Monday, March 15, 2010

चल उड़ जा रे पंछी, कि अब ये देश हुआ बेगाना...






गीत गाथा--------रवि के. गुरुबक्षाणी
चल उड़ जा रे पंछी, कि अब ये देश हुआ बेगाना...संगीत की दुनिया अदभुत है साथियों . कहा जाता है संगीत मुरदा दिलों में जान डाल देता है. इसका सीधा मतलब यह है कि जिसे गीत-संगीत पसंद नहीं वह मुरदों से गया बीता है. जीवन कितना लंबा होता है और मौत कितनी छोटी होती है. बस एक हिचकी और उतार-चढ़ाव की भीड़ से भरी जिदंगी एक पल में खत्म. इस गीत में भी ऐसा ही होता है. जब बलराज साहनी दुनिया से उठ जाते हैं तो यह गीत परदे पे आता है.
अब न तो गीतकार राजेंद्र कृष्ण है, न संगीतकार चित्रगुप्त, न रफी और न पारिवारिक फिल्मों के स्थायी करुण नायक बलराज साहनी. मगर जब भी यह गीत अनचट्टे, कान में पड़ जाता है. इन चारों महानों के याद की लौ जेहन में तेज हो जाती है. याद आता है कैसे इस गीत ने देश को बांध दिया था. उन दिनों देहातों में, शादी ब्याह के मौके पर साउंड सर्विस वाले पहुंचने लगे थे और गानों के तवे बजाया करते थे. उन्हीं के जरिये यह गीत भी दूर-दराज गांवों तक पहुंच गया था. देहात के बूढ़े किसान और उनकी गृहिणियां इस गीत में अपनी सदियों पुरानी भारतीय संस्कृति और सुदीर्घ भारतीय वैराग्य की छाया देखा करते थे. यह गीत आम आदमी के दैन्य को (जो गरीबी से उपजता है ) भली-भांति पकड़ता था. गीत में आने वाले पंछी, आबोदाना, जोगी वाला फेरा और पंख-पखेरु जैसे अलफाजों ने गांवों और सिनेमा को करीब ला दिया था.
1957 साल की बात है यह. देखा जाए तो इस मर्मस्पर्र्शी ग्राम्यगीत की विकट लोकप्रियता का कारण स्वयं राजेंद्र कृष्ण के बोल है. इतनी सरल सुदंर कविता, बोलचाल की सी रवानी, सादगी और जज्बात में डूबे लफ्ज, जिदंगी की तल्खों को बयान करता पंछी वाला रुपक, अंत तक इनका निर्वाह और कसा हुआ छंद छोटे मोटे इल्हाम से कम नहीं थे. राजेंद्र कृष्ण ने प्रदीप की याद दिला दी थीं.
दो भागों में इस लंबे गीत को उन्होंने एक अटूट सांस की तरह फूलों की हथेली पर उतार दिया था. काव्य की देवी उन पर रीझ जो गई थीं. दूसरा कमाल चित्रगुप्त ने किया था. उन्होंने ऐसी आसान हिदुंस्तानी धुन बनाई, ऐसा भावानुकूल वाध्य बजाया था, तबले से ऐसा सुसंगत काम लिया था, कि गीत दिलों में उतरता चला गया. आज भी ग्रामीण हिदुंस्तान की आत्मा को दर्शाने वाले चंद कालजयी गीतों में शायद इसी गीत का शुमार होगा. जरा इन गीतों को याद कीजिए- पिजंरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय, जुन्हरिया कटती जाए रे, जियरा जरत रहत दिन रैन, अजब तोरी दुनिया हो रामा, धरती कहे पुकार के मौसम बीता जाए, तक तक तक तक तगिन तगिन गिन गिन रे और एक कली और दो पतियां, जाने हमरी सब बतियां वगैरह. फिल्म भाभी के चल उड़ जा रे पंछी में सदियों के ग्रामीण हिदुंस्तान का चिर-परिचित बूढ़ा किसान , नया होरी जिदंा हो गया था. यूं फिल्म की कथा गांव-गुठान से कोई वास्ता नहीं रखती थीं. पर यह गीत शहरों से ज्यादा गांवों में पसंद किया गया था. तब इस गीत को गांवों में जब कोई बीमार पड़ जाता था तो उसे यह गीत सुनाया जाता था. मां-बाप की, खेत-खलिहान की, बलवाड़ा के भरे-पूरे ताल की और शादी के साल की यादें ताजा होती है. उस बीमार को बड़ा सुकून मिलता था.
बहुत कम लोगों को मालूम है कि इस गीत को ऐन इसी धुन में पहले तलत की आवाज में रिकॉर्ड किया गया था. मगर बाद में ऐसा महसूसा गया कि गीत में जो सार्वभौमिक टच है, व्यथा-वेदना की उठान है और आकाशी विस्तार है, उसे देखते रफी का गायन ही गीत को पूरा कवर कर सकता है. आंकलन सही था. परदे पर रफी की आवाज ही आई और रफी ने इस गीत के ग्रामीण हिदुंस्तानी दर्द को देशव्यापी आयाम दे दिया. पढि़ए इस गीत को और खो जाइए यादों के पुराने गलियारों में-
चल उड़ जा रे पंछी..
चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देश हुआ बेगाना-
चल उड़ जा रे पंछी..
खत्म हुए दिन उस डाली के, जिस पर तेरा बसेरा था,
आज यहां और कल हो वहां, ये जोगी वाला फेरा था,
ये तेरी जागीर नहीं थी, चार घड़ी का डेरा था,
सदा रहा है इस दुनिया में किसका आबोदाना.
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..पंछी..
तूने तूने तिनका तिनका चुनकर, नगरी एक बसाई
बारिश में तेरी भीगी पांखें, धूप में गर्मी खाई
गम न कर जो तेरी मेहनत, तेरे काम न आई
अच्छा है कुछ ले जाने से, देकर ही कुछ जाना
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..पंछी..
भूल जा अब वो मस्त हवा, वो उडऩा डॉली डॉली,
जग की आंख का कांटा बन गई, चाल तेरी मतवाली
कौंन भला उस बाग को पूछे हो न जिसका माली,
तेरी किस्मत में लिखा है जीते जी मर जाना
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..पंछी..
रोते हैं सब पंख पखेरु साथ तेरे जो खेले
जिनके साथ लगाए तूने अरमानों के मेले
भीगी आँखों से ही उनकी आज दुआंए ले ले
किसको पता है इस नगरी में कब हो तेरा आना
चल उड़ जा रे पंछी..बेगाना..चल पंछी..

साफ है कि गीत किसी खास क्लाइमेक्स या अंत के लिए लिखा गया था. पर काव्य सृजन के साथ यह उत्तम संयोग रहा कि पंछी शब्द की लीड से एक बढिय़ा सिचुएशन गीत तैयार हो गया और संदर्भ के बाहर की व्यापक कविता भी बन गया. आज राजेंद्र कृष्ण बस इस गीत के लिए इतिहास है और रफी साहब? उनकी मत पूछिए. उनके बिना कोई भी चरम-गीत या पृष्ठभूमि गीत निष्प्राण है. सब जानते है कि संदेश की सार्वभौमिकता को अभिव्यक्त करने के लिए एक ब्रम्हाांडीय आवाज चाहिए. वह रफी साहब के पास थीं. एक न्याय इस तरह हुआ. साथ ही रफी ने इस गीत को ऐसी तल्लीनता, आत्मीयता और सूफी फकीरों के बैरागीपन से गाया कि आधे आँसू और आधी भूख से भरा कातर हिदुंस्तान इस गीत में बोल उठा. गीत हमें अवाक कर जाता है. यह रससिद्ध रफी की ताकत थीं. सोचता हूं यह करिश्मा कैसे होगा कि वक्त की घड़ी उल्टी घूम जाए मौत के हाथों छीने हुए माता-पिता फिर से मिल जाएं और उनकी जगमगाती आँखों में मैं खुद को एक बार बहचान सकूंँ.. क्या यह बताना पड़ेगा, दोस्तों कि आँखों की मौत से ही स्थायी विरह के थाप को भोगना शुरु होता है? किसी को खोना सर्वप्रथम आँखों को खोना है. कैसे कहूँ कि दिवंगत पिता याद आते हैं इस गीत में -और उनकी आँखें याद नहीं आतीं.
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स्टृीट 5, गल्र्स स्कूल के सामने, रविग्राम, तेलीबाँधा, रायपुर छत्तीसगढ़ 492006
मोबाइल-8109224468.

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