1963 तूफ़ान में प्यार कहाँ 1963 जिन्दगी और हम 1962 अमर रहे ये प्यार 1961 मुक्ति 1960 माँ के आँसु 1959 काला पानी 1958 मिलन 1958 शेरू 1957 नीलमणि 1957 मिस बॉम्बे 1957 कितना बदल गया इंसान 1957 हम सब चोर हैं 1956 देर्गेश नन्दिनी 1956 आवाज़ 1956 इंसाफ़ 1956 आन बान 1956 रेलवे प्लेटफ़ार्म 1955 मुनीमजी 1955 राजकन्या 1955 बाप बेटी 1954 नाज़ 1954 लकीरें 1954 महबूब 1954 शिकस्त 1953 राही 1953 सलोनी 1952 काफ़िला 1952 नौबहार 1952 दो राह 1952 नौजवान 1951 एक नज़र 1951 नन्दकिशोरी 1951 संग्राम 1950 समाधि 1950 आँखें 1950 अनोखा प्यार 1948 गुंजन 1948 आँख मिचोली 1942 राधिका 1941 निर्दोष 1941 बहन 1941 ..

निधन :  नलिनी जयवंत कभी-कभी घर की ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदने बाज़ार जाती थीं। अशोक कुमार से भी एक अरसे तक जीवंत संपर्क बना रहा, लेकिन बाद में कुछ ऐसा हुआ, जिसके बारे में किसी को कोई ख़बर नहीं। नलिनी जयवंत ने ख़ुद को घर में ही कैद कर लिया। घर के सामने ही रह रहे अशोक कुमार तक से आखि़र में मिलना छोड़ दिया। 20 दिसम्बर, 2010 को नलिनी जयवंत का देहांत हो गया। मोहल्ले के लोगों को उनके देहांत की ख़बर तब हुई, जब एक चौकीदार ने एक व्यक्ति को उस घर से शव को गाड़ी में ले जाते देखा। बाद में संदीप जयवंत नामक व्यक्ति का बयान आया कि वह नलिनी जी का भतीजा है और उसने नलिनी जी की ही इच्छा के अनुसार चुपचाप उनका दाह-संस्कार कर दिया है ।
मा.नलिनी जयवंत जीं की स्मृतिमे अपने समुह मी ओर से आदरांजली ।
विजयकुमार पांदे ।
संदर्भ : इंटरनेट ।

Tuesday, December 14, 2021

स्मिता पाटिल......17 अक्तूबर 1955, जन्म 13 दिसंबर 1986, मृत्यु

स्मिता पाटिल......

17 अक्तूबर 1955, जन्म 
 13 दिसंबर 1986, मृत्यु

इंडस्ट्री में ऐसे बहुत से कलाकार हैं, जिन्होंने भले ही बॉलीवुड नगरी में कम समय के लिए काम किया लेकिन वो छाप गहरी छोड़ गए। उन्हीं में से एक थी प्यारी सी मुस्कान रखने वाली बॉलीवुड की सीरियस स्टार स्मिता पाटिल जिन्हें लोग उनकी सीरियस एक्टिंग के लिए जानते थे। महज 10 साल के अपने फिल्मी सफर में उन्होंने खूब नाम कमाया। आज फिल्म जगत में उनके नाम पर ‘स्मिता पाटिल अवॉर्ड’ भी दिए जाते हैं। हिन्दी और मराठी अभिनेत्री स्मिता पाटिल को ‘पद्म श्री’ पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है। जितनी देर उन्होंने इंडस्ट्री में काम किया सुर्खियां बटौरती रहीं हालांकि प्रोफेशेनल के साथ-साथ उनकी पर्सनल लाइफ भी लाइमलाइट में बनी रहीं और अचानक बेहद कम उम्र में वह दुनिया को अलविदा कह गई। अचानक हुई स्मिता की मौत ने पूरे बॉलीवुड को हिला कर रख दिया था। बेटे प्रतीक बब्बर के जन्म के करीब 2 सप्ताह बाद उनका निधन हो गया। 

फिल्मी करियर में बुलंदियां हासिल करने वाली स्मिता को पर्सनल लाइफ में वो खुशी नहीं मिली जैसी वो चाहती थी। उन पर किसी का घर तोड़ने के आरोप भी लगे। इसी बात को लेकर कड़ी आलोचनाएं भी हुई। उनकी मां उनसे दूर हो गईं। उनकी आखिरी इच्छा थी कि जब वह मर जाए तो उन्हें दुल्हन बनाया जाए। चलिए आज के इस पैकेज में हम आपको स्मिता पाटिल के जीवन से जुड़ी कुछ और अनसुनी बातें बताते हैं।

7 अक्तूबर 1956 में जन्मी स्मिता, महाराष्ट्र के एक बड़े घराने से ताल्लुक रखती थीं। उनके पिता उस समय महाराष्ट्र के कैबिनेट मंत्री थे। कहा जाता है कि स्मिता की मां विद्या ताई ने उनका नाम उनकी मुस्कान देखकर ही रखा था, उनकी इसी मुस्कान के आज भी कई कायल हैं। भले ही वह बड़े घराने से ताल्लुक रखती थी लेकिन उनका लाइफस्टाइल एकदम साधारण था। फिल्मों में आने से पहले स्मिता बॉम्बे दूरदर्शन में मराठी में समाचार पढ़ा करती थीं। स्मिता को साड़ी पहनना पसंंद नहीं था उन्हें जीन्स पहनना अच्छा लगता था तो स्मिता अक्सर न्यूज़ पढ़ने से पहले जीन्स के ऊपर ही साड़ी लपेट लिया करती थीं। 

फिल्म 'चरणदास चोर' से उन्होनें फिल्मी नगरी में कदम रखा था। निर्देशक श्याम बेनेगल ने अपने एक लेख में बताया था कि वह इतनी सादी थी कि लोग पहचान ही नहीं पाते थे कि वो हीरोइन हैं। एक किस्सा बताते हुए उन्होंने कहा कि फिल्म 'मंथन' शूटिंग के दौरान जब स्मिता सेट पर आती थीं तो वह जमीन पर ही बैठ जाती थीं।  जब लोग शूटिंग देखने आते थे। तो वह सबसे पूछते थे फिल्म की हिरोइन कौन है? कोई पहचान ही नहीं पाता था कि जमीन पर बैठी हुई लड़की फिल्म की एक्ट्रेस है। यही ख़ासियत थी स्मिता की। वो जो भी करती थीं उस रोल में ढल जाती थीं।

स्मिता पाटिल की जीवनी लिखने वाली मैथिलि राव उनके बारे में कहती हैं, कि बो बहुत साधारण थीं। गंभीर दिखने वाली स्मिता असल में शरारती व मस्ती करने वाली लड़की थी। उन्हें गाड़ी चलाने का शौंक था इसलिए तो 14 -15 साल की उम्र में ही उन्होंने चुपके से ड्राइविंग सीख ली। स्मिता की पर्सनल लाइफ उतार-चढ़ाव से भरी रही। वह शादीशुदा स्टार राज बब्बर के प्यार में पड़ गई थी। स्मिता की मां, इस रिश्ते के खिलाफ थीं क्योंकि वह कहती थीं कि महिलाओं के अधिकार के लिए लड़ने वाली स्मिता किसी और का घर कैसे तोड़ सकती है। स्मिता के लिए उनकी माँ रोल मॉडल थीं। मां का फैसला उनकी जिंदगी में बहुत मायने रखता था लेकिन राज बब्बर से अपने रिश्ते को लेकर स्मिता ने अपनी मां की भी नहीं सुनी। इसी बात को लेकर मां बेटी का आपसी रिश्ता खराब हो गया।

फिल्म 'भीगी पलकें' की शूटिंग सेट से राज और स्मिता की लव स्टोरी शुरू हुई थी। स्मिता के लिए राज अपनी पहली पत्नी को छोड़ उनके साथ ही लिव-इन में रहने लगे। राज बब्बर कहते थे कि वो अपनी पहली पत्नी को तलाक देकर स्मिता से शादी कर लेंगे हालांकि ऐसा हुआ नहीं था।  स्मिता को वो धीरे-धीरे अपने फ्रेंड सर्किल से भी दूर रखने लगे थे। लिव-इन में रहते ही वह एक बेटे की मां बनी। प्रतीक के जन्म के कुछ दिनों बाद 13 दिसंबर 1986 को स्मिता का निधन हो गया। स्मिता को वायरल इन्फेक्शन की वजह से ब्रेन इन्फेक्शन हो गया था जब वो प्रतीक के पैदा होने के बाद घर आई थी तो उनकी हालात खराब होती जा रही थी लेकिन वह अस्पताल नहीं जाना चाहती थी। वह कहती थीं कि मैं अपने बेटे को छोड़कर हॉस्पिटल नही जाऊंगी। जब इन्फेक्शन बहुत बढ़ गया तो उन्हें जसलोक हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया लेकिन उस समय तक काफी देर हो चुकी थी। स्मिता के अंग एक के बाद एक फेल होते चले गए। 

राज बब्बर के साथ उनका रिश्ता भी सहज नहीं रह गया था स्मिता अपने आखिरी दिनों में बहुत अकेला महसूस करती थीं। राज बब्बर जब हॉस्पिटल में पहुंचे, उस समय तक स्मिता ने ये फैसला कर लिया था की वो राज बब्बर से रिश्ता तोड़ लेंगी। स्मिता पाटिल की एक आखिरी इच्छा थी कि मरने के बाद उन्हें सुहागन की तरह मेकअप कर सजाया जाए और उनकी यह इच्छा मेकअप आर्टिस्ट दीपक सावंत ने पूरी की। स्मिता उनसे ही कहा करती थीं,  'दीपक जब मर जाउंगी तो मुझे सुहागन की तरह तैयार करना। उनकी यहीं इच्छा पूरी करने मेकअप आर्टिस्ट उनके घर पहुंचे।' वाक्या याद करते हुए उन्होंने कहा "एक बार उन्होंने राज कुमार को एक फ़िल्म में लेटकर मेकअप कराते हुए देखा और मुझे कहने लगीं कि दीपक मेरा इसी तरह से मेक अप करो और मैंने कहा कि मैडम मुझसे ये नहीं होगा। ऐसा लगेगा जैसे किसी मुर्दे का मेकअप कर रहे हैं। ये बहुत दुखद है कि एक दिन मैंने उनका ऐसे ही मेकअप किया। शायद ही दुनिया में ऐसा कोई मेकअप आर्टिस्ट होगा जिसने इस तरह से मेकअप किया हो।" 13 दिसंबर 1986 में स्मिता ने दुनिया को अलिवदा कह दिया। 
इस तरह एक बेहतरीन अदाकार बेहद कम उम्र में दुनिया को अलविदा कह गई इसी के साथ अपने बेटे के साथ वक्त बिताने की उनकी इच्छा थी अधूरी रह गई....

14 दिसम्बर

राज कपूर

"आज राज कपूर साहब की 97 जयंती(Birth Anniversary)है।
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राज कपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को पेशावर(अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनका जन्म पठानी हिन्दू परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम रणबीर राज कपूर था। उनके पिता का नाम पृथ्वीराज कपूर तथा उनकी माता का नाम रामशर्णी देवी कपूर था। उनके भाई का नाम शशि कपूर (1938-2017), शम्मी कपूर (1931-2011), नंदी कपूर (मृत्यु: 1931), देवी कपूर (मृत्यु: 1931) तथा उनकी बहन का नाम उर्मिला सियाल कपूर था। 1946 में राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर ने उनकी शादी अपने मामा की बेटी कृष्णा से करवाई। उनके बच्चों के नाम रणधीर कपूर, ऋषि कपूर, राजीव कपूर तथा उनकी बेटी  का नाम रितु नंदा (उद्योगपति राजन नंदा से शादी की), रीमा जैन (निवेश बैंकर मनोज जैन से शादी की) है।

शिक्षा
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राज कपूर ने अपनी शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेजिएट स्कूल, कोलकाता और कर्नल ब्राउन कैम्ब्रिज स्कूल, देहरादून से प्राप्त की।

करियर
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राज कपूर ने 1930 के दशक में बॉम्बे टॉकीज़ में क्लैपर-बॉय और पृथ्वी थिएटर में एक अभिनेता के रूप में काम किया, ये दोनों कंपनियाँ उनके पिता पृथ्वीराज कपूर की थीं।  राज कपूर बाल कलाकार के रूप में ‘इंकलाब’ (1935) और ‘हमारी बात’ (1943), ‘गौरी’ (1943) में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आ चुके थे। राज कपूर ने फ़िल्म ‘वाल्मीकि’ (1946), ‘नारद और अमरप्रेम’ (1948) में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन तमाम गतिविधियों के बावज़ूद उनके दिल में एक आग सुलग रही थी कि वे स्वयं निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी स्वतंत्र फ़िल्म का निर्माण करें। उनका सपना 24 साल की उम्र में फ़िल्म ‘आग’ (1948) के साथ पूरा हुआ। राज कपूर ने पर्दे पर पहली प्रमुख भूमिका ‘आग’ (1948) में निभाई, जिसका निर्माण और निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था। इसके बाद राज कपूर के मन में अपना स्टूडियो बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ ज़मीन लेकर 1950 में उन्होंने अपने आर. के. स्टूडियो की स्थापना की और 1951 में ‘आवारा’ में रूमानी नायक के रूप में ख्याति पाई। राज कपूर ने ‘बरसात’ (1949), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) व ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन’ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है।  

 उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। राज कपूर बाल कलाकार के रूप में ‘इंकलाब’ (1935) और ‘हमारी बात’ (1943), ‘गौरी’ (1943) में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आ चुके थे। राज कपूर ने फ़िल्म ‘वाल्मीकि’ (1946), ‘नारद और अमरप्रेम’ (1948) में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन तमाम गतिविधियों के बावज़ूद उनके दिल में एक आग सुलग रही थी कि वे स्वयं निर्माता-निर्देशक बनकर अपनी स्वतंत्र फ़िल्म का निर्माण करें। उनका सपना  चेम्बूर में चार एकड़ ज़मीन लेकर 1950 में उन्होंने अपने आर. के. स्टूडियो की स्थापना की और 1951 में ‘आवारा’ में रूमानी नायक के रूप में ख्याति पाई। राज कपूर ने ‘बरसात’ (1949), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956) व ‘मेरा नाम जोकर’ (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। उन्होंने ऐसी कई फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें उनके दो भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर और तीन बेटे रणधीर, ऋषि व राजीव अभिनय कर रहे थे। यद्यपि उन्होंने अपनी आरंभिक फ़िल्मों में रूमानी भूमिकाएँ निभाईं, लेकिन उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित्र ‘चार्ली चैपलिन‘ का ग़रीब, लेकिन ईमानदार ‘आवारा’ का प्रतिरूप है। उनका यौन बिंबों का प्रयोग अक्सर परंपरागत रूप से सख्त भारतीय फ़िल्म मानकों को चुनौती देता था। मेरा नाम जोकर, संगम, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है, उनकी कुछ बेहतरीन फिल्में रही। बॉबी, राम तेरी गंगा मैली, प्रेम रोग जैसी हिट फिल्मों का निर्देशन भी किया।
 विवाद
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उनकी पत्नी कृष्णा, नर्गिस, पद्मिनी और वैजयन्ती माला जैसी भारतीय नायिकाओं के साथ उनके सबंधों से काफी परेशान रहती थीं, जिसके चलते वह कई बार उनका घर भी छोड़ देती थीं।
वर्ष 1978 में, उन्होंने महान गायिका लता मंगेशकर से वादा किया कि वह उनके भाई हृदयनाथ मंगेशकर को फिल्म ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में संगीत निर्देशक के रूप में नियुक्त करेंगे। लेकिन जब लता मंगेशकर एक संगीत दौरे पर संयुक्त राज्य अमेरिका गई हुई थीं, तब उन्होंने इस फिल्म के लिए हृदयनाथ मंगेशकर की जगह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को संगीत निर्देशक के रूप में नियुक्त कर लिया। जिसके बाद लता मंगेशकर उनसे नाराज हो गईं।
उन्होंने छोटे कपड़ों में नायिकाओं से दृश्य करवाए, जिसमें उनकी त्वचा जरूरत से ज़्यादा प्रदर्शित की जा रही थी। यही नहीं उन्होंने अपने सह-कलाकारों के साथ अभिनेत्रियों के साथ अर्ध नग्न दृश्यों को भी शॉट किया। जो कि उस समय भारत में इतना सामान्य नहीं था। जिसके चलते उन्हें दर्शकों द्वारा कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।
पुरस्कार
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राज कपूर को सन् 1987 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया था।
राज कपूर को कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन् 1971 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
1960 में फिल्म अनाड़ी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार  से सम्मानित किया
1962 में फिल्म जिस देश में गंगा बहती है के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार से नवाजा गया।
1965 में उन्हे सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार संगम फिल्म के लिए दिया गया।
1972 में फिल्म मेरा नाम जोकर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
1983 में उन्हे फिल्म प्रेम रोग के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार दिया गया।
मृत्यु
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राज कपूर की मृत्यु 2 जून 1988 को नई दिल्ली में हुई।

फिल्मे
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1970 मेरा नाम जोकर
1968 सपनों का सौदागर
1967 अराउन्ड द वर्ल्ड
1967 दीवाना
1966 तीसरी कसम
1964 संगम
1964 दूल्हा दुल्हन
1963 दिल ही तो है
1963 एक दिल सौ अफ़साने
1962 आशिक
1961 नज़राना
1960 जिस देश में गंगा बहती है
1960 छलिया
1960 श्रीमान सत्यवादी
1959 अनाड़ी
1959 कन्हैया
1959 दो उस्ताद
1959 मैं नशे में हूँ
1959 चार दिल चार राहें
1958 परवरिश
1958 फिर सुबह होगी
1957 शारदा
1956 जागते रहो
1956 चोरी चोरी
1955 श्री 420
1954 बूट पॉलिश
1953 धुन
1953 आह
1953 पापी
1952 अनहोनी
1952 अंबर
1952 आशियाना
1952 बेवफ़ा
1951 आवारा
1950 सरगम
1950 भँवरा
1950 बावरे नैन
1950 प्यार
1950 दास्तान
1950 जान पहचान
1949 परिवर्तन
1949 बरसात
1949 सुनहरे दिन
1949 अंदाज़
1948 अमर प्रेम
1948 गोपीनाथ
1948 आग
1947 जेल यात्रा
1947 दिल की रानी
1947 चित्तौड़ विजय
1947 नीलकमल
1982 वकील बाबू
1982 गोपीचन्द जासूस
1981 नसीब
1980 अब्दुल्ला
1978 सत्यम शिवम सुन्दरम
1978 नौकरी
1977 चाँदी सोना
1976 ख़ान दोस्त
1975 धरम करम
1975 दो जासूस
1973 मेरा दोस्त मेरा धर्म
1971 कल आज और कल
1946 वाल्मीकि
1943 गौरी
1943 हमारी बात
1935 इन्कलाब

(गूगल से कॉपी)

शैलेन्द्र 20 अंतरे

tributes to the greatest lyricist Kaviraj Shailendra. reproducing here some of his best antaras 🙏

जो ठोकर न खाए , नहीं जीत उसकी
जो गिर के संभल जाए, है जीत उसकी
निशा मंज़िलो के , ये पैरो के छाले
कहा जा रहा है , तू ऐ जाने वाले
अँधेरा है मन का दीया तो जला ले ( seema )

ीतलती हवा नीलम सा गगन , कलियों पे यह बेहोशी की नमी
ऐसे में भी क्यों बेचैन हैं दिल , जीवन में ना जाने क्या हैं कमी
क्यों आग सी लगा के गुमसुम हैं चाँदनी
सोने भी नहीं देता मौसम का यह इशारा
यह रात भीगी भीगी , यह मस्त फिजाये
उठा धीरे धीरे , वह चाँद प्यारा प्यारा ( chori chori ) 

रात ने प्यार के जाम भर कर दिये
आँखों आँखों से जो मैं ने तुमने पिये
होश तो अब तलक़ जा के लौटे नहीं
जाने क्या ला रही है सुबह प्यार की
रात के हमसफ़र   ...( an evening in paris )

चाहत ने तेरी मुझको , कुछ इस तरह घेरा
दिन को है तेरे चर्चे , रातों को ख्वाब तेरा
तुम हो जहाँ है वहीं पर , रहता है दिल भी मेरा
बस एक ख्याल तेरा , क्या शाम क्या सवेरा
मुझे कितना प्यार है तुमसे , अपने ही दिल से पूछो तुम
जिसे दिल दिया है वह तुम हो , मेरी ज़िन्दगी तुम्हारी है ( dil tera deewana)

दिल के मेरे तुम, पास हो कितनी, फिर भी हो कितनी दूर
तुम मुझ से मैं, दिल से परेशाँ, दोनों हैं मजबूर
ऐसे में किसको, कौन मनाये , दिन ढल जाये हाये ... ( guide ) 

सितारों की महफ़िल ने करके इशारा , कहा अब तो सारा जहां है तुम्हारा
मोहब्बत जवां हो, खुला आसमां हो , करे कोई दिल आरजू और क्या
ये रातें, ये मौसम... ( dilli ka thug )

ऊपर-नीचे नीचे-ऊपर लहर चले जीवन की,  नादान है जो बैठ किनारे, पूछे राह वतन की 
चलना जीवन की कहानी रुकना मौत की निशानी 
सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी

तन सौंप दिया, मन सौंप दिया , कुछ और तो मेरे पास नहीं 
जो तुम से है मेरे हमदम , भगवान से भी वो आस नहीं 
जिस दिन से हुए एक दूजे के  , इस दुनिया से अनजान है हम 
एक दिल के दो अरमान हैं हम  , ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम (sangam)

रानी के संग राजा डोले सजाते, चले जाएंगे परदेस
जब-जब उनकी याद आयेगी, दिल पे लगेगी ठेस
नैनों में होगी बरसात, अन्धेरी होगी रात , मगन मैं नाचूंगी ( aah )

दो चमकती आँखों में , कल ख्वाब सुनहरा था जितना
है जिंदगी तेरी राहों में , आज अँधेरा है उतना
हम ने सोचा था जीवन में ,  फूल चाँद और तारे हैं
क्या ख़बर थी साथ में इनके , कांटे और अंगारे हैं
हम पेह किस्मत हँस रही है , कल हँसे थे हम जितना ( detective )

कह रहा है मेरा दिल, अब ये रात न ढले
खुशियों का ये सिलसिला, ऐसे ही चला रहे
तुझको देखूँ देखूँ जिधर, फिर क्यों मुझको लगता है डर
तेरा मेरा प्यार अमर, फिर क्यों मुझको लगता है डर
मेरे जीवन साथी बता, दिल क्यों धड़के रह-रह कर ( asli naqli )

Sunday, December 12, 2021

नदिया के पार

'नदिया के पार' की गुंजा यानी साधना सिंह इस फिल्म से काफी पॉपुलर हो गई थीं. यूपी के छोटे से गांव के परिवेश पर बनी यह फिल्म दृश्यों के हिसाब से बेशक साधारण लगे, लेकिन लोगों के दिलों में इसने गहरी जगह बनाई थी. इस फिल्म की हीरोइन साधना सिंह ने यह सोचा भी नहीं था कि वह कभी हीरोइन बनेंगी, लेकिन बहन के साथ एक फिल्म की शूटिंग देखने के लिए गई साधना सिंह पर सूरज बड़जात्या की नजर पड़ी और वह इस फिल्म की हीरोइन चुन ली गईं. साधना सिंह खुद भी कानपुर के एक छोटे से गांव नोनहा नरसिंह की रहना वाली हैं. उनकी मासूमियत के लोग इस कदर दीवाने हुए कि आज भी लोगों के जहन में वह मौजूद हैं.
यह फिल्म ब्लॉकबस्टर साबित हुई. साधना जहां भी जातीं लोग उन्हें गुंजा कहकर पुकारते. शहरों के साथ-साथ गांवों में भी लोग उनसे मिलने के लिए भीड़ लगा लेते थे. उनके लिए दीवानगी इस कदर थी कि लोगों ने अपनी बेटियों का नाम ही गुंजा रखना शुरू कर दिया था. 
'नदिया के पार' की शूटिंग जौनपुर एक गांव में हुई थी. कहा जाता है कि जब इस फिल्म की शूटिंग खत्म हुई थी तो उस गांव के लोग रोने लगे थे. गांव में शूटिंग के दौरान गुंजा और गांव वालों के बीच एक आत्मीय रिश्ता बन गया था. यह फिल्म 1 जनवरी 1982 को रिलीज हुई थी.

🌺🌺ये फिल्म प्रसिद्ध लेखक केशव प्रसाद जी के हिन्दी उपन्यास.. कोहबर की शर्त पर आधारित है.. 

जब ये फिल्म आई थी हम इस दुनिया में आए भी नहीं थे.. 
लेकिन हमने हमारी माॅं के साथ बहुत बार देखा हुआ है.. 
 माँ तो बचपन में ही 2__3 बार इस फिल्म को देख चुकी थीं.. शादी के बाद जब कभी माॅं अपने मायके में होती और ये फिल्म टीवी में आ रहा होता तो हमारे छोटे मामा जी माँ को बुलवाते.. सपरिवार देखते तो हम भी देख लेते माँ का साथ बचपन में कभी नहीं छोड़ा हमनें.. 
आज भी इस फिल्म का क्रेज हमारी माॅं के दिल में कम नहीं हुआ है. जब भी कभी टीवी पर ये फिल्म आती है माॅं पुरे मन से देखती हैं
इसमें का एक गाना माँ अक्सर गुनगुनाती हैं.. 

कौन दिशा में लेके चला रे बटुहिया ये ठहर ठहर ये सुहानी सी डगर. जरा देखन दे.. देखन दे..

मन भरमाए नैना बांधे ये डगरिया
मन भरमाए नैना बांधे ये डगरिया.
कहीं गए जो ठहर दिन जाएगा गुजर.
गाड़ी हांकन दे. हांकन दे... 

आज हमनें गुगल से काॅपी किया है जहाँ से फूल हैं वहाँ से हमनें लिखा है.. बाकी ऊपर का काॅपी है.. 

🙏🙏🙏🙏❤❤🥀🥀💐💐🌺🌺🌼🌼

Wednesday, November 17, 2021

मजरूह सुल्तानपुरी

मजरूह सुल्तानपुरी जी को याद करते हुए ये लेख लिखा है संगीतविद युनुस खान जी ने, और प्रस्तुत किया है प्रभात रंजन जी ने, साथ में उनके लिखे ५० सर्वश्रेष्ठ गीतों की सूची भी दी गई है।

मजरूह ने फिल्‍म-संगीत को ‘शायरी’ या कहें कि ‘साहित्‍य’ को ऊंचाईयों तक पहुंचाने में महत्‍वपूर्ण योगदान दिया। उनके कई ऐसे गाने हैं जिन्‍हें आप बहुत ही ऊंचे दर्जे की शायरी के लिए याद कर सकते हैं। फिल्‍म ‘तीन देवियां’ (संगीत एस.डी.बर्मन, 1965) के एक बेहद नाज़ुक गीत में वो लिखते हैं—‘मेरे दिल में कौन है तू कि हुआ जहां अंधेरा, वहीं सौ दिए जलाए, तेरे रूख़ की चांदनी ने’। या फिर ‘ऊंचे लोग’ (संगीतकार चित्रगुप्‍त, 1965) में उन्‍होंने लिखा—‘एक परी कुछ शाद सी, नाशाद सी, बैठी हुई शबनम में तेरी याद की, भीग रही होगी कहीं कली-सी गुलज़ार की, जाग दिल-ऐ-दीवाना’। इसी तरह फिल्‍म ‘फिर वही दिल लाया हूं’ में उनका एक बड़ा ही प्‍यारा गाना है—‘आंचल में सजा लेना कलियां, ऐसे ही कभी जब शाम ढले, तो याद हमें भी कर लेना’(संगीतकार ओ.पी.नैयर, 1963)। ये वो गाने हैं जिन्‍हें अगर सुबह-सुबह सुन लिया जाए तो कई दिनों तक ये हमारे होठों पर सजे रहते हैं। असल में ये प्‍यार की फुहार में भीगी नाज़ुक कविताएं हैं। अफ़सोस के साथ आह भरनी पड़ती है कि हाय…कहां गया वो ज़माना….अब ऐसे गीत क्‍यों नहीं आते।
मजरूह बाक़ायदा शायर थे। मुशायरे पढ़ा करते थे। पढ़ाई ‘हकीमी’ की कर रखी थी। और एक बार सन 1945 में बंबई आए तो ‘कारदार फिल्‍म्‍स’ के ए.आर.कारदार ने फिल्‍मों में लिखने का न्‍यौ‍ता दिया, मजरूह ने ठुकरा दिया, पर बाद में क़रीबी दोस्‍त और अज़ीम शायर जिगर मुरादाबादी ने ज़ोर दिया तो मान गए। बस उसी साल सहगल की फिल्‍म ‘शाहजहां’ में लिखा—‘उल्‍फत का दिया हमने इस दिल में जलाया था, अरमान के फूलों से इस घर को सजाया था, एक भेदी लूट गया, हम जी के क्‍या करेंगे, जब दिल ही टूट गया’। कोई कह सकता है कि ये सहगल का एकदम शुरूआती गीत है।

मजरूह के शायराना गीतों का सरताज है फिल्‍म ‘दस्‍तक’ का गाना—‘हम हैं मताए-कूचओ बाज़ार की तरह’। इसी तरह अगर आप उनकी साहित्यिक ऊंचाई को देखना चाहें तो फिल्‍म ‘आरती’ का गाना याद कीजिए—‘कभी तो मिलेंगी बहारों की मंजिल राहें’। या फिर फिल्‍म ‘ममता’ का गाना—‘रहें ना  रहें हम महका करेंगे’। यहां आपको बता दें कि फिल्‍म ‘चिराग़’ के प्रोड्यूसर ने जब ज़ोर दिया कि फ़ैज़ की नज़्म की एक पंक्ति ‘तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्‍या है’ का इस्‍तेमाल करके गीत रचें तो मजरूह ने ज़ोर दिया कि पहले ‘फ़ैज़’ की इजाज़त लाईये। तब जो गीत बना उसकी दूसरी लाइन है—‘ये उठें शम्‍मां जले, ये झुकें शम्‍मां बुझे’। जबकि फ़ैज़ ने लिखा था—‘तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात/ तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्‍या है’।

मजरूह की सबसे बड़ी ख़ासियत ये रही है कि सन 1945 से लेकर साल 2000 तक वो सक्रिय रहे। और नौशाद से लेकर एकदम नए-नवेले संगीतकारों तक सबके साथ काम किया। बेहद साहित्यिक गीतों से लेकर बहुत ही खिलंदड़ और मस्‍ती-भरे अलबेले बोलों वाले गीत भी मजरूह ने लिखे। जितनी लंबी-सक्रियता और कामयाबी मजरूह की रही है—उसके जोड़ में बस उनसे कहीं जूनियर पर बराबर के प्रतिभाशाली आनंद बख्‍शी ही याद आते हैं। बहरहाल…मजरूह के खिलंदड़ गीतों को याद करें तो ‘c.a.t. cat cat यानी बिल्‍ली’ (फिल्‍म ‘दिल्‍ली का ठग’, संगीतकार रवि सन 1958) याद आता है। जिसमें मजरूह लिखते हैं—‘अरी बावरी तू बन जा मेरी ज़रा सुन मैं क्‍या कहता हूं/ तुझे है ख़बर ऐ जाने जिगर, तू कौन और मैं क्‍या हूं’ G. O. A. T. GOAT. GOAT माने बकरी, L. I. O. N. LION. LION माने शेर/ अरे मतलब इसका तुम कहो क्‍या हुआ’। ज़रा सोचिए कि नोंक-झोंक वाले गाने की ऐसी बनावट के बारे में क्‍या मजरूह से पहले या बाद में किसी ने सोचा। या फिर ‘गे गे रे गेली ज़रा टिम्‍बकटू’ (फिल्‍म ‘झुमरू’, संगीतकार किशोर कुमार, सन 1961)। इस गाने में मजरूह ने आगे क्‍या लिखा है ज़रा वो भी देखिए—भंवरे को क्‍या रोकेंगी दीवारें/कांटे चमकाएं चम चम तलवारें/पवन जब चली, ओ गोरी कली/मैं आया तेरी गली, कोई क्‍या कहेगा/ मैं हूं लोहा चुंबक तू/ गे गे गेली’। ऊट-पटांग अलफ़ाज़ वाले इस गाने की लाईनें भी कमाल की हैं। हैं कि नहीं। ज़रा फिल्‍म जालसाज़ के गाने पर ग़ौर कीजिए। ‘ये भी हक्‍का वो भी हक्‍का/ हक्‍का बक्‍का/ दुनिया पागल है अलबत्‍ता/ डाली टूटी फल है कच्‍चा/ बाग़ लगाया पक्‍का‘।

यानी मजरूह कैरेक्‍टर के मिज़ाज़ के मुताबिक़ लिखते हुए भी तहज़ीब और शाइस्‍तगी से ज़रा भी नहीं हटते थे। ऐसे गानों की फेहरिस्‍त भी देख ही लीजिए ज़रा। हास्‍य-अभिनेता मेहमूद की पहचान बन चुका ‘दो फूल’ फिल्‍म का गीत ‘मुत्‍तु कुड़ी कवाड़ी हड़ा’। ‘जोड़ी हमारी जमेगा कैसे जानी’ (फिल्‍म ‘औलाद’, चित्रगुप्‍त, सन 1968), ‘तू मूंगड़ा मैं गुड़ की डली’ (फिल्‍म ‘इंकार’, संगीत राजेश रोशन, सन 1978) ‘अंग्रेज़ी में कहते हैं कि आय लव यू’( फिल्‍म ‘ख़ुद्दार’, संगीतकार राजेश रोशन, सन 1982)  वग़ैरह।

मैंने पहले भी कहा कि मजरूह ने कभी शालीनता को नहीं छोड़ा। एक मिसाल लीजिए—उनका गाना है—‘आंखों में क्‍या जी, रूपहला बादल’। ये गाना आसानी से अश्‍लील हो सकता था। पर ज़रा देखिए मजरूह ने क्‍या लिखा—‘बादल में क्‍या जी, किसी का आंचल, आंचल में क्‍या जी, अजब-सी हलचल’। कमाल का गाना है ये। फिल्‍म ‘नौ दो ग्यारह’ (सन 1957)।

लेकिन मजरूह की असली ताक़त थे वो गाने जो फिल्‍म की मांग के मुताबिक़ लिखे गए। लेकिन उनमें शायरी के हिसाब से है काफी वज़न। नासिर हुसैन के साथ मजरूह का काफी पुराना नाता था। 1957 में जब नासिर हुसैन ने फिल्‍म ‘पेइंग-गेस्‍ट‘ लिखी तो उसके गीत मजरूह ने ही रचे। ‘चांद फिर निकला मगर तुम ना आए/ जला फिर मेरा दिल करूं क्‍या मैं हाय’ (संगीतकार एस.डी.बर्मन) जैसे गाने थे इस फिल्‍म में। इसके बाद नासिर निर्देशक बने और फिर बने प्रोड्यूसर। मजरूह उनके लिए लगातार लिखते रहे। कहते हैं कि फिल्‍म ‘तीसरी मंजिल’ (सन 1966) के लिए ‘पंचम’ यानी आर.डी.बर्मन के नाम का सुझाव उन्‍हीं ने दिया था। इसी फिल्‍म के एक गाने का जिक्र करना चाहता हूं। ‘तुमने मुझे देखा होकर मेहरबां’। इस गाने में मजरूह लिखते हैं—‘कहीं दर्द के सहरा में रूकते चलते होते/ इन होठों की हसरत में तपते-जलते होते/ मेहरबां हो गयीं ज़ुल्‍फ की बदलियां/ जाने-मन जानेजां/ तुमने मुझे देखा’। मजरूह का एक-एक शब्‍द जैसे धड़क रहा है इस गाने में। इसी फिल्‍म का एक और गीत लीजिए। ‘दीवाना मुझ सा नहीं/ इस अंबर के नीचे/ आगे हैं क़ातिल मेरा/ और मैं पीछे-पीछे’। बाक़यदा उर्दू-शायरी वाला मिज़ाज है इस गाने में। नासिर हुसैन के साथ लंबी फेहरिस्‍त है मजरूह की फिल्‍मों की। फिर वही दिल लाया हूं, तीसरी मंजिल, बहारों के सपने, प्‍यार का मौसम, कारवां, यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं, ज़माने को दिखाना है, क़यामत से क़यामत तक, जो जीता वही सिकंदर और अकेले हम अकेले तुम।
आज फिल्‍म-संगीत की जो हालत है, मजरूह इससे काफी दुखी थे। ‘आती क्‍या खंडाला’ जैसे गानों को उन्‍होंने एक समारोह में ‘कलम के साथ वेश्‍यावृत्ति’ कहा था। आज मजरूह साहब बहुत याद आ रहे हैं और हम उनके दीवाने उनकी याद को सलाम कर रहे हैं।

मजरूह के पचास बेमिसाल गानों की फ़ेहरिस्‍त
1. आ महब्‍बत की बस्‍ती बसायेंगे हम / फ़रेब 
2. आंचल में सजा लेना कलियां/ फिर वही दिल लाया हूं।
3. दिल पुकारे/ ज्‍वेल थीफ
4. कभी तो मिलेंगी बहारों की मंजिल/ आरती
5. आपने याद दिलाया / आरती
6. आयो कहां से घनश्‍याम/ बुड्ढा मिल गया।
7. नदिया किनारे हिराए आई/ अभिमान
8. अब तो है तुमसे/ अभिमान
9. तेरे मेरे मिलन की ये रैना/ अभिमान  
10. ये है बॉम्‍बे/ सी आई डी
11. ऐ दिल कहां तेरी मंजिल/ माया
12. कोई सोने के दिल वाला/ माया
13. जा रे उड़ जा रे पंछी/ माया
14. हम बेखुदी में तुमको/ काला पानी
15. कहीं बेख्‍याल होकर/ तीन देवियां
16. भोर भये पंछी/ आंचल
17. जलते हैं जिसके लिए। सुजाता
18. रहें ना रहें हम/ ममता
19. चल री सजनी अब क्‍या सोचे/ बंबई का बाबू
20. तेरी आंखों के सिवा/ चिराग
21. फिल्‍म दोस्‍ती के सभी गीत
22. हुई शाम उनका / मेरे हमदम मेरे दोस्‍त
23. चांद फिर निकला/ पेइंग गेस्‍ट
24. तुमने मुझे देखा/ तीसरी मंजिल
25. हम हैं राही प्‍यार के/ नौ दो ग्‍यारह
26. दिल जो ना कह सका/ भीगी रात
27. दिल का दिया जला के गया/ आकाशदीप
28. दिल की तमन्‍ना थी/ ग्‍यारह हज़ार लडकियां
29. वादियां मेरा दामन/ अभिलाषा
30. गा मेरे मन गा/ लाजवंती
31. गे गे गेली ज़रा/ झुमरू
32. जाग दिल-ए-दीवाना- ऊंचे लोग
33. हम हैं मताए-कूचओ-दस्‍तक
34. हमसफ़र साथ अपना/ आखिरी दांव
35. ये है रेशमी/ मेरे सनम
36. लाल लाल होंठवा/ लागी नाहीं छूटे रामा
37. पवन  दीवानी/ डॉ विद्या
38. ना तुम हमें जानो/ बात एक रात की।
39. भीगी पलकें ना उठा/ दो गुंडे
40. रूक जाना नही/ इम्तिहान
41. संध्‍या जो आए/ फागुन
42. सावन के दिन आए/ भूमिका
43. सुरमां मेरा निराला/ कभी अंधेरा कभी उजाला
44. वो तो है अलबेला/ कभी हां कभी ना
45. हाय रे तेरे चंचल नैनवा/ ऊंचे लोग
46. चांदनी रे झूम/ नौकर
47. आ री निंदिया/ कुंआरा बाप
48. ऐ दिल मुझे ऐसी जगह/ आरज़ू
49. माई री/ दस्‍तक
50. प्‍यार का जहां हो/ जालसाज़  

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मीना कुमारी की फिल्में

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          मीना कुमारी जी की बेहतरीन फिल्में

इनके अभिनय कौशल की चर्चा आज भी होती है। मीना कुमारी जी उन चंद अदाकाराओं में से हैं, जिन्होंने बतौर बाल कलाकार अपने करियर की शुरुआत की और फिर अदाकारी में अपने परचम फहरा दिए। जब भी दुख, दर्द, समर्पण, आभाव, सामाजिक दबाव आदि को पर्दे पर निभाने की बात आती थी, तो फिल्ममेकर्स को मीना कुमारी जी का ही नाम सबसे पहले याद आता था। शायद इन्हीं किरदारों की वजह से मीना ‘ट्रेजडी क्वीन’ बन गईं। आइए नज़र डालते हैं, उनकी कुछ ख़ास यादगार फिल्मों पर।

 मीना कुमारी जी ने अपने करियर की शुरुआत साल 1939 में आई फिल्म ‘लेदरफेस’ से की थी। बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट ग्यारह फिल्में करने के बाद उनको ‘बच्चो का खेल’ में लीड एक्ट्रेस बनने का मौका मिला। तब मीना जी 13 साल की थीं। मीना जी काम तो कर रही थीं, लेकिन एक अदाकारा के नाम में वो मुकाम हासिल नहीं हो पाया। आखिर साल 1952 में आई फिल्म ‘बैजू बावरा’ ने उनको बुलंदियों तक पहुंचाया।

मीना जी ने तीस साल के करियर में तकरीबन 90 फिल्मों में काम किया। इनमें से अधिकतर में उनकी अदाकारी को सराहा गया। लेकिन उनकी बेहतरीन फिल्मों में से कुछ चुनिंदा फिल्में लेकर आए हैं।

◆बैजू बावरा

साल 1952 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘बैजू बावरा’, वो पहली फिल्म थी, जिसके लिए मीना कुमारी को बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया। इस म्यूज़िकल फिल्म में मीना कुमारी जी के साथ भरत भूषण मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म में सोलहवीं शताब्दी का मुगल कालीन भारत दर्शाया गया था।

इस फिल्म को लेकर एक ख़ास बात बताते हैं। दरअसल, इस फिल्म के लिए पहली पसंद मीना कुमारी और भरत भूषण नहीं थे। बल्कि दिलीप कुमार और मधुबाला की जोड़ी बनने वाली थी। अब हुआ यह कि प्रोड्यूसर-डायरेक्टर विजय भट्ट अकबर के जमाने के महान संगीतकार बैजू बावरा यानी बैजनाथ मिश्रा पर फिल्म बनाना चाहते थे। बैजू बावरा को महाकवि तानसेन का प्रतिद्वंद्वी भी कहा जाता था।

ख़ैर, इस फिल्म के लिए विजय भट्ट दिलीप कुमार और मधुबाला को लेना चाहते थे, लेकिन बात बन नहीं पा रही थी। तब उन्होंने नए चेहरों को मौक़ा देने का मन बनाया। न सिर्फ इस फिल्म के अदाकार नए थे, बल्कि संगीतकार भी नया लिया। नए चेहरे थे, मीना कुमार और भरत भूषण और संगीतकार थे नौशाद। नौशाद ने ही विजय भट्ट को भरत भूषण को नाम सुझाया था। वहीं नायिका के रूप में अपनी ही फिल्म की बाल कलाकार, जब अब नवयौवना बन चुकी थी को चुना, वो थी मीना कुमारी।

●परिणीता

शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘परिणीता’ में मीना कुमारी केंद्रीय भूमिका निभाती नज़र आईं। इस फिल्म का निर्देशक विमल रॉय ने किया था। इस फिल्म के लिए भी उनको बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था। मीना कुमारी को लगातार दूसरी बार यह अवॉर्ड मिला।

●आज़ाद

साल 1955 में ट्रेजडी क्वीन और ट्रेजडी किंग की जोड़ी पहली बार बनी। एस एम श्रीरामुलु नायडू के निर्देशन में बनी फिल्म ‘आज़ाद’ में मीनी कुमारी के साथ दिलीप कुमार की जोड़ी बनी। यह फिल्म उस साल की बड़ी हिट फिल्म करार दी गई और फिल्मफेयर ने बेस्ट एक्ट्रेस का नॉमिनेशन भी मीना को दिया।

●एक ही रास्ता

बी आर चोपड़ा की साल 1956 में आई फिल्म ‘एक ही रास्ता’ को भी मीना कुमार की बेहतरीन अदाकारी के लिए जाना जाता है। इस पारिवारिक फिल्म में मीना कुमारी और अशोक कुमार की जोड़ी देखने को मिली। इस फिल्म में सुनील दत्त भी नज़र आए। यह फिल्म 25 सप्ताह तक चली और जुबली हिट साबित हुई।

●दिल अपना और प्रीत पराई

किशोर साहू के निर्देशन में बनी फिल्म ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ भी मीना कुमारी की बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाती है। उनकी अदाकारी को इस फिल्म में काफी सराहा गया था। इस फिल्म को मीना के पति कमाल अमरोही ने प्रोड्यूस किया था। साल 1960 में आई यह फिल्म एक रोमैंटिक ड्रामा फिल्म थी, जिसमें मीना के साथ राज कुमार और नादिरा मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म का गाना ‘अजीब दास्तां है ये’ आज की जनरेशन भी गुनगुनाती है।

●साहिब, बीवी और गुलाम

अबरार अल्वी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘साहिब, बीवी और गुलाम’ में मीना के द्वारा निभाई गई ‘छोटी बहू’ का किरदार भारती सिनेमा में मील का पत्थर है। इसे अब तक का सबसे शानदार फीमेल परफॉर्मेंस माना जाता है। साल 1962 में आई इस फिल्म के लिए मीना को बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। देश ही नहीं विदेश में भी इस फिल्म ने अपने परचम फहराए। तेरहवें बर्लिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म भी घोषित किया गया। फिल्म में मीन कुमारी के अलावा गुरुदत्त, रहमान, वहीदा रहमान और डी के सप्रू मुख्य भूमिका में थे।

●दिल एक मंदिर

साल 1963 में आई फिल्म ‘दिल एक मंदिर’ भी बॉक्स ऑफिस पर बड़ी हिट साबित हुई। सी वी श्रीधर के निर्देशन में बनी इस फिल्म में मीना के अलावा राजेंद्र कुमार और राज कुमार अहम भूमिका में थे। इस फिल्म के गाने भी बहुत लोकप्रिय हुए थे।

वैसे, तो यह फिल्म साल 1962 में आई तमिल फिल्म ‘नेन्जिल ओर आलायम’ की रीमेक थी। लेकिन फिर ‘दिल एक मंदिर’ के बॉक्स ऑफिस हिट होने के बाद, फिल्म को तेलुगु भाषा में साल 1966 में ‘मानासे मानदिरम’ नाम से बनाया गया। कन्नड़ भाषा में इसे साल 1977 में ‘कुमकुमा राक्शे’ और मलयालम में साल 1976 में ‘हृदयम ओरू क्षेत्रम’ के नाम से बनाया गया।

●काजल

साल 1965 में आई फिल्म ‘काजल’ के लिए मीना कुमारी को चौथा फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला था। राम माहेश्वरी के निर्देशन में बनी इस फिल्म में मीना कुमारी के अभियन की काफी प्रशंसा हुई थी। फिल्म में धर्मेंद्र और राज कुमार भी थे।

यह फिल्म गुलशन नंदा के उपन्यास ‘माधवी’ पर आधारित थी। इस किताब को फानी मजूमदार ने स्क्रिप्ट में बदला और केदार शर्मा ने इसेक डायलॉग लिखे। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस हिट करार दी गई और इसे तेलुगु में ‘मां इंती देवाथा’ के नाम से रीमेक किया गया।

●फूल और पत्थर

ओपी राधन के निर्देशन में बनी फिल्म ‘फूल और पत्थर’ में मीना कुमारी और धर्मेंद्र की जोड़ी नज़र आई। यह फिल्म गोल्डन जुबली हिट रही। साथ ही साल 1966 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनीं। हालांकि, इस फिल्म के लिए धर्मेंद्र नहीं, बल्कि सुनील दत्त पहली पसंद थे। यह फिल्म तमिल में ‘ओली विलैक्कू’ और मलयालम में ‘पुथिया वेलीचैम’ नाम से रीमेक हुई।

◆पाकीज़ा

साल 1972 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘पाकीज़ा’ मीना कुमारी की सबसे यादगीर आखिरी फिल्म मानी जाती है। इसका निर्देशन कमाल अमरोही यानी मीना कुमारी के पति ने किया था। 16 साल में यह फिल्म बन कर तैयार हुई थी। फिल्म 3 फरवरी को रिलीज़ हुई और 31 मार्च को मीना कुमारी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

इस फिल्म में मीना कुमारी के साथ अशोक कुमार और राज कुमार मुख्य भूमिका में थे। मीना ने दोहरी भूमिका निभाई थी। बेटी के साथ मां के भी किरदार में मीना ही नज़र आई थीं।

C/P

Tuesday, November 16, 2021

द अन किस्ड गर्ल निम्मी





यूं तो सिनेमा जगत में तमात अदाकारा हुई हैं जिन्होंने अपने अलग अंदाज से दर्शकों का दिल जीता। लेकिन आज हम उस अभिनेत्री के बारे में बात करने जा रहे हैं, जिन्हें 'द अनकिस्ड गर्ल ऑफ इंडिया' कहा जाने लगा था। हम बात कर रहे हैं 60 के दशक की चर्चित अभिनेत्री नवाब बानू उर्फ निम्मी की। एक्ट्रेस निम्मी का असली नाम नवाब बानो था लेकिन उनका फिल्मी नाम रखा गया था निम्मी। ये नाम उन्हें राज कपूर ने दिया था। 
1950 से 1960 के दशक में हिन्दी सिनेमा की जानी मानी अभिनेत्री निम्मी ने पूरी इंडस्ट्री को अपनी खूबसूरती का कायल बनाया हुआ था। उस जमाने में उनकी खूबसूरती का जादू फिल्ममेकर्स के सिर चढ़कर बोलता था। निम्मी ने अपनी बेहतरीन एक्टिंग से 50 और 60 के दशक में फीमेल एक्टर्स को शोपीस के तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाली विचार धारा को बदल दिया था।
निम्मी ने फिल्म बरसात, दीदार, आन, उड़न खटोला और बसंत बहार जैसी कई जानी मानी फिल्मों से नाम कमाया । उन दिनों निम्मी मधुबाला के बीच काफी गहरी दोस्ती थी। यही वजह थी की निम्मी को मधुबाला अपने दिल की हर बात बताती थी। निम्मी को पता था कि मधुबाला दिलीप कुमार को किस हद तक चाहती थीं।
निम्मी ने एक इंटरव्यू में बताया, फिल्म अमर (1954) के सेट पर हम दोनों में गहरी दोस्ती हो गई थी। हमारे बीच दिलीप कुमार को लेकर भी चर्चाएं होने लगीं, जो उस फिल्म में मुख्य अभिनेता की भूमिका निभा रहे थे। दिलीप कुमार को अपना दिल दे चुकीं मधुबाला के दिमाग में निम्मी की बातों से थोड़ा शक पैदा हुआ। मधुबाला के मन में यह स्वभाविक सवाल उठा, 'निम्मी दिलीप का उतना ही ख्याल क्यों रखती है, जितना मैं रखती हूं? अगर ऐसा है तो मुझे क्या करना चाहिए?'
एक दिन मधुबाला ने निम्मी से कहा, 'निम्मी, क्या मैं तुमसे कुछ पूछ सकती हूं? मुझे विश्वास है कि तुम मुझसे झूठ नहीं बोलोगी और मुझसे कुछ नहीं छुपाओगी।' जब निम्मी ने उन्हें आश्वस्त किया तो उन्होंने कहा कि अगर तुम दिलीप कुमार के बारे में वैसा ही महसूस करती हो जैसा मैं करती हूं तो मैं तुम्हारी खातिर उनकी जिंदगी से निकल जाऊंगी और मैं उन्हें तुम्हारे लिए दिलीप को छोड़ दूंगी।' निम्मी को यह सुन कर गहरा धक्का लगा। फिर निम्मी ने खुद को संभालते हुए मधुबाला से दोस्ताना अंदाज में कहा कि 'उन्हें दान में पति नहीं चाहिए'।

चित्रगुप्त 14 फरवरी d 16 नवम्बर b

महान संगीतकार चित्रगुप्त जी को उनकी जयंती पर याद करते हुए विनम्र स्मरणांजलि।

चित्रगुप्त के संगीत की मधुरता दिग्गज संगीतकारों से कम नहीं थी। फिर भी हिंदी फिल्म उद्योग में वे ताउम्र हाशिये पर रहे। चित्रगुप्त जी जिनका पूरा नाम चित्रगुप्त श्रीवास्तव था। इनका जन्म १६ नवंबर १९१७ को बिहार के सारन जिले (गोपालगंज) के सावरेजी गाँव में हुआ था। और १४ जनवरी १९९१ को इनका निधन हुआ था।

जब भी हिंदी फ़िल्म संगीत की बात होती है तो ५० से ६५ के दशक तक रचे गए संगीत के माधुर्य का जिक्र जरूर होता है पर चित्रगुप्त जी के हिस्से में ‘बी’ और ‘सी’ ग्रेड की ही फ़िल्में आईं पर उनमें दिया हुआ संगीत किसी भी लिहाज़ से दिग्गजों के संगीत से कम नहीं था।

पटना विश्वविद्यालय से उन्होंने अर्थशास्त्र में एमए किया था और लखनऊ के बेहद प्रतिष्ठित भातखंडे कॉलेज से संगीत की शिक्षा ली थी। संगीतकार बनने से पहले चित्रगुप्त पटना में लेक्चरर भी रहे। १९४५ में वे मुंबई चले आए,पहला मौका उन्हें फ़िल्म ‘रॉबिनहुड’(१९४६) में मिला।

वह स्टंट फ़िल्मों का दौर था. अपने शुरुआती फ़िल्मी करियर में चित्रगुप्त स्टंट फ़िल्मों के साथ भक्ति फ़िल्मों में संगीत देने के लिए प्रसिद्ध हुए। मिसाल के तौर पर फ़िल्म ‘तुलसीदास’ (१९५४) का भजननुमा गीत ‘मुझे अपनी शरण में ले लो राम’ कहा जा सकता है। इसे लिखा था हिंदी साहित्य की बड़ी मशहूर हस्ती गोपाल सिंह नेपाली ने, इन दोनों की जुगल जोड़ी ने कई शानदार गाने बनाए।

इसके बाद चित्रगुप्त को लता जी का साथ मिला। यहां से उनकी क़िस्मत बदली और एक के बाद एक सफल और मधुर गीत दोनों के हिस्से में जुड़ते चले गए। फ़िल्म ‘भाभी’ के सारे गीत यादगार बन पड़े हैं। ‘चल उड़ जा रे पंछी’ (राग पहाड़ी) या ‘चली चली रे पतंग’ (भैरवी) या ‘छुपा कर मेरी आंखों को वो पूछें कौन हैं जी हम’ गीत तो बेहद मधुर गीत हैं। फ़िल्म ‘आकाशदीप’(१९६५) का ‘दिल का दिया जला के गया ये कौन मेरी तन्हाई में’ तो निश्चित तौर लता मंगेशकर के सबसे मधुरतम गीतों में से कहा जाता है। इस गीत की ख़ास बात यह है कि लताजी ने इसे बेहद हौले से गाया है।

फ़िल्म ‘वासना’ (१९६८) का गीत ‘ये पर्वतों के दायरे, ये शाम का धुंआ’। इस फ़िल्म में उन्हें साहिर लुधायनवी का साथ मिला। मोहम्मद रफ़ी और मुकेश चित्रगुप्त के प्रमुख पुरुष गायक रहे। रफ़ी साहब ने उनके संगीत निर्देशन में बनी फ़िल्म ‘ऊंचे लोग’ (१९६५) में एक गीत ‘जाग दिले दीवाना, रुत जागी वस्ल-ये यार की’ गाया था। इस गीत में ऐसा लगता है मानो चित्रगुप्त ने उन्हें आवाज़ दबाकर, कुछ नाक का पुट और लफ़्ज़ों को हौले-हौले से लुढ़काने को कहा होगा। बहुत कम लोग जानते होंगे कि ‘भाभी’ का मशहूर गीत ‘चल उड़ जा रे पंछी’ पहले तलत महमूद से गवाया गया था, गाना आया तो इसमें मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ सुनाई दी। मोहम्मद रफ़ी ने चित्रगुप्त के संगीत से सजी फ़िल्म, ‘तूफ़ान में प्यार कहां’ में एक गीत गया था, ‘इतनी बड़ी दुनिया, जहां इतना बड़ा मेला’ ज़बरदस्त दार्शनिक अंदाज़ में गया। चित्रगुप्त जी ने कुछ प्रयोग किशोर दा की आवाज़ से साथ भी किए। उन्होंने ‘एक राज़’ (१९६३) में किशोर दा से क्लासिकल गीत गवाए ,  ‘अगर सुन ले तो एक नगमा हुज़ूरे यार लाया हूं’, ‘गंगा की लहरें’ (१९६४) में ‘मचलती हुई हवा में छम-छम’ और छेड़ों न मेरी ज़ुल्फें’ बड़े उत्कृष्ट गीत बन पड़े हैं।

यह वह दौर था जब चित्रगुप्त बड़े व्यस्त संगीतकार हो गए थे। उस दौर में भी एस डी बर्मन के कहने पर उन्होंने एक फ़िल्म में भक्ति संगीत दिया था। मध्यवर्गीय समाज की हलचल और उसके तौर-तरीक़ों वाली ज़िंदगी के इर्द-गिर्द बुनी फ़िल्मों का संगीत चित्रगुप्त का सिग्नेचर स्टाइल था। मैन्डोलिन का जितना प्रभाव उनके संगीत में मिलता है, उतना किसी और के संगीत में नहीं। बहुत कम लोगों को पता होगा कि #पूर्व_प्रधानमंत्री_स्वर्गीय_लाल_बहादुर_शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री जी के दो गीतों को उन्होंने संगीत से रचा था। चूंकि वे पूर्वांचल की पृष्ठ भूमि से आते थे। लिहाज़ा, हिंदी फ़िल्मों के साथ-साथ चित्रगुप्त ने भोजपुरी फ़िल्मों में भी अच्छा संगीत दिया।

उनके संगीत में इतनी मधुरता के बावजूद उन्हें बड़े बैनर की फ़िल्में नहीं मिलीं। यह ज़िंदगी और इसकी दास्तां बेहद अजीब है, कभी इस क़दर उलझी नज़र आती है कि हुनरमंद व्यक्ति को यथोचित मुक़ाम नहीं मिलता, और कभी इतनी सुलझी कि दो कदम चले और मंजिल नज़र आ गई। इत्तेफाक देखिए कि उनके बेटों की जोड़ी आनंद-मिलिंद ने ‘क़यामत से क़यामत तक’ में संगीत देकर दुनिया में तहलका मचा दिया, पिता की साधना सफल हो गई थी। उनके पुत्रों ने कई फ़िल्मों में यादगार संगीत दिया है। जीवन के अंतिम वर्षों में चित्रगुप्त तुलसीदास की चौपाइयां ज़रूर दोहराते होंगे, ‘प्रभु की कृपा भयउ सब काजू, जनम हमार सुफल भा आजू’

स्त्रोत : गूगल

Monday, November 15, 2021

श्यामा बेमिसाल अदाकारा

 में शोखी और चुलबुलापन ही था जो उन्हें दूसरों से कुछ अलग बनाता था और यदि यह कहा जाए कि उन्होंने अपनी अदाकारी को बहुआयामी बना डाला तो कोई आतिशयोक्ति न होगी। 
 
उन्होंने सामाजिक, स्टंट, वेशभूषा प्रधान, ऐतिहासिक, हास्य, प्रत्येक तरह की फिल्मों में भूमिकाएं कीं। उनके नायकों में अगर जॉनी वाकर थे तो अशोक कुमार भी। बलराज साहनी थे तो देव आनंद भी। मोतीलाल थे तो राजकुमार भी और सुरेश थे तो सज्जन भी। 
 
तात्पर्य यह कि श्यामा इस बात का कदाचित दावा कर सकती हैं कि उन्होंने ही फिल्म संसार में अधिकतम नायकों के साथ काम किया और फिल्में भी अच्छी की।
फिल्म जीनत की कव्वाली 'आहें न भरी शिकवे न किए कुछ भी न जुबां से काम लिया' में श्यामा के भी दृश्य थे और 1951 के बाद तो श्यामा ने फिल्मों को कुछ इस तरह से पकड़ा कि आने वाले चौदह-पंद्रह वर्षों तक उसे छोड़ा नहीं। 

 
इन वर्षों में उन्होंने अपने समकालीन लगभग प्रत्येक नायक-नायिका के साथ अभिनय किया। 
 
हास्य फिल्मों में श्यामा की शोखियों को परवान चढ़ाया कॉमेडियन जॉनी वॉकर ने- दुनिया रंग-रंगीली, माई-बाप, खोटा पैसा, छूमंतर, मुसाफिरखाना, मिस्टर कार्टून एम.ए. ऐसी ही फिल्में हैं और संयोग से उक्त फिल्मों को एक ही निर्देशक एम. सादिक ने निर्देशित किया है। 
 
हाहा-हीही-हूहू, मि. चक्रम, मक्खीचूस, पिलपिली साहब भी श्यामा के अभिनय में बंधी हास्य फिल्में थीं। 
 
गुल सनोवर, सल्तनत, तातार का चोर, शाही मेहमान, ताजपोशी, जबक, नागपद्मिनी, स्टंट और वेशभूषा प्रधान फिल्में रहीं तो भाई-भाई, भाभी, चंद, प्यासे नेन, धूप-छांव, ठोकर, दिले नादान, बरसात की रात, तराना और सजा जैसी सामा‍जिक तथा प्रणय फिल्मों में भी श्यामा वर्ण नुमायां हुआ है। 
 
7 जून 1935 को लाहौर में जन्मी श्यामा का वास्तविक नाम खुर्शीद अख्तर था। चालीस के दशक में वे लाहौर से मुंबई चली आईं और कम उम्र में ही फिल्मों में काम शुरू कर दिया। 
 
फिल्म निर्देशक विजय भट्ट ने उन्हें फिल्मों के लिए श्यामा नाम दिया। 
 
श्यामा ने अभिनय का कोई विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था। उनका मानना था कि स्टार पैदा होते हैं बनाए नहीं जाते। 
 
एक इंटरव्यू में श्यामा ने कहा था कि मुझे कभी अभिनय सीखने की जरूरत नहीं पड़ी। मैं आत्मविश्वास से भरपूर थी और मुझे ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ती थी। 
 
श्यामा ने सिनेमाटोग्राफर फाली मिस्त्री से 1953  में विवाह किया। गुजरात के रहने वाले फाली पारसी थे। 
 
श्यामा ने अपने‍ विवाह की बात दस वर्षों तक छिपाए रखी क्योंकि उस दौर में कोई एक्ट्रेस विवाह कर लेती थी तो फिल्म निर्माता उसे काम नहीं देते थे और न ही दर्शक उस अभिनेत्री की फिल्म में रूचि लेते थे। 
 
अपनी पहली संतान के जन्म के कुछ महीने पूर्व श्यामा और फाली ने अपने विवाह की बात बताई।

वीनस मधुबाला

हिंदी सिनेमा के लिए मधुबाला उन नामों में शुमार है, जिन्होंने हिंदी सिनेमा को संवारने में अपनी ज़िन्दगी लगा दी. फिल्म ‘मुग़ल ए आज़म’ में अनारकली का किरदार निभाने के बाद ये लोगों की नज़रों में अनारकली के ही रूप में बस गयीं. भारतीय सिनेमा में मधुबाला को साल 1942 से 1960 के बीच एक से बढ़कर एक फ़िल्में करते देखा गया है. मधुबाला को अभिनय के साथ साथ उनकी सुन्दरता के लिए भी याद किया जाता है. इन्हें इनकी ज़िन्दगी को देखते हुए ‘वीनस ऑफ़ इंडियन सिनेमा’ तथा ‘द ब्यूटी ऑफ़ ट्रेजेडी’ जैसे उपमाओं से भी जाना जाता है. इन्होने महल, अमर, मि. एंड मिस 55, बरसात की रात, मुग़ल ए आज़म आदि फ़िल्मों में अपनी दमदार भुमिका निभायी इनका पूरा नाम बेगम मुमताज़ जहान था।

मधुबाला का जन्म दिल्ली में हुआ. बचपन में इनका नाम मुमताज़ जेहान देहलवी रखा गया. इनके वालिद तात्कालिक पकिस्तान के खैबर पखतून्ख्वा के रहने वाले थे. अपने माँ बाप के 11 बच्चों में ये पाँचवीं थीं. शुरुआती समय में इनके पिता पेशावर स्थित एक तम्बाकू फैक्ट्री में काम करते थे. इस नौकरी को खोने के बाद इनके पिता पहले दिल्ली और फिर मुंबई पहुँचे, जहाँ पर मुमताज़ अर्थात मधुबाला का जन्म हुआ. ये समय इस परिवार के लिए बहुत की दुखद था. इस दौरान मधुबाला की तीन बहने और दो भाई सन 1944 में होने वाले ‘डॉक एक्सप्लोजन’ में मारे गये. इस हादसे में हालाँकि इनका घर तबाह हो गया किन्तु बचने वाले लोग सिर्फ और सिर्फ इस वजह से बच सके कि वे लोग किसी लोकल सिनेमा में फ़िल्म देखने गये थे. बचने वालों में मुमताज़ की छः बहने और माँ- पिता थे. इसके बाद ग़ुरबत की ज़िन्दगी से राहत पाने के लिए महज 9 साल की उम्र में इनके पिता मुमताज़ को बॉम्बे के विभिन्न फ़िल्म स्टूडियो में लेकर जाने लगे. मुमताज़ को काम भी मिलने लगा और परिवार को ग़रीबी से थोड़ी सी राहत मिली।

मधुबाला का शुरूआती करियर

मधुबाला बचपन से सिनेमा के लिए काम करने लगी थी. मधुबाला की पहली सफ़ल फ़िल्म साल 1942 में आई बसंत थी. ये फ़िल्म बहुत सफ़ल हुई और इस फ़िल्म से मधुबाला को पहचाना जाने लगा. जानी मानी अभिनेत्री देविका रानी मधुबाला के अभिनय से बहुत ही प्रभावित थीं, उन्होंने ही मुमताज़ देहलवी को मधुबाला के स्क्रीननेम से काम करने की सलाह दी. साल 1947 में आई फ़िल्म ‘नील कमल’ में महज़ चौदह साल की उम्र में मधुबाला को राज कपूर के साथ कास्ट किया गया. ये फ़िल्म इनकी मुमताज़ के नाम से आखिरी फ़िल्म थी. इसके बाद आने वाली सभी फ़िल्मों में इनका स्क्रीननेम मधुबाला रहा.

मधुबाला के करियर में स्टारडम की चमक को साल 1949 के दौरान देखा जाता है. ये स्टारडम इन्हें बॉम्बे टॉकीज बैनर तले बनी फ़िल्म ‘महल’ के साथ मिला. इस फ़िल्म के लिए हालाँकि पहले मशहूर अभिनेत्री सुरैया को चुना गया था, किन्तु स्क्रीनटेस्ट के दौरान फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही को मधुबाला इस रोल के लिए अधिक फिट लगीं और इन्हें इस रोले के लिए नियुक्त कर लिया गया. ये फ़िल्म इस साल भारतीय सिनेमा के बॉक्स ऑफिस पर तीसरी सफ़ल फ़िल्म थी. इस फ़िल्म के बाद मधुबाला की दुलारी, बेक़सूर, तराना तथा बादल आदि फ़िल्में एक के बाद एक सफ़ल साबित हुईं.

मधुबाला का स्टारडम

मधुबाला को अपने करियर के दौरान ऊंचा से ऊंचा मक़ाम हासिल हुआ. ये मक़ाम इन्हें उस वक़्त के सुपर स्टार अभिनेता –अभिनेत्री, मशहूर फ़िल्म निर्देशक के फ़िल्मों में काम करने की सूरत में हासिल हुआ. इन्होने तात्कालिक समय के मशहूर अभिनेता मसलन अशोक कुमार, राजकुमार, रहमान, दिलीप कुमार, सुनील दत्त, शम्मी कपूर, देव आनंद आदि के साथ काम किया. इसके साथ ही इन्हें समय के लीडिंग अभिनेत्रियाँ मसलन गीता बाली, सुरैया, निम्मी आदि के साथ काम करने का भी मौक़ा मिला. निर्देशकों में इन्हें कमाल अमरोहवी, के आसिफ, गुरुदत्त आदि का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ. सन 1955 में मधुबाला फ़िल्म ‘नाता’ तथा सन 1960 में फिल्म ‘महलों के ख्वाब’ की निर्माता रहीं. इन्होने फ़िल्म ‘महलों के ख्वाब’ में निर्माता के साथ अदाकारी का भी कार्य किया.

सन 1950 के दौरान आने वाली सभी तरह की फ़िल्मों में मधुबाला अपने जलवे बिखेरने में लगी हुईं थी. इसी साल आई उनकी फ़िल्म ‘हँसते आंसू’ वह हिंदी फ़िल्म बनी, जिसे पहली बार भारतीय फ़िल्म बोर्ड द्वारा A सर्टिफिकेट प्राप्त हुआ. मधुबाला के अभिनय के साथ उनकी सुन्दरता भी लोगों को खूब रिझाती थी. साल 1956 मे इन्होने दो कॉस्टयूम ड्रामा जेनर की फ़िल्में की. ये फिल्मे थीं ‘शीरीं- फरहाद’ तथा ‘राज- हथ’, इसके बाद इन्हें एक सोशल ड्रामा ‘कल हमारा है’ में देखा गया. सन 1954 में महबूब खान द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘अमर’ भी इनके लिए बहुत बड़ी फ़िल्म साबित हुई. गुरुदत की फ़िल्म ‘हावड़ा ब्रिज’ को भी नहीं भूला जा सकता. इस फ़िल्म में मधुबाला एक एंग्लो- इंडियन कारबेट गायिका की भूमिका में नज़र आयीं थी. इसी फ़िल्म का गीत ‘आइये मेहरबाँ’ आज भी लोगों के बीच खूब मशहूर है. कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है, कि मधुबाला ने अपने करियर में लगभग सभी तरह की फ़िल्में कीं और यही इनके स्टारडम की एक बहुत बड़ी वजह रही।

फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म मधुबाला की ज़िन्दगी की सबसे बड़ी फ़िल्म मानी जाती है. इस फ़िल्म में इन्होने अनारकली की यादगार भूमिका निभाई है. इस फ़िल्म ने मधुबाला को पूरी तरह से अभिनय में ढलने का मौक़ा दिया. अभिनय की दुनिया में आज भी इनके इस अभिनय का उदाहरण दिया जाता है. इस फ़िल्म के बनने के दौरान मधुबाला का स्वास्थ लगातार बिगड़ रहा था. इसका कारण ये भी हो सकता है कि शूटिंग के लिए उन्हें लगातार जंजीरों में लम्बे समय तक बंधा रहना पड़ता था और इस दौरान उन्हें पूरे मेक अप में होना पड़ता था. ऐसा माना जाता है कि शायद इसी वजह से इनकी तबियत लगातार बिगडती रही, किन्तु मधुबाला के परिश्रम और लगन की वजह से फ़िल्म बनने में किसी तरह की रुकावट नहीं आई.

साल 1960 में 10 साल की मेहनत के बाद ये फ़िल्म बनी और मंज़रे-आम पर आई. ये फ़िल्म अब तक की सबसे अधिक पैसे कमाने वाली फ़िल्म साबित हुई. ये रिकॉर्ड लगभग 15 सालों तक कायम रहा, इन पंद्रह सालों में कई बड़े सुपरस्टार की बड़ी फिल्मे आयीं, किन्तु किसी की भी फ़िल्म द्वारा ये रिकॉर्ड नहीं टूट सका. साल 1975 में अमिताभ बच्चन की आई फ़िल्म ‘शोले’ एक ऐसी फ़िल्म बनी जो ये रिकॉर्ड छूने में कामयाब हो सकी. ये दौर मधुबाला की जिन्दगी के करियर के तौर पर तो सुनहरा दौर ज़रूर था किन्तु इसी दौरान इनके और दिलीप कुमार के रिश्तो में कडवाहट आने लगी थी.

दिलीप कुमार और मधुबाला पहली बार सन 1944 में बन रही फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ के सेट पर एक दुसरे से मिले. इन दोनों के बीच रिश्ते की शुरुआत फ़िल्म ‘तराना’ करते हुए हुई. ये रिश्ता धीरे धीरे मजबूत हो रहा था और एक समय ऐसा भी आया कि दोनों ने एक साथ ईद भी मनाई, किन्तु मधुबाला के पिता को ये रिश्ता मंजूर नहीं था. उन्होंने मधुबाला को दिलीप कुमार से शादी करने से मना कर दिया. मधुबाला अपने पिता के प्रति बहुत आज्ञाकारी थी और आखिर में ये रिश्ता परवान नहीं चढ़ सका. 

कालांतर में मधुबाला की शादी किशोर कुमार से हुई. सन 1960 में मधुबाला से विवाह करने के लिए किशोर कुमार ने इस्लाम धर्म कबूल कर लिया और किशोर कुमार का नाम करीम अब्दुल हो गया. इस शादी को मधुबाला हालाँकि स्वीकार नहीं कर पा रही थी, किन्तु अस्वीकार भी नहीं कर सकी. साथ ही इसी समय मधुबाला को एक भयानक रोग ने जकड लिया था. किशोर कुमार इस बात को जानते थे, किन्तु किसी को भी इस बीमारी की गहराई का अंदाजा नहीं था. शादी के बाद इस रोग के इलाज के लिए दोनों लन्दन गये. वहाँ डॉक्टर ने मधुबाला के हाल को देखते हुए कहा कि मधुबाला अब ज्यादा से ज्यादा 2 साल तक बच सकती हैं. इसके बाद किशोर कुमार ने मधुबाला को उनके पिता के घर में वापिस ये कहते हुए छोड़ दिया कि वे मधुबाला का ख्याल नहीं रख सकते क्यों कि वे ख़ुद अक्सर बाहर रहते हैं.

मधुबाला का विवाह किशोर कुमार के साथ होने के कुछ ही साल बाद मधुबाल की मृत्यु हो गई जिसके कारण मधुबाला का परिवारिक जीवन अधुरा ही रह गया. और उनके एक भी बच्चे नहीं हुए।

लगातार मेडिकल जांच से ये पता लगा कि मधुबाला के दिल में एक छेद है. इस रोग को हालांकी फ़िल्म इंडस्ट्री से छुपा कर रखा गया. इस रोग की वजह से उनके बदन में खून की मात्रा बढ़ती जा रही थी और ये अतिरिक्त खून उनकी नाक और मुँह से बाहर आने लगता था. डॉक्टर भी इस रोग के आगे हार गये और ये भी कहा गया कि यदि इसका ऑपरेशन भी किया गया तो ये एक साल से अधिक समय तक जिन्दा नहीं रह पाएंगी. इस दौरान इन्हें अभिनय छोड़ना पड़ा. इसके बाद इन्होने निर्देशन का रास्ता अपनाया. साल 1969 में इन्होने ‘फ़र्ज़ और इश्क़’ नाम की फ़िल्म का निर्देशन करना चाहा, किन्तु ये फ़िल्म बन नहीं पायी और इसी वर्ष 23 फरवरी 1969 को अपना 36 वाँ जन्मदिन मना लेने के 9 दिन बाद इनकी मृत्यु हो थी।

Saturday, November 13, 2021

दुलारी

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                            एक थीं दुलारी
                आना मेरी जान संडे के संडे फेम

दुलारी, कभी नाम सुना होगा या चेहरा याद होगा। कभी नेक दिल मां तो कभी पड़ोसन तो कभी लालची ननद। । 'पड़ोसन' (1968) की सुनील दत्त की मामी और ओम प्रकाश की पत्नी जिसे वो त्याग कर जवान सायरा बानो से ब्याह रचाने के सपने बुन रहे हैं। थोड़ा और पीछे जाएँ। यूट्यूब पर ये गाना देखें, आना मेरी जान संडे के संडे... तो आपको थिरकती हुई जवान दुलारी दिख जाएंगी। राजकपूर ने सिर्फ एक ही फिल्म में डबल रोल किया था, पापी (1953), एक नायिका नरगिस और दूसरे की दुलारी। हमारी बात (1943) में वो हीरो जयराज की छोटी बहन थीं। आदाब अर्ज़ (1944) में वो मुकेश के सामने अहम रोल में थीं। बाद में मुकेश एक्टिंग छोड़ सिंगर बन गए। मगर दुलारी पीछे छूट गयीं। 1947 की मशहूर फिल्म थी, शहनाई। इसमें उनका नायिका रेहाना के समानांतर रोल था और उनके अपोजिट थे, मुमताज़ अली यानी महमूद के पिता। चालीस और पचास के सालों में दुलारी ऐसे ही अहम किरदार किया करती थीं। 

यूपी के ब्राह्मण परिवार में 8 अप्रेल 1928 को जन्मीं थीं दुलारी, मगरपली-बढ़ीं महाराष्ट्र में। असली नाम था, अंबिका गौतम। फ़िल्मी सफर शुरू हुआ तो राजदुलारी बन गयीं। फिर सिर्फ दुलारी हो गयीं, छोटा और ज़बान पर सहज चढ़ने वाला नाम। दुलारी का फिल्मों में पदार्पण मजबूरी वश हुआ। कमाऊ पिता बीमार पड़ गए, असाध्य रोग। घर का खर्च चलाने के लिए दुलारी आगे आयी। पिता के एक साउंड रिकार्डिस्ट मित्र ने उन्हें फिल्मों में एक्स्ट्रा की पंक्ति में खड़ा कर दिया। शायद अशोक कुमार-लीला चिटणीस की 'झूला' (1941) उनकी पहली फिल्म थी। फिर तो दुलारी चल निकलीं। जाना-पहचाना नाम हो गयीं। दिलीप कुमार वाली 'देवदास' में वो स्ट्रीट सिंगर थीं। उन पर दो भजन फिल्माए गए थे...साजन की हो गयी गोरी अब घर का आंगन बिदेस लागे रे...आन मिलो आन मिलो श्याम सांवरे...
दुलारी की साउंड रिकार्डिस्ट जे.बी.जगताप से मुलाक़ात मोहब्बत में तब्दील हुई। 1952 में उनकी शादी हुई। गृहस्थी संभालने के लिए दुलारी ने फिल्मों में काम करना लगभग बंद ही कर दिया। अगले नौ साल में उनकी सात-आठ फ़िल्में ही आयीं, अलबेला, पेइंग गेस्ट, देवदास आदि। मगर 1961 में वो फिर पर्दे पर आ गयीं, अपने दिल से सिनेमा का मोह हटा नहीं पायीं। इसे उनकी सेकंड इनिंग माना गया। और ये भी बहुत यादगार रही। मुझे जीने दो, दिल दिया दर्द लिया, अनुपमा, आये दिन बहार के, तीसरी कसम, इंतकाम, पड़ोसन, चिराग, आराधना, गंवार, जॉनी मेरा नाम, लाल पत्थर, कारवां, बॉम्बे टू गोवा जैसी लगभग सवा सौ मशहूर फिल्मों में दिखीं। कई बार तो बहुत ही छोटे रोल किये। 'आया सावन झूम के' में दुलारी एक बच्चे को गोद लेती हैं। बच्चा बहन से राखी बंधवाते हुए एकदम से एडल्ट धर्मेंद्र हो जाता है। बैकग्राउंड में दीवार पर दुलारी की तस्वीर टंगी दिखी। 
दुलारी का अंत समय बहुत ही ट्रेजिक रहा, तनहाई। एक अदद बेटी शादी करके ऑस्ट्रेलिया जा बसी थी। कभी-कभी मां को देखने आती थी, जबकि वो अल्ज़ाइमर से पीड़ित थीं। एक वृद्धा आश्रम में उनकी देख-रेख हो रही थी। इलाज के लिए अधिक पैसा नहीं था। पुरानी सहेली वहीदा रहमान ने आर्टिस्ट एसोसिएशन CINTAA को स्मरण कराया। उनकी आर्थिक मदद शुरू हुई। मगर एक दिन बैंक वालों ने बताया कि दुलारी का खाता तो कई महीने पहले बंद हो चुका है। वस्तुतः 18 जनवरी 2013 को उनकी मौत हुई और सिने जगत को पता चला तीन महीने बाद। ऑस्ट्रेलिया से उनकी बेटी आयी और अगले दिन अंतिम क्रिया-कर्म करके चली गयी।

टच हीरा मोतीलाल

मोतीलाल हिंदी सिनेमा के अभिनेता थे। उन्होंने हिंदी फ़िल्मों को मेलोड्रामाई संवाद अदायगी और अदाकारी की तंग गलियों से निकालकर खुले मैदान की ताजी हवा में खड़ा किया। उन्होने  परख, वक्त, लीडर, देवदास (1955), जागते रहो जैसी कई फिल्मों में काम किया। 1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का चोला धारणकर अपने अद्भुत अभिनय की मिसाल पेश की। विमल राय की फ़िल्म ‘देवदास’ (1955) में देवदास के शराबी दोस्त चुन्नीबाबू के रोल को उन्होंने लार्जर देन लाइफ का दर्जा दिलाया। उनको फ़िल्म देवदास और परख  के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला। 
मोतीलाल का जन्म 4 दिसंबर 1910  को शिमला में हुआ था। उनके  पिता एक प्रख्यात शिक्षाविद थे। बचपन में उनके पिता का देहांत हो गया जिसके बाद उनके चाचा ने उनका पालन पोषण किया।

शिक्षा
मोतीलाल ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा शिमला के अंग्रेज़ी स्कूल प्राप्त की इसके बाद उन्होने उत्तर प्रदेश और फिर दिल्ली में उच्च शिक्षा हासिल की।

करियर
कॉलेज छोड़ने के बाद वे बंबई में नौसेना में शामिल होने के लिए आए लेकिन बीमार होने के कारण परीक्षा नहीं दे पाए। 1934 में  24 साल की आयु में उन्होने सागर फ़िल्म कंपनी में शहर का जादू फ़िल्म के लिए नायक की भूमिका की पेशकश की गई। बाद में उन्होंने सबिता देवी के साथ-साथ कई सफल सामाजिक नाटक में विशेष रूप से डा मधुरिका (1935) और कुलवधु (1937) में काम किया।

1937 में मोतीलाल ने सागर मूवीटोन छोडकर रणजीत स्टूडियो में शामिल हुए। इस बैनर की फ़िल्मों में उन्होंने ‘दीवाली’ से ‘होली’ के रंगों तक, ब्राह्मण से अछूत तक, देहाती से शहरी छैला बाबू तक के बहुरंगी रोल से अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन किया। उस दौर की लोकप्रिय गायिका-नायिका खुर्शीद के साथ उनकी फ़िल्म ‘शादी’ सुपर हिट रही थी। रणजीत स्टूडियो में काम करते हुए मोतीलाल की कई जगमगाती फ़िल्में आई- ‘परदेसी’, ‘अरमान’, ‘ससुराल’ और ‘मूर्ति’। बॉम्बे टॉकीज ने गांधीजी से प्रेरित होकर फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ बनाई थी। रणजीत ने मोतीलाल- गौहर मामाजीवाला की जोडी को लेकर ‘अछूत’ फ़िल्म बनाई। फ़िल्म का नायक बचपन की सखी का हाथ थामता है, जो अछूत है। नायक ही मंदिर के द्वार सबके लिए खुलवाता है। इस फ़िल्म को गांधीजी और सरदार पटेल का आशीर्वाद मिला था। 1939 में इन इंडियन फ़िल्म्स नाम से ऑल इंडिया रेडियो ने फ़िल्म कलाकारों से साक्षातकार की एक शृंखला प्रसारित की थी। इसमें ‘अछूत’ का विशेष उल्लेख इसलिए किया गया था कि फ़िल्म में गांधीजी के अछूत उद्घार के संदेश को सही तरीके से उठाया गया था। नायकों में सर्वाधिक वेतन पाने वाले थे उस जमाने के लोकप्रिय अभिनेता मोतीलाल, उन्हें ढाई हजार रुपये मासिक वेतन के रूप में मिलते थे। फ़िल्मी कलाकारों से मिलने के लियए उस जमाने में भी लोग लालायित रहते थे।

अद्भुत अभिनय प्रतिभा
मोतीलाल की अदाकारी के अनेक पहलू हैं। कॉमेडी रोल से वे दर्शकों को गुदगुदाते थे, तो ‘दोस्त’ और ‘गजरे’ जैसी फ़िल्मों में अपनी संजीदा अदाकारी से लोगों की आंखों में आंसू भी भर देते थे। वर्ष 1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का चोला धारणकर अपने अद्भुत अभिनय की मिसाल पेश की। विमल राय की फ़िल्म ‘देवदास’ (1955) में देवदास के शराबी दोस्त चुन्नीबाबू के रोल को उन्होंने लार्जर देन लाइफ का दर्जा दिलाया। दर्शकों के दिमाग में वह सीन याद होगा, जब नशे में चूर चुन्नीबाबू घर लौटते हैं, तो दीवार पर पड़ रही खूंटी की छाया में अपनी छड़ी को बार-बार लटकाने की नाकाम कोशिश करते हैं। ‘देवदास’ का यह क्लासिक सीन है। राज कपूर निर्मित और शंभू मित्रा-अमित मोइत्रा निर्देशित फ़िल्म ‘जागते रहो’ (1956) के उस शराबी को याद कीजिए, जो रात को सुनसान सडक पर नशे में झूमता-लडखडाता गाता है- ‘ज़िंदगी ख्वाब है’।

 फिल्में
1966  – ये ज़िन्दगी कितनी हसीन है
1965  – वक्त
1964  – लीडर
1963  – ये रास्ते हैं प्यार के
1960 –  परख हरधन
1959 –  अनाड़ी
1959 –  पैग़ाम
1956 –  जागते रहो
1955 –  देवदास
1953  – धुन
1950  – हँसते आँसू
1946  – फुलवारी
पुरस्कार
1961 में फिल्म पारख के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार से नवाजा गया।
1957 में फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार फिल्म देवदास के लिए।

Friday, November 12, 2021

ओम प्रकाश 19 दिसम्बर b

अभिनेता ओम प्रकाश का जन्म 19 दिसंबर, 1919 को विभाजन से पहले भारत के लाहौर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनका पूरा नाम ओम प्रकाश छिब्बर था। ओमप्रकाश के पिता एक अमीर किसान हुआ करते थे, जिनकी कई एकड़ जमीनें थीं और उनकी देखरेख वो खुद ही करते थे। लाहौर और जम्मू जैसे क्षेत्र में उस दौर में उनके कई बड़े बंगले भी थे। लेकिन ओम को दौलत का मोह कभी नहीं रहा, उनका मन हमेशा से अभिनय के लिए धड़कता था।

ओम प्रकाश शुरुआती दौर में रामलीला में भाग लिया करते थे। उन्होंने स्टेज पर सबसे पहला एक्ट रामलीला में ही किया था, जिसमें उनका किरदार ‘सीता’ का था। वर्ष 1937 में उन्होंने एक आरजे के रूप में ऑल इंडिया रेडियो ज्वॉइन किया, जहां उन्हें मासिक 25 रुपए सैलरी मिलती थी। उनका ये रेडियो शो लाहौर और पंजाब में काफ़ी पॉपुलर हुआ था। ओम ने अपने फिल्मी कॅरियर की शुरुआत साल 1942 में की थी।
इसके बाद वर्ष 1950 से 1980 तक उन्होंने सपोर्टिंग एक्टर के रूप में कई यादगार किरदार निभाए, जिसके लिए उन्हें कई अवॉर्ड्स भी मिले। ओम प्रकाश साल 1964 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘जहान आरा’ के प्रोड्यूसर भी रहे। उन्हें अपने कॅरियर की पहली फिल्म के लिए मात्र 80 रुपए तनख्वाह के रूप में मिले थे। वो उस दौर की एक साइलेंट फिल्म थी, जिसमें उन्होंने बहुत ही छोटा किरदार निभाया था।

विलेन के एक किरदार से मिली थी प्रसिद्धि
शुरुआती दिनों में चरित्र अभिनेता ओम प्रकाश को उतनी लोकप्रियता नहीं मिल पाई थी। लेकिन वर्ष 1949 में उन्होंने एक फिल्म में लखपति नाम के विलेन का किरदार निभाया था, जो कि सिनेमा प्रेमियों के बीच काफ़ी पॉपुलर हुआ। इसके अलावा ओम प्रकाश को क्लासिकल म्यूजिक का भी जबरदस्त शौक था।

वे अमिताभ बच्चन के साथ भी ‘शराबी’, ‘जंजीर’, ‘नमक हलाल’, ‘अलाप’, ‘परवाना’, ‘दो और दो पांच’, ‘चुपके-चुपके’ जैसी फिल्मों में नज़र आए थे। इसके अलावा ओम प्रकाश ने ‘चमेली की शादी’, ‘साधू और संत’, ‘तेरे घर के सामने’, ‘आंधी’, ‘लोफर’, ‘पड़ोसन’, ‘हावड़ा ब्रिज’, ‘घर-घर की कहानी’, ‘सास भी कभी बहू थी’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘पूरब और पश्चिम’, ‘नौकर बीवी का’ और ‘अमर प्रेम’ जैसी कई हिट फिल्मों में काम किया।

Thursday, November 11, 2021

माला सिन्हा 11 नवम्बर b

#सुप्रसिद्ध_अभिनेत्री__माला_सिन्हा__जी_को_जन्मदिन_की_हार्दिक_शुभकामनाये🎂🎂🎉🎉🎂🎂🎉🎉

माला सिन्हा (जन्म: 11 नवंबर 1936) हिन्दी फ़िल्मों की एक अभिनेत्री हैं। वे नेपाली-भारतीय हैं तथा उन्होने हिन्दी के अलावा बंगला और नेपाली फिल्मों में भी काम किया है। वे अपनी प्रतिभा और सुन्दरता दोनों के लिये जानी जाती हैं। वे 1950 के दशक से आरम्भ करके 1970 के दशक तक हिन्दी फिल्मों की प्रमुख अभिनेत्री थीं। उन्होंने सौ से अधिक फिल्मों में कार्य किया है जिनमें से प्रमुख हैं- प्यासा (1957), धूल का फूल (1959), अनपढ़, दिल तेरा दीवाना (दोनों 1962 में), गुमराह, बहुरानी, गहरा दाग़ (तीनों 1963 में), हिमालय की गोद में (1965), आदि। उन्हें लगातार धर्मेन्द्र, राज कुमार, राजेन्द्र कुमार, बिस्वजीत, किशोर कुमार, मनोज कुमार और राजेश खन्ना के साथ फिल्मों में लिया गया।

माला सिन्हा
व्यवसाय
अभिनेत्री
बच्चे
प्रतिभा सिन्हा

व्यक्तिगत जीवन :-----
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माला सिन्हा का जन्म नेपाली मूल के परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम अल्बर्ट सिन्हा था और वह नेपाली ईसाई थे। बाद में, वयस्क अभिनेता के रूप में, उन्होंने अपना नाम बदल कर माला सिन्हा रख लिया।[1] माला सिन्हा ने 1966 में नेपाली अभिनेता चिदंबर प्रसाद लोहानी से शादी की। लोहानी का व्यवसाय था। अपनी शादी के बाद, वह फिल्मों के फिल्मांकन के लिए मुम्बई आती रहती थीं और उनके पति नेपाल में रहकर अपना व्यवसाय चलाते थे। शादी से उनकी एक बेटी है: प्रतिभा सिन्हा, जो बॉलीवुड की पूर्व अभिनेत्री हैं।[2]

करियर :------
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1957 में, बॉलीवुड अभिनेता और निर्देशक गुरु दत्त ने अपनी फिल्म प्यासा (1957) में माला सिन्हा को लिया। इसके लिये पहले वह मधुबाला को लेना चाहते थे। प्यासा के बाद, उनकी प्रमुख सफलताओं में फिर सुबह होगी (1958) और यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी पहली फ़िल्म धूल का फूल, (1959) थी जिसने उन्हें एक लोकप्रिय सितारे में बदल दिया। वह 1958 से शुरुआती 60 के दशक में परवरिश (1958), उजाला, मैं नशे में हूँ, दुनिया ना माने, लव मैरिज (1959), बेवक़ूफ़ (1960), माया (1961), हरियाली और रास्ता, दिल तेरा दीवाना (1962), अनपढ़ और बम्बई का चोर (1962) और जैसी कई सफल फिल्मों का हिस्सा रहीं[3]।

अपनी सफल 1960 और 1970 के दशक की भूमिकाओं में, उन्हें राज कपूर, देव आनंद, किशोर कुमार और प्रदीप कुमार जैसे बड़ी उम्र के कलाकार और 1950 के दशक के उत्तरार्ध से उभरते हुए सितारे जैसे शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार और राज कुमार के साथ लिया गया। उन्होंने अपने दौर के कई नए कलाकारों के साथ काम किया जिनमें मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, राजेश खन्ना, सुनील दत्त, संजय ख़ान, जीतेन्द्र और अमिताभ बच्चन शामिल हैं।
संवर जाए हम बेकरारों की दुनिया....जो तुम मुस्कुरा दो

माला जी की होंठ ही नही, आँखे भी मुस्कुराती है, तभी तो प्यासे गुरुदत्त साहब कह उठते है...
हम आपकी की आँखों में इस दिल को बसा दें तो!

दीवाने देव साहब भी कहते है...
तुमसे नज़र जब गयी है मिल
जहाँ है कदम तेरे वहीं मेरा दिल  
झुके जहाँ पलकें तेरी
खुले जहाँ ज़ुल्फ़ें तेरी
रहूँ उसी मंज़िल में
तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है...

मनोज साहब भी क्यों पीछे रहते, वो भी आहिस्ता से बोले...
चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था...

चॉकलेटी हीरो विश्वजीत जी पास आने के बहाने ढूंढते है..
सताते न हम तो मनाते ही कैसे
तुम्हें अपने नज़दीक लाते ही कैसे...तुम्हारी नज़र क्यों खफ़ा हो गई

शम्मी जी भी जोर से पुकारते हैं...
झूमता मौसम मस्त महीना
चाँद सी गोरी एक हसीना
आँख में काजल मुँह पे पसीना
याल्लाह याल्लाह दिल ले गई...

राजेन्द्र जी भी मिन्नत करते हैं..
तेरे प्यार का आसरा चाहता हूं..

जितेंद्र जी भी शायरी अंदाज़ में कहते हैं...
हुस्न-ओ-जमाल आपका शीशे में देख कर
मदहोश हो चुका हूँ मैं जलवों की राह पर
ग़र हो सके तो होश में ला दो मेरे हुज़ूर
रुख से ज़रा नक़ाब हटा दो मेरे हुजूर...

प्रमेन्द्र जी भी अपने अंदाज में गुहार लगते है...
मेरी तमन्नाओं की तक़दीर तुम सँवार दो
प्यासी है ज़िंदगी और मुझे प्यार दो...

कितनों का नाम लूं, अनगिनत चाहने वाले है..बस इतना ही कहूँगा...
चाहत ने तेरी मुझ को कुछ इस तरह से घेरा,
दिन को हैं तेरे चर्चे, रातों को ख्वाब तेरा
तुम हो जहाँ वहीं पर, रहता है दिल भी मेरा 
बस एक ख़याल तेरा, क्या शाम क्या सवेरा
मुझे कितना प्यार है तुम से,
अपने ही दिल से पूछो तुम
जिसे दिल दिया है वो तुम हो,
मेरी ज़िन्दगी तुम्हारी है...

महान अभिनेत्री माला सिन्हा जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं🌹

महिपाल 11 नवम्बर b 15 मई d

#महिपाल_सिंह 
महिपाल भंडारी 

जन्म - 11 नवम्बर 1919
जोधपुर
मृत्यु - 15 मई 2005 
(आयु 86)
मुंबई
व्यवसाय - अभिनेता
वर्ष सक्रिय - 1942-1983

जयंती अवसर विनम्र अभिवादन 🙏🌹

महिपाल एक भारतीय फिल्म अभिनेता थे, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में काम किया, ज्यादातर स्टंट में पारसमणि, ज़बाक, कोबरा गर्ल, जंतर मंतर, अरेबियन नाइट्स में अलीबाबा, अलादीन और द वंडरफुल लैंप, रूप लेखा, सुनेहरी नागिन, हिंदू पौराणिक फिल्में जैसे सम्पूर्ण रामायण, गणेश महिमा, वीर भीमसेन, जय संतोषी मां जैसी फिल्में प्रदर्शित हुईं। उन्हें भगवान विष्णु , और उनके दो अवतारों, भगवान राम और भगवान कृष्ण की भूमिका में विभिन्न पुराणों, रामायण, महाभारत, के लिए जाना जाता है। भागवत पुराण आधारित फिल्में, तुलसीदास और अभिमन्यु की भूमिका निभाने के अलावा, और वी में प्रमुख के रूप में भी जानी जाती हैं। 
व्ही शांताराम की नवरंग (१९५९), और गीत "तू छुपाई है कह मेरे तड़पता येहन" और "आदा है चंद्रमा रात आधि"। उन्होंने 1950 और 1960 की वी सहित कई प्रसिद्ध फिल्मों में अभिनय किया। शांताराम का नवरंग (1959) और बाबूभाई मिस्त्री का पारसमणि (1963)

#जीवन_विस्तार

उनका जन्म जोधपुर , राजस्थान में हुआ था, जहां स्कूली शिक्षा के बाद उन्होंने जसवंत सरकार से साहित्य में स्नातक किया। कॉलेज जोधपुर। इसके बाद, उन्होंने 1940 के दशक की शुरुआत में मुंबई में प्रवास करने से पहले थिएटर में काम किया।

उन्होंने 1942 की फिल्म नजराना में अपनी पहली फिल्म की। हालाँकि, फिल्म नहीं चली, इसके बाद उन्होंने चार फिल्मों के लिए वी। शांताराम के लिए गीत लिखे। उन्होंने सोहराब मोदी और बाद में वाडिया ब्रदर्स, होमी वाडिया और जे जैसे निर्देशकों के साथ काम किया। बी। एच। वाडिया , हालांकि, वी। शांताराम के साथ यह उनका काम था, जिससे उन्हें स्थायी प्रशंसा मिली। उन्होंने निरूपा रॉय , माला सिन्हा और यहां तक ​​कि मीना कुमारी जैसी अभिनेत्रियों के साथ कई पौराणिक और ऐतिहासिक फिल्मों में काम किया। उन्होंने अरेबियन नाइट्स पर आधारित फंतासी फिल्मों की एक श्रृंखला भी की, जिसमें अलीबाबा और 40 चोर (1954), जेनी (1953), अलादीन और जादु चिराग (1952) और अलीबाबा का बेटा शामिल हैं (1955), जिसने उन्हें खाड़ी देशों में भी लोकप्रियता दिलाई। बाद में अपने करियर में, उन्होंने चरित्र भूमिकाओं पर स्विच किया, और 1970 के दशक की हिट जय संतोषी माँ (1975) जैसी फिल्मों में दिखाई दिए। 86 वर्ष की उम्र में कार्डियक अरेस्ट के मुंबई में उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी अक्कल कुंवर और बेटियों शुशीला जैन और निर्मला ओसवाल से उनकी जान बच गई।

उनकी कुछ जानीमानी फिल्म के नाम ...
नजराना (1942)
शंकर पार्वती (1943)
माली (1944)
अंधों की दुनी (1947): कुमार

बनवासी (1948)
नरसिंह अवतार (1949) .... नारद
श्री गणेश महिमा (1950) .... कृष्ण
नंदकिशोर (1951) )
लक्ष्मी नारायण (1951)
जय महालक्ष्मी (1951)
हनुमान पाताल विजय (1951)
देवयानी (1952)
अलादीन और जदुई चिराग (1952) .... अलादीन
धर्म पथनी (1953) .... मनोहरलाल
खोज (1953)
हुसैन चोर (1953) )
तुलसीदास (1954) .... राम भोला / अनामी / तुलसीदास
लाल परी (1954)
अलीबाबा और 40 चोर (1954) .... अलीबाबा
किशोर सरदार (1955)
तात का चोर (1955)
अली बाबा का बेटा (1955) .... अख्तर
शाह बेहराम ( 1955)
मधुर मिलन (1955)
जय महादेव (1955)
हातिम tai Ki Beti (1955) .... सलीम
दरबार (1955)
अलादीन का बेटा (1955)
श्री कृष्ण भक्ति (1955)
रियासत (1955)
रत्न मंजरी (1955)
मस्त कलंदर (1955)
महासती सावित्री (1955)
चिराग-ए-चेयन ( 1955)
सुल्तान - ई- आलम (1956)
शेख चिल्ली (1956) .... शहजादा निसार
मक्खि चोयोस (1956) .... नारायण
लाल ई यमन (1956)
खुल जा सिम सिम (1956)
हुस्न बानू (1956)
सुदर्शन चक्र (1956)
सती नाग कन्या (1956)
रूप कुमारी (1956)
राज रानी मीरा (1956)
लालकर (1956)
कारवां (1956) )
बजरंग बली (1956)
आन बान (1956)
शेर-ए-बगदाद (1957)
शाही बाजार (1957)
माया नागरी (1957)
चमक चांदनी (1957)
पवनपुत्र हनुमान (1957)
नाग पद्मनी (1957)
जन्नत (1957)
जनम जनम के फेरे: अलियास सती अन्नपूर्णा (1957) .... भगवान विष्णु
अलादीन लैला (1957)
तीर्थ यात्रा (1958)
सिम सिम एम अरिजेना (1958)
अमर प्यार (1958)
टैक्सी 555 (1958)
राज सिंहासन (1958)
माया बाजार (1958) ।। .. भगवान श्री किशन
सर्कस सुंदरी (1958)
अल हिलाल (1958)
आकाश परी (1958)
टिकादाम्बाज (1959)
नवरंग (1959) .... दिवाकर
डॉ। Z (1959)
चंद्रसेना (1959)
रंगीला राजा (1960)
अब्दुल्ला (1960) .... अब्दुल्ला
सम्पूर्ण रामायण (1961) ) .... राम
प्यार की जीत (1962) .... पुंडरिक
ज़बक (1962) .... ज़बक / हज्जी
श्री गणेश (1962) ) .... भगवान श्री कृष्ण 'गोपाल' 'कन्हैया' / भगवान श्री राम
रूपलेखा (1962)
नाग देवता (1962)
60 "- बगदाद की राते (1962) )
नाग मोहिनी (1963)
नाग ज्योति (1963)
सुनहरी नागिन (1963) .... विजय
पारसमणि (1963)। ... पारस
माया महल (1963)
कान कान पुरुष भगवान (1963) .... जैनाथ
देव कन्या (1963)
कोबरा गर्ल (1963) .... सागर
बीन का जादु (1963)
बाबा रामदेव (1963)
वीर भीमसेन (1964)
सती सावित्री (1964)
रूप सुंदरी (1964)
महासती बेहुला (1964)
जंतर मंतर (1964)
शाही रकसा (1965)
चोर दरवाजा (1965)
श्री राम भरत मिलाप (1965) .... श्री राम, दशरथ के पुत्र
शंकर सीता अनुसूया (1965) .... राम
महाराजा विक्रम (1965)
जहान सती वाहान भगवान (1965) .... राजकुमार अभिजीत
नागा मंदिर (1966)
पूनम का चांद (1967)
अमर ज्योति (1967)
हनुमान चालीसा (1969)
पत्थर के ख्वाब (1969)
वीर घटोत्कच (1970)। ... भगवान श्री किशन / कन्हैया
सम्पूर्ण तीर्थ यात्रा (1970) .... उत्तम
श्री कृष्ण अर्जुन युध (1971) .... भगवान कृष्ण
ब्रह्मा विष्णु महेश (1971) .... विष्णु
श्री कृष्ण अर्जुन युध (1971) .... श्री कृष्ण
महाशिवरात्रि (1972)
विष्णु पुराण (1973) ) .... भगवान सरवश्री विष्णु / राम / किशन
बालक ध्रुव (1974)
महापर्व तीर्थ यात्रा (1975)
जय संतोषी मां '' [1] (1975) ... । देवऋषि नारद
रानी और लालपरी (1975)
जय महालक्ष्मी मां (1976) .... विष्णु
मत चेहर (1977)
गोपाल कृष्ण (1979) .... भगवान विष्णु
नवरात्रि (1983)
संत रविदास की अमर कहानी (1983)
जय बाबा अमरनाथ (1983)
अमर ज्योति (1984) ...। (अंतिम फिल्म भूमिका)

Wednesday, November 10, 2021

ब्रह्मांड सुंदरी मधुबाला

मधुबाला - एक अभिनेत्री इतनी सुंदर कि ब्रह्मांड इसे पचा नहीं सका
मधुबाला हिंदी सिनेमा के इतिहास में एक प्रतिष्ठित अभिनेत्री थीं। उन्हें आज भी सबसे खूबसूरत अभिनेत्रियों में से एक माना जाता है। महत्वाकांक्षी अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के लिए हर प्रेरणादायक चर्चा में उनका नाम आता है।

अपने छोटे से जीवन में उन्होंने इतना कुछ हासिल कर लिया कि लोग हैरान रह जाते हैं। उसके पास जो कुछ भी है उसे हासिल करना उसके लिए आसान भी नहीं था। सफलता उनके द्वारा दी गई कई ब्लॉकबस्टर से मिली। मधुबाला को जीवन ने धोखा दिया और इसलिए उन्हें 'द ब्यूटी विद ट्रेजेडी' कहा जाता है।

उन्होंने अपने 2 दशक के करियर में लगभग 70 फिल्मों में काम किया। उन्होंने ऐसी भूमिकाएँ निभाई हैं जिन्हें कुछ अभिनेत्री केवल निभाने का सपना देखती हैं। 1947 में उनकी फिल्म 'नील कमल' तक मधुबाला मुमताज थीं। उसके बाद अभिनेत्री देविका रानी के सुझाव पर उनकी स्क्रीन का नाम बदलकर मधुबाला कर दिया गया। उनके करियर की बॉक्स ऑफिस सफलताओं से सभी अच्छी तरह वाकिफ हैं। मधुबाला के कारण उन्हें आज भी याद किया जाता है।

उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ फिल्में नीचे दी गई हैं:

बसंत - यह उनकी पहली फिल्म 1942 में रिलीज हुई थी और हिट रही थी।
फूलवारी (1946)
नील कमल - 1947 में रिलीज़ हुई उनका पहला ब्रेक था। उन्होंने राज कपूर के साथ अभिनय किया और इस भूमिका के लिए कई अभिनेत्रियों को पीछे छोड़ दिया।
महल - 1949 में आई वह फिल्म थी जिसने उन्हें स्टारडम दिलाया। यह बॉक्स ऑफिस पर तीसरी सबसे बड़ी हिट थी।
बादल (1951) - उन्होंने अपने लुक्स के कारण कट्टर गोरी महिला की भूमिका निभाई।
तराना (1951)
संगदिल (1952) - यह एक विशिष्ट फिल्म थी जहां वह एक पारंपरिक महिला थी जो मानदंडों का पालन करती थी।
मिस्टर एंड मिसेज 55 (1955) - यह एक उत्तराधिकारी की हास्य भूमिका थी।
हावड़ा ब्रिज (1958) - यहीं पर उन्हें अशोक कुमार के विपरीत एक गायिका की एंग्लो-इंडियन भूमिका मिली ।
फागुन (1958) - वह उस समय के एक और सम्मानित अभिनेता भारत भूषण के साथ दिखाई दीं।
काला पानी (1958) - चॉकलेटी हीरो, देव आनंद के साथ।
चलती का नाम गाड़ी (1958) - किशोर कुमार के सामने।
बरसात की रात (1960)
मुगल-ए-आजम (1960) - इस फिल्म में उन्होंने अनारकली का मशहूर किरदार निभाया था। यह 1960 में रिलीज़ हुई और सुपर-डुपर हिट रही। मधुबाला को मुगल-ए-आजम के लिए सर्वश्रेष्ठ महिला अभिनेत्री श्रेणी में फिल्मफेयर के लिए नामांकित किया गया था।
हाफ टिकट (1962)
शरबी (1964)
ज्वाला (1971) - यह उनकी आखिरी फिल्म थी जो इसकी शूटिंग से लगभग 15 साल बाद भारी संपादन के कारण रिलीज हुई थी।

मुगल-ए-आज़म ने उन्हें एक किंवदंती बना दिया और यह उनके करियर का शिखर था। उसने एक प्रदर्शन दिया जो उसकी आंतरिक प्रतिभा को प्रदर्शित करता है। साथ ही वह हॉलीवुड की पहली बॉलीवुड अभिनेत्री थीं। उन्हें एक अमेरिकी पत्रिका 'थिएटर आर्ट्स' में चित्रित किया गया था जहाँ उन्हें 'सुपर स्टार' के रूप में चित्रित किया गया था और उनके फैंटेसी के बारे में लिखा गया था। उन्हें एक हॉलीवुड फिल्म में एक भूमिका की पेशकश की गई थी, लेकिन अपने पिता की अस्वीकृति के कारण, उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया।

उनके फैंटेसी के बारे में लिखा गया था। उन्हें एक हॉलीवुड फिल्म में एक भूमिका की पेशकश की गई थी, लेकिन अपने पिता की अस्वीकृति के कारण, उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया।

••अंत की शुरुआत

मधुबाला एक खूबसूरत महिला और दिल की मासूम थीं। उसने छोटी उम्र में काम करना शुरू कर दिया था। अभिनेत्री को अपना पहला प्यार अभिनेता दिलीप कुमार में मिला। वे 1944 में 'ज्वार भाटा' के सेट पर मिले थे। फिल्म 'तराना' में सह-कलाकार होने के बाद उनका अफेयर शुरू हुआ। वे एक प्रतिष्ठित जोड़ी थे और पूरी फिल्म उद्योग उन्हें भेज रहा था।

जब दोनों की शादी होने वाली थी, तभी से परेशानी शुरू हो गई थी। पहले मधुबाला को दिलीप से शादी करने की मंजूरी नहीं मिली थी। बाद में जब उसके पिता ने शादी के लिए अनुमति दी, तो दिलीप कुमार के साथ अताउल्लाह खान का विवाद शुरू हो गया। मधुबाला के पिता की लालची हरकतों से दंपत्ति की खुशियां धूमिल हो गईं। रिश्ता फीका पड़ने लगा और आखिरकार 1950 के दशक की शुरुआत में वे अलग हो गए।

वह 1956 में 'ढाके की मलमल' की शूटिंग के दौरान किशोर कुमार से मिलीं। उन्होंने वास्तव में गहरा बंधन विकसित नहीं किया, हालांकि 1960 के दशक में जल्दबाजी में शादी कर ली। यह तब भी था जब मधुबाला बीमार होने लगी थी। पता चला कि उसे वेंट्रिकुलर सेप्टल डिफेक्ट है। यह एक गंभीर बीमारी है। किशोर कुमार के लिए उनसे विचलित होने का यह एक प्राथमिक कारण था। बीमारी की वजह से उसकी हालत ठीक नहीं थी और उसका अपने पति से झगड़ा हो गया था। 1969 में 36 साल की छोटी उम्र में उनकी मृत्यु होने तक वे विवाहित रहे।

सुजाता बात एक फ़िल्म की

Sujata سوجاٹا : पैदाइश नहीं परवरिश बनाती है इंसान को

सुजाता एक क्लासिक बॉलीवुड फिल्म, जो 20 मार्च 1959 को भारतीय सिनेमा में रिलीज़ हुयी थी। इस फिल्म के निर्माता और निर्देशक बिमल रॉय की एक सुपरहिट फिल्म थी। यह फिल्म बंगाली की एक लघु कहानी सुजाता पर आधारित है। इस फिल्म की सफलता को देखते हुए इसको 1960 के कान फिल्म महोत्सव में शामिल किया गया था।

सुजाता फिल्म समाज की एक बहुत ही बड़ी कुरीति को दर्शाती है कि पैदाइशी ही सब कुछ नहीं होती इंसान का अच्छा होना उसकी परवरिश पर निर्भर करता है।

➡️Story Line

फिल्म की कहानी शुरू होती है उच्च समाज में रहने वाले एक ब्राह्मण युगल उपेन और चारु से,दोनों अपने जीवन में बहुत सुखी है मगर काफी समय से संतान ना होने का दर्द दोनों को है। एक दिन यात्रा के दौरान उन्हें एक अनाथ बच्ची मिलती है, जिसको वह गोद लेते हैं। उसका नाम सुजाता रखा जाता है। अछूत होने की वजह से सुजाता को बचपन से ही माँ का प्यार नहीं मिला। चारु हमेशा उसको उसकी छोटी जाति का याद कराती रहती थी।

मगर पिता की लाडली सुजाता, सिर्फ पिता की छांव में ही बड़ी होने लगी। माँ के होते हुए भी माँ के प्यार से वंचित सुजाता हमेशा दुखी रहने लगी। बचपन के इस एक दर्द के साथ सुजाता बड़ी हो गयी। ब्राह्मण घर में पालन पोषण होते हुए भी सरल स्वभाव की सुजाता को हमेशा बेज्जती का ही सामना करना पड़ता है। उसके लिए छोटी जाति में पैदा होना एक अभिशाप बन गया था।

सुजाता को हैरानी होती है समाज की सोच पर कि इंसान की परवरिश और संस्कार मायने नहीं रखते सिर्फ उसकी पैदाइशी ही सब कुछ है। इस गलत सोच के खिलाफ सुजाता कड़ी होने के बारे में सोचती है। एक दिन उसकी मुलाकात अधीर नाम के एक ब्राह्मण युवा से होती है, जो सुजाता की सोच जैसा ही है। अधीर को उच्च और निम्न जाति समझ नहीं आती , वह सभी को एक इंसान समझता है। यह जानकर सुजाता को बहुत अच्छा लगता है।

बहुत जल्द ही सुजाता और अधीर की दोस्ती प्यार में बदल जाती है। जिसको समाज की मंज़ूरी नहीं मिलती। दोनों प्रेम के लिए समाज से लड़ने का फैसला करते हैं। एक दिन सुजाता की माँ चारु सीढ़ियों से गिर जाती है, गंभीर अवस्था में उसको हॉस्पिटल ले जाया जाता है।

डॉक्टर चारु का इलाज करता है , कुछ समय बाद वह आकर सभी को बताता है कि चारु का जीवन बचाने के लिए खून की जरुरत है और चारु का ब्लड ग्रुप दुर्लभ है और वह आसानी से नहीं मिल रहा है। जब सुजाता को पता है कि उसका और उसकी माँ का ब्लड ग्रुप एक है तो वह अपनी माँ को बचाने के लिए अपना खून देने को तैयार हो जाती है।

समय पर मिलने वाले खून से चारु की जान बच जाती है और जब उसको पता चलता है कि सुजाता ने उसको जीवन दान दिया है तो उसको अपने किये गए गलत व्यव्हार का पछतावा होता है और वह सुजाता को अपनी बेटी मान लेती है। बेटी की सेवा से चारु बहुत जल्द ठीक हो जाती है। इसके बाद वह अपनी बेटी सुजाता का विवाह बड़ी ही धूमधाम से अधीर से करवाती है।

➡️Songs & Cast

फिल्म में संगीत एस डी बर्मन ने दिया है और इन गीतों को मजरूह सुल्तानी ने लिखे थे – “जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दिए” , “काली घटा छाये मोरा जिया तरसाई”, “बचपन के दिन भी क्या दिन थे”, “तुम जियो हज़ारों साल, साल के दिन हो पचास हज़ार”, “सुनो मेरे बंधु रे, सुनो मेरे मितवा”, “नन्ही काली सोने चली हवा धीरे आना”, “अंधे ने भी सपने देखा क्या है जमाना… वाह भाई वाह” और इनको अपनी सुरीली आवाज़ से पिरोया है तलत महमूद, आशा भोंसले, गीता दत्त और एस. डी. बर्मन ने।

फिल्म में नूतन और सुनीलदत्त ने मुख्य भूमिका निभाई है सुजाता और अधीर के किरदार के रूप में। शशिकला ने रमा चौधरी का किरदार और ललिता पवार ने गिरिबाला बुआजी का किरदार निभाया है। बाकि के कलाकारों में तरुण बोस (उपेंद्रनाथ चौधरी), सुलोचना लतकर (चारु चौधरी) असित सेन ( पंडित भवानी शंकर शर्मा ) ने अपनी अदाकारी से फिल्म को ब्लॉकबस्टर बनाया है।