Saturday, July 31, 2010

मुरलीधरन--शिखर पुरुष की शाही विदा







-------- रविन्दर.
कैन्डी के छोटे से खूबसूरत शहर में जन्में मुरलीधरन ने जब क्रिकेट खेल की शुरुआत की थी तो कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वे इस खेल में ऐसा रिकॉर्ड बनाएंगे, जिसे तोडऩा किसी भी अन्य क्रिकेटर के लिए दु:स्वप्न साबित होगा. जी हाँ, विकेटों के शहँशाह मुथैय्या मुरलीधरन ने 800 विकेटों के जिस ऊँच्चांक को छुआ है. उस तक पहुँचना आसमान छुने के बराबर ही है. गॉल टेस्ट से इस फिरकी जादूगर की गेंदबाजीं सिर्फ चर्चाओं में शामिल होगी. उनके सॅन्यास से टेस्ट खेलने वाले बल्लेबाजों ने राहत की सांस ली है.
जरा इस फिरकी गेंदबाज का आत्मविश्वास तो देखिए. भारत के खिलाफ टेस्ट शुरु होने से पहले टेस्ट के बाद टेस्ट क्रिकेट छोडऩे की घोषणा कर दी और टेस्टों में 800 विकेटों के लक्ष्य को पूरा करने की आशा भी जताई. टेस्ट में 8 विकेट लेना आसान नहीं होता वो भी भारतीय बल्लेबाजों के, जिन्हें विश्वभर में स्पिन खेलने का महारथी कहा जाता है. भारतीय पारी के आखिरी विकेट तक सस्पेंस कायम रहा कि मुरली इस लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे कि नहीं..पूरे विश्व के क्रिकेट प्रेमियों की निगाहें टकटकी बांधे लगी रहीे थीं. अपने आखिरी टेस्ट की दोनों पारियों में मुरली ने क्या कमाल की गेंदबाजी की. धोनी का विकेट जिस गेंद पर और जिस तरीके से लिया वह हमेशा याद रहेगा.
मुरली ने 5 साल पहले ही क्रिकेट छोडऩे का मन बना लिया था. लेकिन चकिंग के आरोप और आस्ट्रेलियाई क्रिकेटरों की छींटाकशी से मुरली ने अपना मन बदला. मुरली की गेंदबाजी पर जयवर्धने ने सर्वाधिक कैच 76 लपके हैं. किसी एक क्षेत्ररक्षक के रुप में एक ही गेंदबाज की गेंदबाजी पर कैचों का यह विश्व रिकॉर्ड है. मुरली ने 67 वीं बार एक पारी में 5 या इससे ज्यादा विकेट लेने का कारनामा दिखाया है. इतना ही नहीं मुरली ने 22 बार 10 या ज्यादा विकेट भी लिए है. 17 अप्रेल 1972 को कैन्डी में पैदा हुए मुरलीधरन शुरु में तेज गेंदबाज बनना चाहते थे. लेकिन एक एक्सीडेंट में हाथ फ्रेक्चर हो गया और उसी हाथ से इस जादूगर ने अच्छे अच्छे बल्लेबाजों को नचा डाला. मुरली ने लंका के अलावा एशियाई इलेवन, चेन्नई सुपर किंग, आईसीसी वल्र्ड इलेवन, कान्डुराता, केन्ट, लंकाशायर, तमिल युनियन क्रिकेट और एथलेटिक क्लब की टीमों से भी क्रिकेट खेला है. 5 फुट 7 इंच के मुरली मूलत: सीधे हाथ के ऑफब्रेक गेंदबाज है. उसनें सेंट एंथोनीस कालेज, केन्डी में अपनी पढ़ाई पूरी की. मुरली ने अपना पहला टेस्ट 28 अगस्त से 2 सितम्बर 1992 में आस्ट्रेलिया के खिलाफ कोलंबो में खेला था. जबकि वे 1989-90 में प्रथम स्तर की क्रिकेट खेलने आ गए थे.
मुरली 6 कप्तानों के साथ क्रिकेट खेला, उसनें कभी भी स्वयं कप्तान बनने की कोशिश नहीं की. इसका उन्हें मलाल है कि चयनकर्ताओं ने उन्हें कभी कप्तानी का मौका नहीं दिया. मुरली की गेंदबाजी का रहस्य जानने के लिए कई बार रिसर्च किए गए हैं. प्रसिद्ध क्रिकेट समीक्षक डगलस जार्डिन लिखते हैं कि मुरली की गेंदबाजी एक रहस्य है. वह घरेलु मैदानों पर तो ठीक पर विश्वभर के हर मैदान पर कैसे समान क्षमता से स्पिन करा लेते है. मैंने ऐसी अद्भुत क्षमता वाला क्रिकेटर नहीं देखा. मुरली की गेंदबाजी दरअसल एक प्रेरणा है. शारीरिक विक्षमताओं के बाद भी अदम्य साहस की बदौलत इतिहास बनाया जा सकता है. आर्थोडेक्स फिंगर स्पिनर मुरली के लिए शेन वार्न हमेशा राइवल बने रहे. दोनों की प्रतिदं्वदिता देखते बनती थीं. मुरली को गेंदबाजी में इतनी महारात हासिल थीं कि उसनें दूसरा शैली की गेंद का ईजाद कर डाला.
मुरली के जीवन में अजीब मोड़ तब आया जब आस्ट्रेलियाई अम्पायर डेरेल हेयर ने 1995 बॉक्सिंग डे मैच में उनकी गेंदो को नोबाल करार देने लगे. उन पर गेंदो को थ्रो करने का गंभीर आरोप लगा. इसके तीन साल पहले रास एमर्सन ने भी उनकी गेंदो पर .हीं आरोप जड़ा था. उनका बायोकेमिकल टेस्ट वैस्टर्न आस्ट्रेलिया की युनिवर्सिटी और हागकांग युनिवर्सिटी में किया गया. बाद में तमाम परिक्षाओं के बाद मुरली निर्दोष साबित हुए. उनकी गेंदबाजी को आप्टिकल इलुशन आफ थ्रोइंग का नाम दिया गया.
मुरली जब भी टेस्ट खेलने जाते तो थोड़ा नर्वसनेस महसुस करते थे. जब तक उन्हें गेंद नहीं थमा ली जाती थीं. 800 विकेट लेने से पहले 5 दिन बड़ी मुश्किल से गुजरे. मुझे आखिरी तक उम्मीद थी कि मैं लक्ष्य हासिल कर लुंगा. मीडिया का प्रेशर मेरे मैनेजर कुशील हैंडल कर रहे थे. उन्होंने मुझे पूरी क्षमता से गेंदबाजी करने के लिए कहा था. मैंने इसके लिए कड़ी मेहनत की थीं. टेस्ट छोडऩे का निर्णय कठिन नहीं था के जवाब में मुरली कहते हैं-नहीं ये तो आसान निर्णय था. वेस्टइंडीज दौरे के बाद नवम्बर में मैंने मन बनाया था कि अब टेस्ट क्रिकेट छोड़ूंगा. मैं हमेशा टेस्ट को मिस करुंगा. नए स्पिनरों को मौका भी मिलना चाहिए. इसके लिए थोड़ा क्लिनिकल फेक्टर भी शामिल है. मैंने एक मैच में स्पिनर की कमी पूरी करने के लिए तेज गेंदबाजी की जगह आफकटर का प्रयोग किया जो कामयाब गया, बस तभी से मन बना डाला कि अब आफ स्पिन करुंगा. मेरा कोई रोल मॉडल नहीं था. मैं विकेट लेने से ज्यादा जीतने में विश्वास करता हूँ. मेरा फेवरेट विकेट कौंन सा था कहना मुश्किल है. मुझे मई 2004 में वाल्श का 519 और फिर 2007 में शेन वॉर्न का 708 विकेटों का रिकॉर्ड तोडऩा सर्वाधिक खुशी का क्षण लगता है जब मैंने पाल कांिलगवुड को आउट किया था. इंगलैंड के खिलाफ 16 विकेटों का प्रदर्शन ओवल का यादगार था. इस मैच के सारे स्पैल मैंने मेहनत से किए थे. मुझे कुकाबुरा, एसजी और ड्युक में से एसजी गेंद से गेंदबाजी करना मुश्किल लगा, पर मैंने हार्ड वर्क किया. ब्रुस यार्डली और डेव वाटमोर ने मुझे गेंदबाजी के रनअप की बारीकियाँ समझाई. इससे मेरी बाडी के वैरिएशन और मुवमेंट में फर्क आया. गेंदो में वैरायटी दिखी. इससे पहले मैं क्रीज का उपयोग करके ड्रीफटिंग का सहारा लेता था.
मैंने सचिन और लारा के खिलाफ गेंदबाजी करने में असहज महसुस किया. ये दोनों क्रिकेट के मास्टर बैट्समेन है. मैंने हमेशा समकालीन स्पिनरों के साथ इंजाय किया. अनिल कुबंले, शेन वार्न, सकलैन, हरभजन, वैटोरी के साथ मजा आता था. 1996 का विश्वकप जीतना मेरे लिए यादगार लम्हा है. मैं काउंटी क्रिकेट और आईपीएल में खेलना जारी रखूंगा. और हां 2011 का विश्वकप भी खेलना चाहता हूँ . मैं उपलब्ध हूँ. चयनकर्ताओं को बता दिया है.

रविन्दर.
स्ट्रीट न. 5, गल्र्स स्कूल के सामने, गुरुबक्षाणी निवास, रविग्राम (तेलीबांधा) रायपुर छ.ग. 492006.







सारी-सारी रात तेरी याद सताए- गीताबाली
फ्लैश बैक-----
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प्रदीप कुमार के अभिनय का स्तर चाहे जो कुछ भी रहा हो, लेकिन उन्होंने एक बार गीता बाली के अभिनय के बारे में कहा था, अभिनय की परी इनसानी लिबास पहन कर आयी थीं. वल्लाह क्या बात है. यानि गुणी गुण वेत्ती यह उक्ति सच नहीं है. काबिल रत्न पारखी खुद कभी रत्न होता ही नहीं. ढ़ेर सारे गीत गाने के बाद लता मंगेशकर के दिल में गीता बाली के लिए साफ्ट कार्नर है. लता दी ने भी एक अवसर पर कहा था- गीता बाली मुझे बहुत पसंद थीं. वह सतही तौर पर खूबसूरत भले ही न हो, लेकिन वह थीं बड़ी प्यारी. ठीक ठीक लंबाई, भरा पूरा शरीर और मोटी-मोटी आँखें. उसका व्यवहार भी सौहार्दपूर्ण था. उसके चेहरे पर गजब का ग्रेस था.
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गीता बाली के सौंदर्य के बारे में दो राय हो सकती है, लेकिन उसका स्फूर्त और सहज-सुंदर अभिनय सदा ही विवादातीत रहा है. उसकी सूरत में एक अजीब सी अनोखी अपील थीं. वह उसके फूले हुए गालों में थीं या अपने पर भरोसा है तो एक दांव लगा ले कहकर ललकारने वाली निगाहों में थीं- यह कहना तो मुश्किल है. पर शाम ढले खिडक़ी ढले इशारे करने को उकसाने वाला आकर्षण उसमें अवश्य था. तनूजा और जया भादुड़ी का चटपटा शोखपन उसमें था और वहीदा रहमान की तरल संवेदना क्षमता भी थीं, इसलिए सुन बैरी बालम सच बोल..(बावरे नैन) जैसा नटखट प्रणय गीत जिस खूबी से उसनें अभिनित किया, उसी कुशलता से रुठ के तुम चले गए..(जल तरंग) जैसे व्याकुल विरह गीत के जरिए अपनी मनस्थिति का सार्थक एहसास भी वह दिला सकी. देवानंद की नायिका के रुप में वह बाजी, फरार, मिलाप, जाल, जलजला, फेरी, और पाकिटमार में तो बहुचर्चित थी ही, लेकिन झमेला और अलबेला में भगवान की नायिका बनने पर भी उसकी आव में कमी नहीं आई. अलबेला का रंबा रंबा नृत्य बड़ा सामान्य था. लेकिन गीताबाली कंधे उचकाती हुए इस कदर मोहक अंदाज में नाचती रही कि देखते ही बनता है.
केदार शर्मा की सुहागरात उसकी पहली फिल्म थीं (इसके पहले वह पंचोली की फिल्म पतझड़ के एक नृत्य में दिखाई दी थीं). इसके बाद उसके सितारे बुलंदी पर तो रहे, लेकिन उसे एक भी भूमिका नहीं मिली, जिसे उल्लेखनीय कहा जा सके. देवानंद के अलावा उसे जिन नायको के साथ काम करने का मौका मिला उनमें चोटी के नायको की संख्या बहुत कम थीं. दिलीप कुमार तो उसके पल्ले पड़ा ही नहीं और राज कपूर सिर्फ एक बार बावरे नैन में, अशोक कुमार (रागरंग) मोतीलाल (लालटेन) बलराज साहनी (सी.आई.डी.गर्ल) बड़ी मुश्किल से उसे मिल सके. वरना तो जिदंगी के सुनहरे दिन उसे प्रेम अदीब (भोली) जयराज (गरीबी) रहमान (शादी की रात) भारत भूषण (कवि) अभि भट्टाचार्य (नैना) कमल कपूर (अमीर) करण दीवान (सौ का नोट) शेखर (नया घर) सज्जन (नजरिया) अमरनाथ (लचक) जसवंत (होटल) और सुरेश (अजी बस शुक्रिया) के साथ अभिनय करने में ही बिताने पड़े. बरसों वह फालतू फिल्मों में बढिय़ा अभिनय करती रहीं. तथापि उनके अभिनय में आंच नहीं आई. न ही उनके चहेतो में कोई कमी आई.
केदार शर्मा , गुरुदत्त और देवानंद के साथ उसका नाम उछलता रहा, लेकिन उसमें अपने से दो साल छोटे शम्मी कपूर से विवाह कर तहलका मचा दिया था. ब्याहता बनकर कपूर खानदान की गृहस्थी में प्रवेश करने वाली शायद वह पहली नायिका थीं. पूरी फिल्म में मर्दाना भूमिका करने वाली (रंगीन रातें) गीताबाली एकमात्र ऐसी अभिनेत्री थीं. दुनियाभर में ऐसी कोई अन्य मिसाल नहीं है. अचानक माता की बीमारी ने उसे हमसे छीन लिया और राजिन्दर सिंह बेदी की फिल्म रानो को साकार करने का सपना अधूरा रह गया. बेदी को विश्वास नहीं था कि अन्य कोई अभिनेत्री इस भूमिका के साथ न्याय कर पाएगी इसलिए उन्होंने इस फिल्म को हमेशा के लिए बंद कर दिया. गीता बाली सादगी की प्रतिमूर्ति थीं जिसमें असीमित सौंदर्य छुपा था.
जितना दिया, उससे ज्यादा लौटाया--शम्मी कपूर
शम्मी कपूर अपने शादी के पूर्व दिनों को याद करते हुए बताते है, मैं आज भी वह दिन नहीं भूला हूँ, जब हम शादी से पहले अलग अलग कार में निकला करते थे और फिर थोड़ी दूर जाकर एक गाड़ी को रास्ते में कहीं खड़ी करके दोनों ही एक कार में एक साथ घुमने जाया करते थे. वह अपने पैरों पर खड़ी होने वाली खुद्दार लडक़ी थीं. वह शूंटिंग पर कभी भी अपने भाई या माँ को साथ नहीं लाती थीं. वह हमेशा अकेली ही शूंटिंग पर आती थीं. सेट पर वह कभी भी शांत नहीं बैठा करती थीं. हमेशा कुछ न कुछ चुहलबाजी करती रहती थीं, लेकिन कैमरे के सामने आते ही उसका अंदाज बदल जाता था. यहीं गीताबाली का खासियत थीं. शम्मी आगे कहते है--मैंने जिदंगी में गीताबाली को जितना दिया, उससे ज्यादा उसनें मुझे लौटा दिया.
--------------------------------------------------- रवि के. गुरुबक्षाणी.
(लेखकीय सम्पर्क--- ह्म्.द्दह्वह्म्ड्ढड्ड3ड्डठ्ठद्बञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व)

Tuesday, July 6, 2010

राज खोसला--रहस्य और रोमांच का चितेरा














लोकप्रिय फिल्मों के लोकप्रिय फिल्मकार
अगर आप फिल्मों के संदर्भ में राज खोसला का नाम लेते हैं तो आपके जेहन में मेरा गांव मेरा देश, सी.आई.डी., मैं तुलसी तेरे आंगन की, दो बदन, दो रास्ते, वो कौंन थी, मेरा साया, काला पानी, कच्चे धागे और दोस्ताना जैसी अनगिनत सुपर हिट फिल्मों का नाम सामने आ जाता है. इतनी सारी लोकप्रिय फिल्मों को बनाने वाला फिल्मकार विलक्षण प्रतिभा का धनी राज खोसला ही था. इनकी फिल्में आज भी वहीं क्रेज, सस्पेंस, थ्रिलर, मनोरंजन की गारंटी रखती है, साथ ही संगीत की सुर लहरियों में आपको ऐसे फांसती है कि सारा समय आप इन्हीं फिल्मों के गीतों को गुनगुनाने का सम्मोहन ब-मुश्किल छोड़ पाते हैं. राज खोसला का फिल्मों की लोकप्रियता का रसायन उनकी फिल्मों का साफ सुथरापन रहा. रहस्य रोमांच के बीच मधुर गीत संगीत का तड़का यही उनकी फिल्मों की असली पूंजी थीं. लोक प्रिय सिनेमा के निर्माता निर्देशक राज खोसला ऐसे फिल्मकार थे, जिन्होंने फिल्मों में जिदंगी के विविध रंगों को मनोरंजक ढंग से अभिव्यक्ति प्रदान की.
राज खोसला का जन्म 31 मई 1925 को पंजाब के गुरदासपुर जिले के हरगोविंदपुर में हुआ था. पिता के साथ छोटी उम्र में ही राज खोसला मुंबई आ गए थे. उनके चाचा देवानंद के पिता किशोरी आनंद के गहरे दोस्त थे. राज खोसला की प्रारंभिक शिक्षा अंजुमन इस्लामिक स्कूल में हुई. उन्होंने एलिफोस्टन कॉलेज में अंग्रेजी में स्नातक की उपाधि प्राप्त की. फिल्म के वातावरण में उनका प्रवेश चेतन आनंद के मुंबई आने के बाद हुआ. 1948 के लगभग चेतन आनंद, देवानंद और विजय आनंद पाली हिल में एक साथ रहने लगे थे. जल्द ही राज खोसला भी इसी परिवार के साथ रहने लगे. उनका चेतन आनंद की पत्नी उमा आनंद से बेहद स्नेह था. वे उन्हें भाभी और आनंद बंधुओं को भाई मानते थे.
अपनी पहली फिल्म मिलाप (1955) से लेकर नकाब (1989) तक के सफर में राज खोसला ने मंनोरंजन के हर पहलू को उजागार किया. सामाजिक परिवेश से जुड़े विषय राज खोसला की फिल्मों में आई हिंसा और अश्लीलता से बेहद नाराज थे. उनका मानना था कि फिल्म पारिवारिक मंनोरंजन है. उनका आज के फिल्मकारों से सवाल था कि क्या उनकी फिल्में परिवार के सात बैठकर देखी जा सकती है. राज खोसला ने तो डकैत समस्या पर भी मेरा गांव मेरा देश जैसी साफ सुथरी फिल्म बनाई थीं. चेतन आनंद ने स्वतंत्र निर्देशन के क्षेत्र में तो बहुत पहले प्रवेश कर लिया था लेकिन निर्माण निर्देशन में के क्षेत्र में उनका प्रवेश अकबर फिल्म से हुआ. नवकेतन के बैनर तले बनी इस फिल्म के सहायक निर्देशक राज खोसला थे. नवकेतन की दूसरी फिल्म बाजी जिसके निर्माता देवानंद थे, का निर्देशन गुरुदत्त ने किया और सहायक निर्देशक की जिम्मेदारी फिर राज खोसला ने इसी फिल्म से पर्दापण किया लेकिन अभिनय का क्षेत्र राज खोसला को रास नहीं आया और वे पूरी तरह निर्देशन के क्षेत्र में ही सक्रिय हो गए. सहायक निर्देशक के रुप में राज खोसला ने जाल, बाज, आर पार जैसी लोकप्रिय फिल्मों में गुरुदत्त के साथ काम किया. राज खोसला ने स्वतंत्र फिल्म निर्देशन के क्षेत्र में प्रवेश फिल्म मिलाप से किया. इस फिल्म में देवानंद ने पहली बार ग्रामीण युवक की भूमिका की थीं और वे धोती कुर्ते में नजर आए. इसी फिल्म से संगीतकार एन. दत्ता को पहली बार संगीतकार के रुप में मौका मिला था. यह फिल्म हॉलीवुड की सफल फिल्म मिस्टर डी.गोज टू टाऊन से प्रेरित थीं और टिकिट खिड़की पर बेहद सफल रहीं थीं.
सी.आई.डी. ने राज खोसला को सफल फिल्म निर्देशक के रुप में स्थापित कर दिया. रहस्य रोमांच से भरी इस फिल्म ने वहीदा रहमान और महमूद जैसे कलाकार फिल्मों को दिए. संगीतकार ओ.पी.नैय्यर को स्थापित कर दिया. इस फिल्म में देवानंद, शकीला और वहीदा रहमान थे. फिल्म का संगीत खूब हिट हुआ था. 1958 में बंगाल के ख्याति प्राप्त लेखक आनंदोपाल की कहानी खाली बोतल पर फिल्म काला पानी का निर्देशन किया. देवानंद, मधुबाला और नलिनी जयवंत द्वारा अभिनीत यह फिल्म सफल रहीं थीं. एस.डी. बर्मन ने इस फिल्म में संगीत दिया था. फिल्म के लिए देवानंद को सर्वोत्तम अभिनेता का फिल्म फेयर और सहायक अभिनेत्री का फिल्म फेयर अवार्ड नलिनी जयवंत को दिया गया जबकि मुकाबले में राज कपूर अभिनीत फिर सुबह होगी और दिलीप कुमार की मधुमति थीं. काला पानी में नृत्य निर्देशन लच्छू महाराज ने किया था.
बंगाल की ख्याति प्राप्त अभिनेत्री सुचित्रा सेन को हिन्दी पर्दे पर देवानंद के साथ राज खोसला ने कैमरामैन जाल मिस्त्री की फिल्म बंबई का बाबू में प्रस्तुत किया. लेकिन नायक-नायिका के भाई-बहन दिखाए जाने को दर्शकों ने स्वीकार नहीं किया और फिल्म चली नहीं. निर्माता शशिधर मुखर्जी के लिए राज खोसला ने फिल्म एक मुसाफिर एक हसीना निर्देशन कर उनके पुत्र जॉय मुखर्जी को पहली फिल्म में ही लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचा दिया. मनोज कुमार और साधना को लेकर राज खोसला ने वह कौंन थी का निर्देशन किया. इस फिल्म के प्रीमियर पर ख्याति प्राप्त निर्माता महबूब ने बधाई देते हुए कहा कि तू तो हिचकॉक का भी बाप निकला. रहस्य भरी फिल्मों में राज खोसला की खास दिलचस्पी थीं. उन्होंने मेरा साया तथा अनिता का निर्देशन किया लेकिन यह फिल्में खास नहीं चलीं. मनोज कुमार और आशा पारिख अभिनीत फिल्म दो बदन, राजेश खन्ना और मुमताज अभिनीत दो रास्ते खोसला की सफलतम संगीतमय प्रस्तुतियां थीं.
मेरा गांव मेरा देश में राज खोसला ने ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को डकैतों के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष करने को प्रेरणा दी. इस फिल्म से संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल पहली बार राज खोसला से जुड़े. हॉलीवुड की फिल्म से प्रेरित होने के बावजूद फिल्म का सम्पूणर््ा परिवेश भारतीय था. शहरी बदमाशों के माध्यम से डाकुओं का प्रतिरोध कच्चे धागे में उभरकर सामने आया. राज खोसला के जीवन में देवानंद और गुरुदत्त की तरह ही दिल्ली की एक युवती आई. जिससे विवाह करने के बाद उनके जीवन में भूचाल आ गया. अपने जीवन के इस अनुभव को राज खोसला ने फिल्म मैं तुलसी तेरे आंगन की में अभिव्यक्त किया था.नूतन और आशा पारेख के साथ विजय आनंद ने इस फिल्म में यादगार अभिनय किया था. अमिताभ बच्चन को लेकर राज खोसला ने सिर्फ एक फिल्म दोस्ताना का निर्माण किया था. राज खोसला की फिल्मों पर अगर आप नजर दौड़ाए तो पाएंगे कि उनकी फिल्मों का संगीत बेहद कर्णप्रिय था. इसकी चर्चा फिर कभी करेंगे. राज ख्रोसला 9 जून 1991 को चल बसे.
--------------------------------------------------रवि के. गुरुबक्षाणी

सोहराब मोदी---- ऐतिहासिक फिल्मों का सिकंदर





फिल्मों में कुछ कलाकार ऐसे होते है जो अपने नाम मात्र से विश्वास की कसौटी पर खरे उतरते है. सोहराब मोदी ऐसी ही फिल्मी शख्सियत है. बात चाहे फिल्म निर्माण की हो, अभिनय की हो अथवा संवाद बोलने की शैली की हो. सोहराब मोदी का जवाब नहीं था.कहते है कि उनके संवाद सुनने के लिए अंधें भी उनकी फिल्में देखने जाते थे. उनकी सशक्त संवाद अदायगी के कारण उन्हें मिनर्वा का शेर कहा जाता था. हिन्दी फिल्म जगत को समृद्ध एवं गौरवशाली स्वरुप प्रदान करने में जिन दो-चार लब्दप्रतिष्ठ फिल्मकारों का योगदान को भुलाना संभव नहीं, उनमें से एक नाम अभिनेता-फिल्मकार सोहराब मोदी का भी है. सच तो यह है कि सोहराब मोदी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है. अपने लगभग पांच दशकीय फिल्मी जीवन में कुल 38 फिल्मों का निर्माण, 27 फिल्मों का निर्देशन और 31 फिल्मों में अभिनय करने वाले सोहराब मोदी को भारतीय के हीरक इतिहास का साक्षी एवं फिल्मों की शुरुआती दौर का सशक्त प्रमाण माना जा सकता है.
सोहराब मोदी के पिता रामपुर (उ.प्र.) के नवाब के सुपरिटेंडेट थे. बड़े भाई रुस्तम नाटकों में अभिनय और निर्देशन किया करते थे. उनकी एक नाटक कम्पनी भी थीं. घर में ही अभिनय का माहौल मिलने के कारण सोहराब मोदी भी नाटकों में अभिनय करने की इच्छा को दबा नहीं पाए. नाटकों में वे अभिनय और निर्देशन करने लगे. जल्द ही फिल्मों की तरफ उनका ध्यान गया. प्रथम सवाक फिल्म आलमआरा (1931) से प्रेरित होकर फिल्म निर्माण में वे आ गए. अपनी फिल्म निर्माण संस्था मिनर्वा मूवीटोन की स्थापना की. इसी के बैनर तले सोहराब मोदी ने सर्वप्रथम हेमलेट फिल्म का निर्माण एवं निर्देशन किया. 1935 में प्रदर्शित यह फिल्म सोहराब मोदी के जीवन्त अभिनय एवं दक्ष निर्देशन के कारण काफी लोकप्रिय हुई थीं. फिल्म की आशातीत सफलता ने सोहराब मोदी जैसे रचनाकार -सर्जक को नए जोश, ऊर्जा एवं उमंग से भर दिया. फलत: उसके बाद से फिल्म निर्माण, निर्देशन एवं अभिनय का जो क्रम शुरु हुआ, तो जीवन भर तक बदस्तूर जारी रहा.
सोहराब मोदी की खासियत रही कि उनके द्वारा हरेक तरह की सामाजिक, धार्मिक, सुधारवादी और ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण किया गया और प्राय: हरेक तरह के चरित्र को उन्होंने बेहद संजीदगी से जीया. हैमलेट के बाद मिनर्वा मूवीटोन के बैनर तले दूसरी फिल्म थी- सईद-ए-हवस. उसके बाद खूनी की खून फिल्म उन्होंने बनाई. उस फिल्म में उनकी नायिका थीं-नसीम बानो. उस समय की टाप अभिनेत्री थीं. इन दोनों ही फिल्मों में उन्होंने जीवन की विदूषताओं, विसंगतियों एवं विडंबनाओं को अत्यंत सूक्ष्मता एवं संवेदनशीलता के साथ परदे पर चित्रित किया. दोनों ही फिल्में अपने समय में खासी सफल एवं चर्चित भी रहीं थीं.
वैसे तो सोहराब मोदी ने प्राय: हर तरह की फिल्मों का निर्माण किया, पर ऐतिहासिक फिल्में बनाने में उनकी टक्कर का कोई दूसरा फिल्मकार नहीं हुआ. उनकी खूबी थीं कि वे जब किसी ऐतिहासिक विषय पर फिल्म बनाते थे तो उसके निर्माण से पहले काफी शोध किया करते थे और संतुष्ट होने पर ही उस पर फिल्म बनाने का काम शुरु करते थे. यहीं कारण था कि उनके द्वारा निर्मित ऐतिहासिक विषयों पर आधारित फिल्मों की पटकथा, संवाद, पात्र चयन सभी कुछ अपने आप में अद्भुत हुआ करते थे. ऐतिहासिक तथ्यों एवं संदर्भों को मूल रुप से पेश करने में उन्हें महारत हासिल थीं. अपनी लगभग सभी फिल्मों में नायक की भूमिका सोहराब मोदी ही निभाया करते थे. उनका व्यक्तित्व भी इन भूमिकाओं के लिए बिल्कुल फिट बैठता था. उनकी गंभीर एवं सधी आवाज ऐतिहासिक चरित्रों में जान डाल देती थीं. उनका इस कोटि की सर्वाधिक चर्चित एवं लोकप्रिय फिल्मों के रुप में पुकार (1939) एवं सिकंदर (1941) का नाम लिया जा सकता है. पुराने लोगों को पुकार का संग्राम सिंह और सिकंदर का पोरस का चरित्र आज भी याद आता है. दोनों ही फिल्मों में बेहतरीन अभिनय के कारण उन्हें देश-विदेश में लोकप्रियता मिली थीं. अपनी आरंभिक दोनों ऐतिहासिक फिल्मों की जर्बदस्त सफलता से उत्साहित होकर सोहराब मोदी ने अन्य कई बेहतरीन ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण किया. जिसमें पृथ्वीवल्लभ, एक दिन का सुल्तान, शीशमहल, झांसी की रानी, नौशेरवान-ए-आदिल आदि को विशेष रुप से रेखांकित किया जा सकता है.
सामाजिक फिल्मों निर्माण के क्षेत्र में भी सोहराब मोदी का योगदान स्तुत्य है क्योंकि सामाजिक विषयों पर फिल्म निर्माण के जरिए भी उन्होंने समाज में व्याप्त अनेक तरह की विसंगतियों एवं समस्याओं से समाज को साक्षात्कार कराया. उनकी इस कोटि की फिल्मों में शराबखोरी की समस्या पर बनीं फिल्म मीठा जहर, तलाक की समस्या पर बनीं फिल्म डाइवोर्स, आम आदमी की दैनिक समस्याओं पर बनीं फिल्म मझंधार, कैदियो की समस्याओं पर बनीं फिल्म जेलर आदि काफी सफल रहीं थीं. उनकी अन्य सामाजिक फिल्मों में भरोसा, दौलत, खान बहादुर, फिर मिलेंगे, मेरा घर मेरा बच्चे, समय बड़ा बलवान आदि विशेष रुप से उल्लेखनीय है.
फिल्म निर्माण, निर्देशन एवं अभिनय के दौरान सोहराब मोदी ने अनेक पुरस्कार देश-विदेश में जीते. इनमें दादा साहेब फालके पुरस्कार (1979) के अलावा मिर्जा गालिब (1954) फिल्म के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण-रजत पुरस्कार प्रमुख है.
सोहराब मोदी को याद करना मतलब कि ठाठ बाट से फिल्मी जीवन जीने वालों को याद करना है. परदे पर चित्रित अपनी खूबसूरत अदाकारी एवं बेहतरीन सृजनात्मकता के कारण सोहराब मोदी सदियों तक भारतीय फिल्माकाश पर विराजमान रहेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं.
--------------------------------रवि के. गुरुबक्षाणी.