Sunday, March 21, 2010

लौट आओ मीना, तुम कहां हो...?






























कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
दर्द की देवी मीना कुमारी की अमर कहानी
मेरे ही ख्वाब मेरे लिए जहर बन गए मेरे तसव्वुरात ने डस लिया मुझे
-----३१ मार्च- स्मरण दिवस पर विशेष---
मीना कुमारी भारतीय सिने इतिहास की एक ऐसी अदाकारा थीं, जिनके खामोश होठों और अनकहे आसुंओं की भाषा कोई नहीं समझ पाया. चार दशकों तक गमजदा जिदंगी का बोझ उठाने के बाद वे इस दुनिया से चली गई और छोड़ गई अपने पीछे तन्हाइयों की एक लंबी कविता. मीना कुमारी ऐसी बदनसीब तारिका थीं जिसे हर किसी ने ठगा...अपनों ने भी और परायों ने भी...उन्हें न तो मां बनने का सुख मिला, न ही वह कभी पत्नी का सुख पा सकीं. चार दशकों तक वह इसी सुख की तलाश में भटकतीं रहीं. वे परदे पर अभिनय को जीती थीं, और निजी जिदंगी में दर्द को...जिदंगी के इसी दर्द ने ही उन्हें शायर बना दिया था.
अभिनय और सुदंरता का संगम. जैसे खुशबू और खूबसूरती सिमट कर गुलाब में जा बसी हैं उसी तरह अभिनय और नीर-क्षीर की तरह बसी थी मीना कुमारी में. आज मीना कुमारी को हमसे जुदा हुए 38 साल गुजर चुके हैं. इन 38 सालों में इंडस्ट्री में कई अभिनेत्रियां आईं और गईं. आनेवाली हर अभिनेत्री मीना कुमारी बनने का सपना लेकर आतीं है और थोड़ा बहुत नाम कमाकर लौट जाती है. वे सब कुछ बनीं पर मीना कुमारी न बन सकीं. मीना कुमारी ने जो अपनी अभिनय क्षमता और सुदंरता से जो गगनचुंबी इमारत खड़ी की है. आज की अभिनेत्रियां उस इमारत को शिखर करने का सपना देखतीं है. हर सपना मीना कुमारी और पाकीजा पर आकर ही दम क्यों तोड़ देता है? इसलिए कि ये दोनों फिल्म इंडस्ट्री को मिली ऐसी विरासतें हैं जिनको पीढिय़ां गुजर जाने के बाद भी याद रखा जाएगा.
मीना कुमारी एक महान अभिनेत्री और नारी की त्रासदी की प्रतीक थीं. ये शब्द किसी बंबईयां फिल्म की प्रचार सामग्री का हिस्सा लगते हैं. लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ है कि हम निहायत ही सादा शब्दों में किसी असीम शख्सियत को अभिव्यक्त कर देते हैं. लगभग दो दशकों तक हिन्दी सिनेमा की चोटी की अभिनेत्री रही मीना कुमारी की निजी जिदंगी, उनकी वैवाहिक त्रासदी, रिश्तेदारों द्वारा किया गया शोषण, प्यार की अबुझ प्यास, आत्मघाती मदिरापान तथा एक शायरा के रुप में उनके मूल्यांकन आदि के बारे में विवादों की कमी नहीं रही. लेकिन इस बारे में कोई दो राय नहीं कि मीना कुमारी जैसी बेमिसाल और बेहतरीन फनकार आनेवाले कई दशकों में देखने में नहीं आएगी.

मीना कुमारी जैसी अभिनेत्री की कला का आंकलन करने से पहले महान अभिनय को थोड़ा परिभाषित करना जरुरी है. यों तो परिभाषाएं बनाना भी आसान नहीं है लेकिन ख्वाजा अहमद अब्बास के इस कथन में काफी दम है कि सच्चा अभिनय वह है कि जब आपको लगे कि व्यक्ति अभिमय कर ही नहीं रहा है. प्रसिध्द अग्रेंजी समीक्षक सी.ई.मांटेगयू ने अभिनय के तीन तत्व बतलाएं है सुनम्य (प्लास्टिक) भौतिक माध्यम, परिष्कृत तकनीक
लगा. लेकिन कोहिनूर, शरारात और आजाद में उन्होंने हास्य भूमिकाएं भी की. शोहरत और दौलत उनके कदम चूमने लगीं. सच तो ी चालाकी और जिस पात्र का अभिनय किया जा रहा है उसके भीतर उतरने का आनंद. पहले के अंतर्गत हम शरीर को या किन्हीं विशिष्ट अंगों के उपयोग को लेते है.
चार्ली चैप्लिन की तरह अपने समस्त शरीर का उपयोग करने वाले अभिनेता बहुत कम होते है लेकिन मीना कुमारी ने अपने अभिनय के दौरान अपनी आँखों का भरपूर फायदा उठाया. अपनी आँखों से ही वे करुणा, दर्द, पाकीजगी, प्यार, नाराजगी तथा मदहोशी भी इतनी सहजता से व्यक्त कर जाती थीं कि उनके साथ अभिनय करते हुए कई तपे हुए कलाकार तक डगमगा जाते थे. एक निर्देशक के अनुसार तो उनकी आँखों के सामने दिलीप कुमार तक विचलित हो जाया करते थे.
बतौर बाल कलाकार मीना ने कुछ फिल्में कीं. इसके बाद बतौर नायिका मीना ने बच्चों का दिल, मदहोश, मूर्ति, दुनिया एक सराय आदि से शुरुआत की लेकिन बात बनी नहीं. बैजू बावरा की सफलता क बाद मीना कुमारी के कैरियर में एक नया मोड़ आया. शारदा, एक ही रास्ता, परिणीता, फूल और पत्थर, मंझली दीदी, नूरजहां, साहब बीवी और गुलाम के साथ ही वे अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाती गई. जल्द ही उसे ट्रेजिडी क्वीन कहा जाने यह है कि अगर मीना अपने चेहरे पर मेकअप नहीं चढ़ाती तो अली बख्श का परिवार दरिद्रता के सागर में डूबता उतरता रहता, मीना ने इस परिवार के दुख दर्द को अपनी मेहनत से सुख शांति में तब्दील कर दिया था. इसके बाद मीना के जीवन में पाकीजा फिल्म का आगमन हुआ. इस फिल्म ने मीना कुमारी को वह ऊंचाई दी जिसके लिए कलाकार जिदंगी भर तरसता है. मीना कुमारी और कमाल अमरोही इस फिल्म की वजह से अमर हो गए. ऐसा नहीं है कि मीना कुमारी के जीवन में पाकीजा के अलावा कुछ नहीं है. बैजू बावरा, चित्रलेखा, परिणिता, दुश्मन, मेरे अपने में भी उनकी भूमिकाएं अपना अलग प्रभाव छोड़ती हैं. मेरे अपने में गुलजार ने उनकी प्रतिभा को सही रुप से बाहर निकाला. सही मायने में मेरे अपने की बूढ़ी औरत का किरदार मीना द्वारा निभाए गए किरदारों में काफी ऊपर रखा जा सकता है.
दुश्मन का रोल हालंाकि केन्द्रीय नहीं था लेकिन फिल्म देख कर बाहर निकलते समय वहीं किरदार जेहन पर याद रहता है. दुश्मन में मीना के बहुत ज्यादा संवाद नहीं थे. सिर्फ उनकी आँखें और चेहरे के भाव ही थे जिन्होंने किरदार में जान डाल दी थीं. इसी तरह साहब बीवी और गुलाम में निभाया छोटी बहू का किरदार सही मायनों में चुनौतीभरा और उलझा हुआ किरदार था. उम्मीद नहीं था कि मीना कुमारी को दर्शक इस रुप में स्वीकार करेंगे. छोटी बहू का किरदार बाद में उनकी जिदंगी पर बुरी तरह छा गया था. उसी तरह चित्रलेखा किरदार . आमतौर पर देखा गया है कि दो बार बनीं फिल्मों में दूसरी बार बनीं फिल्म वह पकड़ नहीं रख पाती जो पहली में होती है. यही बात उस फिल्म के रिकरदारों पर भी लागू होती है जो इनमें काम कर रहे होते है. बहुत कम कलाकार इस चक्र को तोड़ पाए हैं. इन कलाकारों में मीना कुमारी और दिलीप कुमार के नाम खास तौर पर लिए जा सकते हैं. दिलीप कुमार ने देवदास द्वारा अपने को सिध्द किया. पहले बनीं देवदास में के..एल.सहगल थे. इसी तरह मीना ने चित्रलेखा में अपने में आपको साबित किया. पहले बनी चित्रलेखा में उसकी मशहुर अदाकारा महताब थीं. महताब उस फिल्म से जिस ऊंचाई पर पहुंची थीं, उससे कम ऊंचाई परमीना कुमारी भी नहीं थीं. यह मीना के अभिनय का कमाल था. उन्होंने जिस भूमिका को निभाया उससे उसे प्यार हो गया. उनके सशक्त अभिन. का प्राण उनकी आँखें और संवाद अदायगी थीं. उनकी आवाज में एक कशिश थीं. एक दर्द था. सच तो यह है कि मीना कुमारी एक ऐसी अभिनेत्री थीं, जिन्होंने कभी अभिनय तो किया ही नहीं. अभिनय का आधा काम तो उनकी आँखें कर देती थीं. फिल्म आरती का वह सीन इसकी मिसाल है . जिसमें प्रदीप कुमार और मीना कुमारी एक दूसरे को देख रहे होते है और बैक ग्राउंड में कभी तो मिलेगी..बहारों की मंजिल राही.. गाना बज रहा होता है. हालांकि वह युग गला काट प्रतियोगिता का नहीं था, तब भी प्रतिस्पर्धा तो थी ही. एक से एक आला दरजे की अभिनेत्रियां मीना के सामने थीं. मधुबाला जैसी सुंदर, नरगिस जैसी भावप्रणव अभिनेत्रियों के साथ शुध्द प्रतिस्पर्धा के जरिए अपना मकाम बनाना आसान नहीं था.
कमाल अमरोही के साथ उन्होंने घर से विद्रोह करके निकाह किया था. कमाल आजाद ख्यालों की मीना को परदे में रखना चाहते थे. पर मीना को यह मंजूर न था. लिहाजा दोनों में तलाक हुआ. इस अलगांव ने मीना को तोड़ दिया. प्यार की इसी प्यास ने उसे विद्रोही बना दिया. वे जानकी कुटीर में रहने आ गई. अब उनके साथी थे शराब, सिगरेट और शायरी. अभिनय के साथ शायरी भी उनके खीन में थीं. मीना के नाना प्यारेलाल शाकिर मेरठवी शायर थे. मीना कुमारी की शायरी में एकांत, वीराना और दिल टूटने की खनक साफ सुनाई देती है-
न जाने किसके चटखने की
यह आवाज आई
और एहसास दरारों में
कैसे पहुंचा
नगर वीरान झरोखे खामोश
मुंडेरे चुप
खामोशी
उफ कि खलाओं का
दम घुटने लगा...

मोहब्बत की तलाश ने मीना को एक ऐसी अंधेरी जगह तक पहुंचा दिया जहां सब कुछ सुनसान था.अकेलापन, अंधेरा, इस अंधेरे में भी प्यार का जलता दीपक लेकर बैठी रहीं. कभी तो आएगा कोई तो आएगा. या मोहब्बत आएगी या मौत आएगी. मीना की शायरी में मोहब्बत और मौत को एक ही नाम दिया गया है. दोनों से ही मीना को प्यार था-
हर एक मोड़ पर बस
दो ही नाम मिलते है
मौत कह लो जो
मोहब्बत नहीं कहने पाओ.

लेकिन मोहब्बत की तलाश में उनके हाथ लगी नाकामियां बदनामियां और न जाने क्या क्या...प्यार उनके लिए छलावा सिध्द हुआ, वे एक ऐसे रास्ते पर आगे बढ़ती जा रहीं थीं जिसकी कोई मंजिल नहीं थीं. उनकी चाह ही उनके लिए नासूर बन गई. मीना ने यह बात कितने दर्द के सात लिखी है-
मेरे ही ख्वाब मेरे लिए
जहर बन गए
तेरे तसव्वुरात ने
डस लिया मुझे...

प्यार में मीना कुमारी बुरी तरह नाकाम रही. प्यार के हर सिलसिले का अंत दिल तोडऩे वाला निकला. चाहे यह सिलसिला परिवार के साथ हो, या कमाल अमरोही के साथ हो या किसी और के साथ. इस छलावे को मीना ने महसूस किया-
कहां शुरु हुआ यह
सिलसिला कहां टूटे
न इस सिरे का पता है
न इस सिरे का पता

आज हमारे बीच मीना नहीं है. हमारे बीच जो है उनमें अधिकांश व्यावसायिक रवैये वाली अभिनेत्रियां है.ऐसे में मीना कुमारी की याद शिद्दत के साथ आती है. क्या अब कोई मीना पैदा होगी? शायद नहीं, बेहतर है मीना वापस आ जाए. लौट आओ मीना ...तुम कहां हो...?


मीना कुमारी एक नजर में
मीना कुमारी का असली नाम महजबीं था.
मीना कुमारी के पिता अलीबख्श, मां इकबाल बेगम तथा दो बहनें माधुरी और खुर्शीद थीं.
मीना कुमारी के पिता अलीबख्श उर्दू नाटक कम्पनी में हारमोनियम बजाया करते थे.
मीना कुमारी के नाना प्यारेलाल शाकिर मेरठवी के नाम शायरी किया करते थे.
मीना कुमारी को 1954 में बैजू बावरा के लिए पहली बार फिल्म फेयर अवॉर्ड मिला.
मीना कुमारी को जानवरों से बहुत डर लगता था. वे कुत्ते, बिल्ली और चूहों से डरती थी.
दिलीप कुमार के साथ ने अमर में काफी सारा काम किया, लेकिन बाद में फिल्म मधुबाला को लेकर बनीं. दिलीप कुमार के साथ मीना कुमारी ने फुटपाथ, कोहिनूर, यहूदी आजाद आदि में काम किया.
मीना कुमारी बुधवार के दिन को बड़ा अपशकुनी मानतीं थी.
मीना कुमारी को पत्थर जमा करने का बड़ा शौक था. पंडित नेहरु और लाल बहादुर शास्त्री के पास के पत्थर भी उनके यहां मौजूद थे.
मीना कुमारी को पान खाने का शौक था. वे बहुत ज्यादा पान खाती थीं.
मीना कुमारी अच्छी शायर भी थीं. उनकी लिखी कुछ गजलों को मशहूर लेखक-निर्देशक गुलजार ने मीना कुमारी की शायरी नामक पुस्तक में सम्पादित किया है.
मीना कुमारी को अंधेरे और एकांत से बहुत प्यार था. जब तब वे लाइट आफ करके खिड़की के पास खड़ी रहती थीं.
मीना कुमारी को हर चीज में नमक डालकर खाने की आदत थीं. चाय, दूध, लस्सी, कोकाकोला आदि में वे नमक डालकर उपयोग करतीं थी.

मजहबीं से मीना

फिल्म एक ही भूल के दौरान मजहबीं से मीना का नाम मीना कुमारी हुआ. फिल्म के निर्माता ने मीना को कामिनी, प्रभा, विमला और मीना में से किसी एक नाम को चुनने के लिए कहा, इनमें से मीना नाम चुना गया. बाद में इसमें कुमारी और जोड़ दिया गया. बाल अभिनेत्री के रुप में मीना ने फर्ज ए वतन, लेदर फेस, एक ही भूल, बहन, गरीब की पूजा, प्रतिज्ञा, लाल हवेली कसौटी आदि फिल्में कीं.
उंगली का कटना

मीना कुमारी के बचपन की एक घटना है. उस समय उनकी उम्र मुश्किल से 8-9 साल की रहीं होगी. मीना कुमारी परिवार के साथ पंजाब स्थित अपने गांव जा रहीं थी. ट्रेन ने एक बोगदे के अंदर प्रवेश किया और एकदम अंधेरा छा गया. ढ़ेर सारी धूल और धुंआ कम्पार्टमेंट के अंदर घुस गया. मीना ने जल्दी से खिड़की बंद की. लेकिन इसी बीच उनकी अंगुली खिड़की में फंस गई. अंधेरे में उनकी मां और बहन को कुछ समझ में नहीं आया कि मीना क्यों चीखी. जब ट्रेन बोगदे से बाहर निकली तब पता चला कि मीना की उंगली कट गई है.
शराब का सहारा

जानकी कुटीर में आकर मीना निहायत अकेली हो गई. उनको लगा कि लोग उनसे नहीं उनके पैसे से प्यार करते हैं. प्यार की प्यास ने मीना कुमारी को दो नए साथी दिए, शराब और सिगरेट. उनके प्यार और रोमांस के सच्चे-झूठे किस्से जानकी कुटीर में ही जवान हुए. रात-दिन चिंता के कारण मीना बीमार पड़ गई और आखिर उन्हें लंदन जाना ही पड़ा.
कमाल अमरोही से प्यार
मीना महा बलेश्वर से बम्बई आ रहीं थी, इसी बीच उनकी कार का एक्सीडेंट हो गया. मीना को पूना के एक अस्पताल में दाखिल कराया गया. चार दिन बाद फिल्म अनारकली के निर्माता के साथ कमाल अमरोही आए. निर्माता मीना के पिता से मिलने गए. कमरे में मीना और कमाल अमरोही रह गए. कमाल साहब ने टेबल पर रखा जूस का गिलास उठाया और मीना को पिलाया. दोनों की नजरें मिली और प्यार हो गया. बाद में कमाल ने मीना से निकाह किया. भिंडी बाजार के एक मकान में हुआ यह निकाह लंबे समय तक गुप्त रहा.
अफवाहें

मीना कुमारी का नाम अपने दिनों में हर एक्टर से जुड़ा. दरअसल मीना में एक सम्मोहन था. जो हर मर्द को आकर्षित कर लेता था. वैसे उनके साथ प्रदीप कुमार, धर्मेन्द्र और भारत भूषण के साथ जुड़ा था. प्रदीप कुमार के अनुसार साथ काम करके हम काफी करीब आ गए थे. सच तो यह है कि मैं उनके निकटतम मित्रों में से एक था. इस मित्रवत सम्बंध को लोग समझ गए होंगे. पर इसका मुझे अंदाजा नहीं था.
अलगांव

कमाल अमरोही और मीना का साथ ज्यादा दिन नहीं चला. दोनें के बीच दरार आ गई. आखिर मीना ने कमाल अमरोही का साथ छोड़ दिया. वे जानकी कुटीर में रहने आ गई. उस समय मशहूर फिल्म पाकीजा निर्माणाधीन थीं. यह 1964 की बात है. मीना-कमाल के अलगाव से लगा कि अब शायद ही पाकीजा पूरी हो पाए. लेकिन इस अलगाव के बाद भी किसी तरह फिल्म पूरी हो गई.

मीना कुमारी की कविताएं

१.
ये सिलसिले कहाँ टूटे

कहाँ शुरु हुए
कहाँ टूटे
थका थका सा बदन
आह रुह बोझल बोझल
कहाँ पे हाथ से
कुछ छूट गया याद नहीं
न जाने किसके चटखने की
ये आवाज आई
और अहसास दरारों में
कैसे जा पहुंचा
नगर विरान
झरोखें खामोश
मुंडेरें चुप
खामोशी, उफ्फ
कि खलाओं का दम भी घुटने लगा
अचानक आ गई हो मौत
वक्त को जैसे
हाय रफ्तार की नब्जें रुकी,
दिल बैठ गए
ये सिलसिले कहाँ टूटे
न इस सिरे को पता है
न उस सिरे को पता.

२.
टुकड़े-टुकड़े

टुकड़े टुकड़े दिन बीता
धज्जी धज्जी रात मिली
जिसका जितना आंचल था
उतनी ही सौगात मिली.
जब चाहा दिल को समझें
हँसने की आवाज सुनी
जैसे कोई कहता हो
ले फिर तुमको मात मिली.
मातें कैसी घातें क्या
चलते रहता आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया
बचनी भी साथ मिली

३.
दर्द का रिश्ता

मसर्रत पे रिवाजों
का सख्त पहरा है,
न जाने कौंन सी
उम्मीद पे दिल ठहरा है
तेरी आंखों में
झलकते हुए
इस गम की कसम
ए दोस्त
दर्द का रिश्ता
बहुत गहरा है
---------------------- रवि के. गुरुबक्षाणी
स्ट्रीट न. 5, रविग्राम, तेलीबांधा, रायपुर छ.ग. 492006
मोबाइल--8109224468
ईमेल--

Monday, March 15, 2010

चल उड़ जा रे पंछी, कि अब ये देश हुआ बेगाना...






गीत गाथा--------रवि के. गुरुबक्षाणी
चल उड़ जा रे पंछी, कि अब ये देश हुआ बेगाना...संगीत की दुनिया अदभुत है साथियों . कहा जाता है संगीत मुरदा दिलों में जान डाल देता है. इसका सीधा मतलब यह है कि जिसे गीत-संगीत पसंद नहीं वह मुरदों से गया बीता है. जीवन कितना लंबा होता है और मौत कितनी छोटी होती है. बस एक हिचकी और उतार-चढ़ाव की भीड़ से भरी जिदंगी एक पल में खत्म. इस गीत में भी ऐसा ही होता है. जब बलराज साहनी दुनिया से उठ जाते हैं तो यह गीत परदे पे आता है.
अब न तो गीतकार राजेंद्र कृष्ण है, न संगीतकार चित्रगुप्त, न रफी और न पारिवारिक फिल्मों के स्थायी करुण नायक बलराज साहनी. मगर जब भी यह गीत अनचट्टे, कान में पड़ जाता है. इन चारों महानों के याद की लौ जेहन में तेज हो जाती है. याद आता है कैसे इस गीत ने देश को बांध दिया था. उन दिनों देहातों में, शादी ब्याह के मौके पर साउंड सर्विस वाले पहुंचने लगे थे और गानों के तवे बजाया करते थे. उन्हीं के जरिये यह गीत भी दूर-दराज गांवों तक पहुंच गया था. देहात के बूढ़े किसान और उनकी गृहिणियां इस गीत में अपनी सदियों पुरानी भारतीय संस्कृति और सुदीर्घ भारतीय वैराग्य की छाया देखा करते थे. यह गीत आम आदमी के दैन्य को (जो गरीबी से उपजता है ) भली-भांति पकड़ता था. गीत में आने वाले पंछी, आबोदाना, जोगी वाला फेरा और पंख-पखेरु जैसे अलफाजों ने गांवों और सिनेमा को करीब ला दिया था.
1957 साल की बात है यह. देखा जाए तो इस मर्मस्पर्र्शी ग्राम्यगीत की विकट लोकप्रियता का कारण स्वयं राजेंद्र कृष्ण के बोल है. इतनी सरल सुदंर कविता, बोलचाल की सी रवानी, सादगी और जज्बात में डूबे लफ्ज, जिदंगी की तल्खों को बयान करता पंछी वाला रुपक, अंत तक इनका निर्वाह और कसा हुआ छंद छोटे मोटे इल्हाम से कम नहीं थे. राजेंद्र कृष्ण ने प्रदीप की याद दिला दी थीं.
दो भागों में इस लंबे गीत को उन्होंने एक अटूट सांस की तरह फूलों की हथेली पर उतार दिया था. काव्य की देवी उन पर रीझ जो गई थीं. दूसरा कमाल चित्रगुप्त ने किया था. उन्होंने ऐसी आसान हिदुंस्तानी धुन बनाई, ऐसा भावानुकूल वाध्य बजाया था, तबले से ऐसा सुसंगत काम लिया था, कि गीत दिलों में उतरता चला गया. आज भी ग्रामीण हिदुंस्तान की आत्मा को दर्शाने वाले चंद कालजयी गीतों में शायद इसी गीत का शुमार होगा. जरा इन गीतों को याद कीजिए- पिजंरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय, जुन्हरिया कटती जाए रे, जियरा जरत रहत दिन रैन, अजब तोरी दुनिया हो रामा, धरती कहे पुकार के मौसम बीता जाए, तक तक तक तक तगिन तगिन गिन गिन रे और एक कली और दो पतियां, जाने हमरी सब बतियां वगैरह. फिल्म भाभी के चल उड़ जा रे पंछी में सदियों के ग्रामीण हिदुंस्तान का चिर-परिचित बूढ़ा किसान , नया होरी जिदंा हो गया था. यूं फिल्म की कथा गांव-गुठान से कोई वास्ता नहीं रखती थीं. पर यह गीत शहरों से ज्यादा गांवों में पसंद किया गया था. तब इस गीत को गांवों में जब कोई बीमार पड़ जाता था तो उसे यह गीत सुनाया जाता था. मां-बाप की, खेत-खलिहान की, बलवाड़ा के भरे-पूरे ताल की और शादी के साल की यादें ताजा होती है. उस बीमार को बड़ा सुकून मिलता था.
बहुत कम लोगों को मालूम है कि इस गीत को ऐन इसी धुन में पहले तलत की आवाज में रिकॉर्ड किया गया था. मगर बाद में ऐसा महसूसा गया कि गीत में जो सार्वभौमिक टच है, व्यथा-वेदना की उठान है और आकाशी विस्तार है, उसे देखते रफी का गायन ही गीत को पूरा कवर कर सकता है. आंकलन सही था. परदे पर रफी की आवाज ही आई और रफी ने इस गीत के ग्रामीण हिदुंस्तानी दर्द को देशव्यापी आयाम दे दिया. पढि़ए इस गीत को और खो जाइए यादों के पुराने गलियारों में-
चल उड़ जा रे पंछी..
चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देश हुआ बेगाना-
चल उड़ जा रे पंछी..
खत्म हुए दिन उस डाली के, जिस पर तेरा बसेरा था,
आज यहां और कल हो वहां, ये जोगी वाला फेरा था,
ये तेरी जागीर नहीं थी, चार घड़ी का डेरा था,
सदा रहा है इस दुनिया में किसका आबोदाना.
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..पंछी..
तूने तूने तिनका तिनका चुनकर, नगरी एक बसाई
बारिश में तेरी भीगी पांखें, धूप में गर्मी खाई
गम न कर जो तेरी मेहनत, तेरे काम न आई
अच्छा है कुछ ले जाने से, देकर ही कुछ जाना
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..पंछी..
भूल जा अब वो मस्त हवा, वो उडऩा डॉली डॉली,
जग की आंख का कांटा बन गई, चाल तेरी मतवाली
कौंन भला उस बाग को पूछे हो न जिसका माली,
तेरी किस्मत में लिखा है जीते जी मर जाना
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..पंछी..
रोते हैं सब पंख पखेरु साथ तेरे जो खेले
जिनके साथ लगाए तूने अरमानों के मेले
भीगी आँखों से ही उनकी आज दुआंए ले ले
किसको पता है इस नगरी में कब हो तेरा आना
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..चल पंछी..

साफ है कि गीत किसी खास क्लाइमेक्स या अंत के लिए लिखा गया था. पर काव्य सृजन के साथ यह उत्तम संयोग रहा कि पंछी शब्द की लीड से एक बढिय़ा सिचुएशन गीत तैयार हो गया और संदर्भ के बाहर की व्यापक कविता भी बन गया. आज राजेंद्र कृष्ण बस इस गीत के लिए इतिहास है और रफी साहब? उनकी मत पूछिए. उनके बिना कोई भी चरम-गीत या पृष्ठभूमि गीत निष्प्राण है. सब जानते है कि संदेश की सार्वभौमिकता को अभिव्यक्त करने के लिए एक ब्रम्हाांडीय आवाज चाहिए. वह रफी साहब के पास थीं. एक न्याय इस तरह हुआ. साथ ही रफी ने इस गीत को ऐसी तल्लीनता, आत्मीयता और सूफी फकीरों के बैरागीपन से गाया कि आधे आँसू और आधी भूख से भरा कातर हिदुंस्तान इस गीत में बोल उठा. गीत हमें अवाक कर जाता है. यह रससिद्ध रफी की ताकत थीं. सोचता हूं यह करिश्मा कैसे होगा कि वक्त की घड़ी उल्टी घूम जाए मौत के हाथों छीने हुए माता-पिता फिर से मिल जाएं और उनकी जगमगाती आँखों में मैं खुद को एक बार बहचान सकूंँ.. क्या यह बताना पड़ेगा, दोस्तों कि आँखों की मौत से ही स्थायी विरह के थाप को भोगना शुरु होता है? किसी को खोना सर्वप्रथम आँखों को खोना है. कैसे कहूँ कि दिवंगत पिता याद आते हैं इस गीत में -और उनकी आँखें याद नहीं आतीं.
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स्टृीट 5, गल्र्स स्कूल के सामने, रविग्राम, तेलीबाँधा, रायपुर छत्तीसगढ़ 492006
मोबाइल-8109224468.

Monday, March 8, 2010

शफी इनामदार--अभिनय की सशक्त पगडंडी



फ्लैश बैक ...

13 मार्च-स्मरण दिवस---------------------रवि के. गुरुबक्षाणी.
शफी इनामदार का नाम सामने आते ही एक ऐसे प्रतिभाशाली कलाकार का नाम सामने आता है जो रंगमंच की दुनिया से आया बेजोड़ अदाकार था. चरित्र अभिनेताओं की कतार में उनका नाम हमेशा आदरपूर्वक लिया जाता है. टीवी फिल्में और नाटकों की बात करे तो शफी का नाम सफल नाटकों के मंचन में सबसे पहले लिया जाएगा. वैसे उनकी प्रतिभा पवित्र जल की तरह थीं जिसमें में उपयोग करे वैसी बन जाती थीं. कोई भी पात्र विशेष हो शफी को भूमिका सौंप देने का मतलब चादर पहनकर सो जाना था.

कुछ कलाकार ऐसे होते है जिनकी उपस्थिति का ऐसा दर्शकों के विशाल वर्ग से नहीं बल्कि उनके किए काम से होता है. ऐसे कलाकारों की तुलना महानगर में बने हाई-वे से की जा सकती है जिसमें चलने पर खुशी तो मिलती पर हाई-वे जुडऩे वाली पगडंडी पर चलने की संतुष्टि का अपना एक अलग मजा है. शफी इनामदार अभिनय की सशक्त पगडंडी थे. मुंबई में पले बढ़े शफी इनामदार कॉलेज के दिनों से ही नाटकों से जुड़ गए थे. हिन्दी, गुजराती और मराठी तीनों रंगमंच पर शफी की तूती बोला करती थीं. उनके योगदान को रंगमंचीय परिप्रेक्ष्य में भुलाना नामुमुकन है. कालेज की पढ़ाई के बाद शफी, कादर खान और प्रवीण जोशी के साथ जुड़ गए. उन्होंने नीला कमरा, अदा, अपन तो भाई ऐसे नाटकों में खूब नाम कमाया. शफी बर्हुमुखी प्रतिभा के धनी थे. वे अभिनेता होने के साथ साथ नाट्यकार, निर्देशक, निर्माता, कॉमेडियन और चरित्र अभिनेता थे. सफल होने के बाद शफी ने अपना नाट्य ग्रुप हम बनाया और फिर उन्होंने तमाम हिन्दी नाटकों का निर्माण, निर्देशन और अभिनय भी किया. उनका सबसे ज्यादा मशहूर नाटक है बॉ रिटायर थई छे (मां रिटायर हो रही हेै). इस नाटक के हिन्दी गुजराती और मराठी में 500 से ज्यादा शो हुए है. उनके अन्य पापुलर नाटकों में डाक्टर तमे पन, शबाना द सैकंड और टोखर का नाम शामिल है.
शफी को सेल्युलायड के परदे पर लाने का श्रेय गोविन्द निहलानी जी को तो छोटे परदे पर लाने का श्र्ेय मंजुला सिन्हा को जाता है. गोविंद निहलानी ने शफी को विजेता में काम दिया. टीवी की बात करें तो शफी का हास्य धारावाहिक ये जो है जिदंगी भला कौंन भूल सकता है? इसमें रंजीत बने शफी और रेणु बनीं स्वरुप संपत की जोड़ी ने नया इतिहास बनाया था. इस समय दूरदर्शन घुटनों के बल चल रहा था. इस धारावाहिक की लोकप्रियता ने टीवी का नाम घरघर में लोकप्रिय कर दिया. सोप आपेरा शब्द की शुरुआत इसी धारावाहिक से हुई थीं. एक भुल्लकड़ पति के रुप में शफी ने बेमिसाल अभिनय किया था. 52 एपीसोड के बाद शफी ने जब इस धारावाहिक को छोड़ा तो फिर वह क्रेज नहीं रह पाया था इस धारावाहिक का. शफी ने आल द बेस्ट , तेरी भी चुप मेरी भी चुप फिलिप्स टाप-10,खट्टा-मीठा आदि धारावाहिको में काम किया था.
जहां तक फिल्मों की बात है तो शफी ने हर प्रकार की भूमिका निभाई. अर्धसत्य, आज की आवाज, मृत्युदाता, घायल, हिप हिप हुर्रे, यशवंत आदि फिल्में एक लाईन में याद आती हैं. शफी ने अपने निर्देशन में हम दोनों फिल्म का निर्माण भी किया था. इसमें नाना पाटेकर और रिषी कपूर की जोड़ी थीं. शफी इनामदार का दर्शक वर्ग भले बहुत बड़ा न रहा हो, पर यह सच है कि मनोरंजन के कई क्षेत्रों में सक्रिय शफी एक मिसाल तो कायल कर ही गए हैं. अभिनेता बनने से पहले वे बहुत बढिय़ा इंसान थे. उनके साथ काम कर चुके कलाकार मानते है कि शफी प्रेरक व्यक्तित्व के धनी थे. वे हमेशा बेहतर करने के लिए तैयार रहते थे. उन्होंने कभी भी अपनी भूमिका को लोकर नखरे बाजी नहीं की. वे सीधे सादे इंसान थे. यही उनकी खूबी थीं.