Wednesday, May 26, 2010

हिमांशु राय ने दी भारतीय सिनेमा को नई पहचान





स्मरण दिवस-19 मई पर विशेष---------रवि के. गुरुबक्षाणी
हिमांशु राय भारतीय सिनेमा के इतिहास में कभी ना भुलाया जाने वाला नाम है. दादा साहेब फालके, आर्देशर ईरानी, हीरालाल सेन, और व्ही. शांताराम की तरह हिमांशु राय की भी भारतीय सिनेमा के विकास में अहम भूमिका रहीं है. भारतीय सिनेमा से वे उस समय जुड़े जब शुरुआती दौर था. संघर्ष चल रहा था. हिमांशु ने भारतीय सिनेमा को विदेशों तक पहचान कराई. पूरे विश्व को अहसास कराया कि भारतीय सिनेमा उनस ज्यादा पीछे नहीं है. उनकी मूक फिल्म दि लाइट आफ एशिया इंगलैंड में नौ महीने चली थीं.
विश्व सिनेमा में भारत की सबसे पहले पहचान कराने वाले हिमांशु का जनम बंगाल में हुआ था. घर का थियेटर होने के कारण हिमांशु को कला के प्रति रुझाम बचपन से ही हो गया था. वकील बनाने के लिए पिता ने उन्हें इंगलैंड उच्च शिक्षा के लिए भेजा. वकालत के साथ साथ हिमांशु ने वहां पर रंगमंच से भी रिश्ता बना लिया. लंदन में भारतीय लेखक निरंजन पाल के नाटक द गाडेस में हिमांशु ने मुख्य भूमिका निभाई जो बहुत पसंद की गई थीं.
उन्हीं दिनों उनके दिमाग में विश्व के महान ग्रंथों पर फिल्मों की एक सीरिज बनाने का काम आया. उन्होंने 1924 में म्यूनिख की एक कंपनी एमेवेका को इसके लिए साझीदार बना दिया. एडविन आरनोल्ड के काव्य दि लाइट आफ एशिया के आधार पर भगवान बुद्ध के जीवन पर फिल्मांकन किया गया. इसमें गौतम बुद्ध की भूमिका स्वयं हिमांशु ने निभाई और यशोधरा की भूमिका दी गी 23 वर्षीय सीतादेवी (वास्तविक नाम-रेनी स्मिथ) को. निर्देशन किया जर्मनी के फ्रेज आस्टिन ने. यह फिल्म भारत की अपेक्षा विदेशों में ज्यादा चलीं. मध्य यूरोप में इसने धूम मचा दी थीं. लगातार नौ महीने चलकर इसने कीर्तिमान स्थापित कर दिया. विश्व स्तर पर दि लाइट आफ एशिया की व्यावसायिक सफलता को देकर कई फिल्मकारों ने हिमांशु के सामने फिल्में बनाने के प्रस्ताव रखें. सन 1926 में हिमांशु ने जर्मनी की एक फिल्म कंपनी के सहयोग से शिराज नाम की फिल्म का निर्माण किया. फिल्म का कथानक विश्व प्रसिद्ध ताजमहल से सम्बंधित था. फ्रांज आस्टिन निर्देशित इस फिल्म में उनकी नायिका थी सीता देवी. सीतादेवी इस फिल्म में मुमताज बनीं थीं. यह फिल्म भी काफी सफल रहीं थीं. भारत, इंगलैंड और जर्मनी के अलावा अन्य देशों में भी इस फिल्म ने अपनी सफलता के झंडें गाढ़ दिये थे.
तीन साल बाद 1929 में हिमांशु राय ने इंगलैंड और जर्मनी की कम्पनी की मदद से ए थ्री आफ डायस फिल्म का निर्माण किया. फ्रांज आस्टिन द्वारा ही निर्देशित इस फिल्म के निर्माण के दौरान हिमांशु राय व देविका रानी इतने निकट आ गए कि फिल्म पूरी होते होते दोनों का रिश्ता कलाकारों के बजाए पति-पत्नि का बन गया था. शिराज ने अच्छी खासी व्यावसायिक सफलता हासिल की थीं. इसके बाद हिमांशु राय ने इंग्लिश कम्पनी के साथ मिलकर पहली सवाक फिल्म कर्म का निर्माण देविका रानी को लेकर किया. कर्म को अपार सफलता मिलीं. हिमांशु राय के सामने पैसों का ढेर लग गया. हिमांशु राय ने समझदारी दिखाते हुए सन 1964 में बम्बई के मालाड में आधुनिक उपकरणों से युक्त बाम्बे टाकीज की स्थापना कर डाली. थोड़े से समय में बाम्बे टाकीज का नाम चारों तरफ फैल गया. इतना नाम बढ़ा कि इसका नाम ही अच्छी फिल्मों की जमानत बन गया.
बाम्बे टाकीज की पहली फिल्म थीं-जवानी की हवा. नजम और देविका रानी इसमें नायक नायिका थे. यह पहली फिल्म थी जिसमें पहली बार पाश्र्व गायन का प्रयोग किया गया. सन 1935 में बाम्बे टाकीज के लैब अस्टिस्टेंट अशोक कुमार का नाम नायक के रुप में उभरा. दरअसल हुआ यूं कि नजम अचानक बंबई से बाहर चले गए. चूंकि हिमांशु राय काफी अनुशासन व काम के पाबंद थे इसलिए वह अपनी फिल्म जीवन प्रभात के लिए नजम का इंतजार नहीं कर सकते थे. अत: उन्होंने अशोक कुमार को फिल्म का नायक बना दिया. हिमांशु राय का चयन सार्थक रहा. फिल्म बेहद सफल रहीं.

सन 1936 में हिमांशु राय ने छूआछूत के जैसे ज्वलंत विषय पर अछूत कन्या बनाई. ब्राम्हण लड़के व अछूत लड़की की प्रेम कहानी वाली इस फिल्म ने समाज के ठेकेदारों में खलबली मचा दी. बाक्स आफिस पर इस फिल्म ने शानदार सफलता हासिल की. इसके बाद बाम्बे टाकीज के बैनर तले सामाजिक विषयों से सम्बंधित कई फिल्मों का निर्माण हुआ.
हिमांशु राय को साहित्य के प्रति गहरा लगाव था. वह अक्सर स्तरीय कहानियों की तलाश में रहा करते थे. मुंशी प्रेमचंद, कवि नरेंद्र शर्मा, शाहिद लतीफ, इस्मत चुगताई, पंडित प्रदीप, निरंजन पाल, गोपाल सिंह नेपाली जैसी प्रसिद्ध हस्तियां काफी लम्बे समय तक बाम्बे टाकीज से जुड़ी रहीं. नए कलाकारों को मौका देने में हिमांशु राय कभी पीछे नहीं रहे. देविका रानी, देवी, अशोक कुमार, लीला चिटनीस, एस.मुखर्जी, ख्वाजा अहमद अब्बास, अमिय चक्रवर्ती जैसी हस्तियों को हिमांशु राय ही सामने लाए. हिमांशु राय दिन-रात फिल्मों की बेहतरी के लिए सोचते रहते थे.
सिर्फ छह वर्ष में ही बाम्बे टाकीज की उन्होंने विशिष्ट पहचान बना दी थीं. इसको और बड़ा आकार देने की योजना वे बना ही रहे थे कि 19 मई 1940 को सिर्फ 45 वर्ष की उम्र में उमका निधन हो गया. इतनी छोटी सी उम्र में उन्होंने जो उपलब्धियां हासिल की थीं, वह किसी अजूबे से कम नहीं थीं. आज भी पुराने लोग हिमांशु राय और बाम्बे टाकीज के चर्चे गर्व से किया करते हैं.

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